अघोषित इमरजेंसी कहां लगी है, देश में या फिर पश्चिम बंगाल में?
खुद इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी को गलती माना था, लेकिन राजनीति है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही है.
नई दिल्ली:
देश में इमरजेंसी (Emergency 1975) लगी है, नहीं लगी है. बंगाल में इमरजेंसी लगी है, नहीं लगी है. 25 जून, 1975 को देश में इमरजेंसी की बात होना अब दस्तूर बन गया है. इस बहाने राजनीति चमकाने की कोशिश होती चली आ रही है और आगे भी जारी ही रहेगी. अब यह कब तक चलता रहेगा इस बारे में कोई नहीं जानता है. इंदिरा गांधी सरकार के इस कदम के लिए कई बार पार्टी की ओर से बयान जारी कर इसे गलती के रूप स्वीकार किया गया. पिछले साल भी पार्टी ने साफ कहा कि खुद इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी को गलती माना था, लेकिन राजनीति है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही है.
वर्तमान में इमरजेंसी का सबसे ज्यादा प्रयोग या तो बीजेपी के नेता कर रहे हैं या फिर पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी. कारण साफ है कि पश्चिम बंगाल से आए दिन हिंसा की खबरें आ रही हैं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याएं होना अब जैसे आम बात हो गया है. बीजेपी ने इन घटनाओं को लेकर राज्य में अघोषित इमरजेंसी के आरोप लगा रहे हैं वहीं राज्य की सीएम ममता बनर्जी केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पर अघोषित इमरजेंसी लगाने की बात कर रही हैं. ऐसे में दोनों ही दलों के नेताओँ के गैर-जरूरी बयानों का सिलसिला जारी है और जारी है हिंसा का दौर और गरीब लोगों की हत्याओं का दौर.
एक चुनावी सभा में पीएम नरेंद्र मोदी
पिछले कुछ दिनों में देखा जाए तो दोनों ही दलों के वरिष्ठ नेताओं के बयान लगातार इस प्रकार की हिंसा को जैसे बढ़ावा ही दे रहे हैं और लग रहा है कि किसी को भी मानवीय जीवन की कोई चिंता नहीं है. देश में अपरिपक्व राजनीति का इससे बड़ा उदाहरण नहीं देखने को मिल सकता है. देश के पीएम नरेंद्र मोदी और सत्ताधारी दल बीजेपी के अध्यक्ष और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से लेकर पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा तक ने इस बारे में कोई संतोषजनक बयान नहीं दिया है. पार्टी और सरकार की ओर से अभी तक कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाया गया है जिससे कि यह लगे कि देश में आम नागरिकों के जीवन की कोई कद्र है. ऐसा लग रहा है वीआईपी कल्चर का विरोध करने वाले पीएम नरेंद्र मोदी यहां पर वीआईपी कल्चर को बढ़ावा दे रहे हैं. राजनीतिक हिंसा में अभी तक दोनों ही ओर से किसी भी बड़े नेता का कोई भी नुकसान देखने के नहीं मिला है लेकिन आए दिन गरीब आदमी सत्ता के लिए जारी अघोषित संघर्ष, में अपनी जान गंवा रहा है.
इस पूरी हिंसा के पीछे सबसे बड़ा कारण कुछ है तो वह है राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए चुनावी माहौल तैयार करना. हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद यह साफ दिखाई दे रहा है कि बीजेपी ने राज्य में चुनावी जमीन काफी हद तक तैयार कर ली है और अब वह विधानसभा चुनाव में जीत के लिए पूरा प्रयास करेगी. बीजेपी यह नहीं चाहती कि राज्य में जो पार्टी के पक्ष में लहर बनती जा रही है वह किसी भी तरह से कमजोर पड़े. चुनाव बीत जाने के करीब सवा महीने बाद भी राज्य में ऐसा ही लग रहा है कि चुनावी प्रक्रिया जारी है और दोनों ही दल चुनाव के लिहाज से ही अपनी गतिविधियां बरकरार रखे हुए हैं. दोनों दलों के नेताओं का दौरा जारी है. किसी न किसी बहाने से लोगों के बीच बयानबाजी जारी है और लोगों को उकसाने के बयान भी जारी हैं.
उधर, राज्य में सत्ताधारी टीएमसी को बीजेपी की इतनी बड़ी जीत समझ में ही नहीं आ रही है. पार्टी पिछले दो विधानसभा चुनाव की जीत को बरकरार रखना चाहती है. लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव के परिणाम ने पार्टी के माथे पर बल ला दिए हैं. देश में पश्चिम बंगाल शायद एक अकेला ऐसा राज्य है जहां पर राजनीतिक दल का सीधे तौर पर रोजमर्रा के प्रशासन में सीधा दखल होता है. बताया तो यहां तक जाता है कि जिले का पार्टी अध्यक्ष डीएम-एसपी से ज्यादा बड़ी हैसियत रखता है. विरोधी दलों के लोगों के सामने काफी कठिनाइयां होती हैं. यही वजह है कि राज्य में सत्ता बदलती है तो किसी एक दल को साफ बहुमत मिलता है. राज्य में जब कोई दल साफ होता है तो पूरी तरह ही साफ हो जाता है. लेफ्ट के साथ भी ऐसा हुआ था. याद रखिए राज्य में करीब 33 सालों तक लगातार लेफ्ट ने शासन किया और अब वहां लेफ्ट वजूद की लड़ाई लड़ रहा है. ममता बनर्जी और टीएमसी को कोई डर सता रहा होगा तो यही डर है.
जरूरी है कि देश में स्वस्थ लोकतंत्र के निर्माण के लिए कदम उठाए जाएं और हिंसा चाहे किसी भी रूप में उसे सिरे से खारिज किया जाए. हिंसा के किसी भी रूप को परोक्ष रूप से भी बढ़ावा देना भविष्य के साथ खिलवाड़ है. इस प्रकार की हिंसा कब जाकर भयावह रूप ले ले ये कोई नहीं जानता है. समय रहते सजगता ही समाधान की ओर ले जा सकता है.
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं.)
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