नीतीश ने बताया NDA छोड़ने का कारण, RCP सिंह बन सकते थे JDU के 'एकनाथ शिंदे'
2017 में, नीतीश ने यू-टर्न लिया और फिर से भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में वापस आ गए क्योंकि वह राजद के दबाव वाले गठबंधन को जारी नहीं रख सके.
highlights
- 2017 में नीतीश ने यू-टर्न लेकर एनडीए में वापस आ गए
- वह राजद के दबाव वाले गठबंधन को जारी नहीं रख सके
- वह सीएम बने रहे और भाजपा के साथ 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा
नई दिल्ली:
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ अपनी पार्टी जद (यू) के गठबंधन को खत्म करने की घोषणा करते हुए इस्तीफा दे दिया है. गठबंधन का मौजूदा चरण जुलाई 2017 से अगस्त 2022 तक पांच साल तक चला. जनता दल (यूनाइटेड) और भारतीय जनता पार्टी ने 1990 के दशक में अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की थी. तब भाजपा ने बिहार में जद (यू) को "बड़े भाई" का दर्जा दिया था. एनडीए से अलग होने को नीतीश कुमार ने पार्टी का सामूहिक निर्णय बताया है. उन्होंने कहा कि सभी लोगों की इच्छा थी कि बीजेपी से अलग हो जाना चाहिए. विधायकों और सांसदों की सहमति के बाद एनडीए गठबंधन से अलग होने का फैसला लिया गया है.
नीतीश कुमार ने लगाया पार्टी तोड़ने का आरोप
नीतीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन तोड़ने के जो कारण बताये हैं, उसमें कुछ तात्कालिक और कुछ कारण लंबे समय से चले आ रहे हैं. नीतीश ने कहा कि भाजपा ने हमें हमेशा अपमानित किया. इसके साथ ही नीतीश ने बीजेपी पर बड़ा आरोप लगाया है. उन्होंने कहा कि भाजपा आरसीपी सिंह के जरिये जेडीयू को कमजोर करने की कोशिश कर रही थी. यही नहीं भाजपा ने 2020 के चुनाव में चिराग पासवान के जरिए जेडीयू को कमजोर करने की कोशिश की गई. अब जेडीयू विधायकों को तोड़ने की साजिश चल रही थी. पार्टी को खत्म करने की साजिश रची गई. भाजपा के लगातार षडयंत्र के कार पार्टी को एकजुट रखना मुश्किल हो रहा था इसलिए हमने एनडीए से नाता तोड़ लिया
भाजपा से अलग रहने पर जेडीयू को हुआ था फायदा
लंबे समय तक जेडीयू और भाजपा का गठबंधन चला. लेकिन गठबंधन में होने के बावजूद नीतीश कुमार समय-समय पर एनडीए से अलग राय रखते थे. नीतीश 2013 से 2017 के बीच बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए से बाहर थे, तब उनकी पार्टी का विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन बीजेपी से बेहतर रहा. 2015 के विधानसभा चुनावों में जद (यू) ने भाजपा की 53 के मुकाबले 71 सीटें जीतीं, जहां दोनों दलों ने प्रतिद्वंद्वियों के रूप में लड़ाई लड़ी.
मोदी फैक्टर से हुआ नीतीश कुमार का नुकसान
2014 के लोकसभा चुनावों के साथ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बिहार में भारतीय जनता पार्टी का उदय शुरू हुआ. भाजपा और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 2013 में बीजेपी के नीतीश कुमार का साथ छोड़ने के कारण फायदा हुआ था. लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 22 सीटें जीतीं, जबकि जेडीयू मात्र दो सीट जीत सकी थी. बिहार में एनडीए ने अतिरिक्त नौ लोकसभा सीटें जीतीं, जिसमें लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) को छह और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) को तीन सीटें मिलीं. दरअसल, 2014 आम चुनाओं के पहले नीतीश कुमार विपक्षी दलों की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की लालसा में एनडीए से अलग हो गए थे. लेकिन जद यू और यूपीए ने राज्य में अपमानजनक हार देखी.
हालांकि जेडीयू ने अगले साल यानि 2015 विधानसभा चुनावों में बहुत बेहतर प्रदर्शन किया, जहां उसकी संख्या भाजपा की संख्या से अधिक थी, यह अब राज्य की सबसे बड़ी पार्टी नहीं थी. इस चुनाव से ही वास्तव में नीतीश के राजनीतिक पतन की पटकथा शुरू की.राष्ट्रीय जनता दल (राजद) 80 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरा, जिसमें लालू प्रसाद यादव किंगमेकर के रूप में उभरे.
2017 में नीतीश ने यू-टर्न लेकर फिर से एनडीए में वापस आए
2017 में, नीतीश ने यू-टर्न लिया और फिर से भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में वापस आ गए क्योंकि वह राजद के दबाव वाले गठबंधन को जारी नहीं रख सके. वह सीएम बने रहे और सहयोगी के रूप में भाजपा के साथ 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा.
संसदीय चुनावों में बिहार में 2014 की तुलना में और भी अधिक मजबूत मोदी लहर देखी गई, जिसमें एनडीए ने 40 लोकसभा सीटों में से 39 पर जीत हासिल की.भाजपा यहां चालक थी, जिसे 17 सीटें मिली थीं.जद (यू) को 16 और एनडीए की एक अन्य सहयोगी लोजपा ने मोदी लहर की सवारी करते हुए 6 सीटें जीतीं.
2020 के विधानसभा चुनावों ने वास्तव में यह स्पष्ट कर दिया था कि भाग्य बदल गया था और अब राज्य में भाजपा राजनीतिक रूप से जेडीयू की "बड़ा भाई" थी. जेडीयू जो कभी बिहार की सबसे बड़ी पार्टी थी, अब तीसरे नंबर पर थी.और उसका आधार केवल 43 सीटों पर सिमट गया था.2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से अधिक सशक्त भाजपा ने अब विधानसभा में भी बेहतर प्रदर्शन किया और यह सीटों की संख्या के मामले में जेडीयू से दोगुना बड़ा था. सबसे बड़ी पार्टी राजद से एक सीट कम.
वास्तव में भाजपा शानदार वृद्धि दर्ज करने वाली एकमात्र बड़ी पार्टी थी, जबकि राजद ने 2015 के विधानसभा चुनावों में 80 सीटों की संख्या को घटाकर 75 कर दिया. लेकिन भगवा पार्टी ने अपनी बात रखी और सीएम की कुर्सी नीतीश के पास ही रही.
लेकिन भाजपा का मानना था कि बिहार के परिणाम मोदी कारक का प्रतिबिंब थे. मोदी की छवि ने एनडीए को इस चुनाव में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया था.यह जमीनी हकीकत में परिलक्षित होता था.जद (यू) को केंद्र में सिर्फ एक कैबिनेट मंत्री मिला.भाजपा ने बिहार कैबिनेट में भी दो डिप्टी सीएम पदों और विधानसभा अध्यक्ष का पद लिया.नीतीश स्पीकर जेडीयू का चाहते थे और दो डिप्टी सीएम पदों को गारजरूरी मानते थे.
शिवसेना फैक्टर ने किया बर्दाश्त की सीमा पार
गठबंधन में भाजपा के बढ़ते प्रभाव से नीतीश नाराज थे और "शिवसेना प्रभाव" ने केवल आग में घी डाला. शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे ने पार्टी के अधिकांश विधायकों के साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के खिलाफ विद्रोह कर दिया, जो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी थे. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की सरकार गिर गयी. अब शिवसेना के बागी नेता असली शिवसेना का प्रतिनिधित्व करने का दावा कर रहे हैं और भाजपा के साथ गठबंधन में सरकार बनाई है.शिवसेना को विरासत में कौन मिला, इसका मामला अब अदालत में है.
क्या भाजपा आरसीपी सिंह का इस्तेमाल कर रही थी
नीतीश इस संभावना से नाराज़ थे कि भाजपा पूर्व इस्पात मंत्री और जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह का इस्तेमाल अपनी पार्टी में शिवसेना जैसी स्थिति पैदा करने के लिए कर रही थी, भले ही भाजपा ने इसका जोरदार खंडन किया हो.उन्हें विश्वास था कि भाजपा ने 2020 के विधानसभा चुनावों में जेडीयू के प्रदर्शन को नुकसान पहुंचाने के लिए लोजपा का इस्तेमाल किया और जल्द ही उनकी पार्टी को उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना की तरह तोड़ा जा सकता है.
जेडीयू भी राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) द्वारा बिहार में कथित आतंकी मॉड्यूल पर छापेमारी से खुश नहीं है, जिसके विवादास्पद पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) से जुड़े होने का संदेह है. जेडीयू के लिए, यह सब भाजपा द्वारा नीतीश कुमार की छवि को खराब करने के लिए किया गया था ताकि उन्हें उखाड़ फेंकने की अपनी भविष्य की योजनाओं को आकार दिया जा सके जैसा कि शिवसेना के उद्धव ठाकरे के साथ किया है.नीतीश के नेतृत्व वाली जेडीयू आरसीपी सिंह के पार्टी समर्थकों द्वारा उन्हें बिहार के भावी सीएम के रूप में पेश करने से नाराज थी.
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एनडीए से अलग होने का लंबे समय से दे रहे थे संकेत
नीतीश कुमार लंबे समय से एनडीए से अलग होने के संकेत दे रहे थे.सशस्त्र बलों के लिए केंद्र की अग्निपथ योजना पर नीतीश चुप थे, जाति जनगणना की मांग की, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का विरोध, राज्य में धर्मांतरण विरोधी कानून या जनसंख्या नियंत्रण कानून की कोई आवश्यकता नहीं है , और उनके अनुसार, धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकरों पर विवाद एक गैर-मुद्दा था. नीतीश कुमार भले ही भाजपा के बढ़ते प्रभाव से आगे बढ़े हों, लेकिन जेडीयू के एक और शिवसेना बनने की संभावना से शायद सहज नहीं थे.
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