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क्या सवर्ण गरीबों को आरक्षण देने का फैसला अदालत में टिक पायेगा, जानें यहां

अमरेंद्र शरण के मुताबिक समानता भी संविधान का बुनियादी ढांचे का हिस्सा है.

Updated on: 08 Jan 2019, 11:48 AM

नई दिल्ली:

लोकसभा चुनाव से पहले सरकार ने एक बड़ा सियासी दांव खेलते हुए आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों को 10 फीसदी आरक्षण देने का अहम फैसला लिया है. सरकार इस आरक्षण को लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन लेकर आएगी. लेकिन क्या सरकार का ये फैसला न्यायिक समीक्षा के दायरे में रहेगा? अगर इसे अदालत में चुनौती दी जाती है तो सरकार के लिए इसे कोर्ट में सही साबित करना आसान नहीं होगा. न्यूज़ नेशन ने इसके लिए पूर्व एडिशनल सॉलिसीटर जनरल अमरेन्द्र शरण से बात की.

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पूर्व ASG अमरेन्द्र शरण ने न्यूज़ नेशन को बताया कि सरकार के इस कदम से करीब 60% आरक्षण हो जाएगा. ये सुप्रीम द्वारा तय (अधिकतम 50 फीसदी) आरक्षण की सीमा से ज़्यादा है. लिहाज़ा उसकी न्यायिक समीक्षा हो सकती है. सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को वैध ठहराना सरकार के लिए मुश्किल होगा.

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पूर्व ASG ने कहा कि यदि सरकार इसके लिए संविधान में संसोधन कर कानून बना कर उसे नौंवी अनुसूची में भी डालती है तो 2007 में दिए गए फैसले के मुताबिक न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकता है. इस फैसले के मुताबिक इस अनुसूची में शामिल वो कानून भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकता है. अगर वो संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ हो.

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अमरेंद्र शरण के मुताबिक समानता भी संविधान का बुनियादी ढांचे का हिस्सा है. लिहाजा इसके हनन के आधार पर इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती हैं. आर्थिक तौर पर आरक्षण दिए जाने की संविधान में व्यवस्था नहीं है. सिर्फ शैक्षणिक/सामाजिक आधार पर पिछड़ेपन को आधार बनाकर ही आरक्षण की व्यवस्था की गई थी. बेहतर होता कि अगर सरकार आर्थिक तौर पर आरक्षण का फैसला लेते वक़्त 50 फीसदी आरक्षण दिए जाने की सीमा का उल्लंघन नहीं करती.