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जब देश के वित्त मंत्री को देना पड़ा था इस्तीफा!

भारतीय इतिहास एक ऐसा किस्सा जिसने वित्त मंत्री की साख पर लगा दिया था सवालिया निशान और जिसके कारण वित्त मंत्री तक को गंवानी पड़ी थी सरकारी नौकरी।

Updated on: 24 Jan 2017, 06:50 PM

नई दिल्ली:

बजट 2017 का आगाज़ होने वाला हैं... सबकी निगाहें वित्त मंत्री के पिटारे पर लगीं है कि क्या होगा ख़ास इस बार उनके लिए... लेकिन इसमें अभी थोड़ा समय बाकी है, तब तक बजट के इंतज़ार में बैठे लोग क्या इतिहास पर एक नज़र नहीं डालना चाहेंगे...।

क्या नहीं जानना चाहेंगे आप कि क्या हुआ था तब जब देश के चौथे वित्त मंत्री थे सवालों के घेरे में और आज़ाद भारत के पहले सबसे बड़े वित्तीय घोटाले में शक के आधार पर उन्हें अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ा था। एक ऐसे वित्त मंत्री जिनके कारण देश के प्रधानमंत्री और उनके दामाद के बीच जारी मतभेद खुल कर सबके सामने आ गए थे। 

जी हां, हम बात कर रहे हैं, देश के चौथे वित्त मंत्री टीटी कृष्णानामचारी की। एक नज़र साल 1957 पर, जिसने देश की आर्थिक दुनिया में भूचाल ला दिया था। यह था मुंद्रा घोटाला... क्या था यह घोटाला और कैसे इस घोटाले की चपेट में आकर देश के वित्त मंत्री तक को अपनी साख और नौकरी दोनों गवानी पड़ी थी। आइए जानते हैं - 

मुंद्रा घोटाला

हरिदास मुंद्रा कोलकाता का एक व्यवसायी था। उसके कारोबारी जीवन की शुरुआत नाइट बल्ब की बिक्री करने से हुई थी। वह जल्द से जल्द अमीर बनने की कोशिश में था। इस कारण उसने कई बड़ी कंपनियों पर अवैध तरीके से अपना कब्ज़ा कर लिया था और बहुत कम समय में ही वो 4 करोड़ रुपये की संपत्ति का स्वामी बन गया था।

धीरे-धीरे उसका कद बढ़ता गया और उसके संबंध देश के उच्च पदों पर बैठे लोगों से होने लगे। साल 1956 में उसे शेयर बाज़ार यानि बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में धोखाधड़ी करने का दोषी माना गया।

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इससे कुछ समय पहले ही वित्तीय अनियमित्ताओं के चलते सरकार ने निजी फाइनेंस कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम की कमान भी अपने हाथों में ले ली थी। इसे बिल्कुल 'सरकार का बच्चा' माना जाता था।

इसी दौरान साल 1957 में हरिदास मुंद्रा से संबंधित घाटे में चल रही 6 कंपनियों में एलआईसी ने 1 करोड़ 25 लाख रुपये से अधिक का निवेश किया था। यह कंपनियां थी, ब्रिटिश इंडिया कॉरपोरेशन, कानपुर कॉटन मिल्स, जीसोप्स एंड कंपनी, रिचर्डसन क्रूडास , स्मिथ स्टेनिस्ट्रीट, ऑसलर लैंप्स और एगनेलो ब्रद्रस आदि। 

कहा जाता है कि यह निवेश सरकार के दबाव में किया गया था और एलआईसी इंवेस्टमेंट कंपनी ने इसे पास किया था। टीटी कृष्णानामचारी के बजट के बाद इन कंपनियों के शेयर्स तेज़ी से गिरे थे और इस निवेश में एलआईसी को बड़ा नुकसान हुआ था।

इस वित्तीय अनियमितता का मामला साल 1958 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के दामाद फिरोज़ गांधी ने संसद में उठाया था। फिरोज गांधी न सिर्फ देश के प्रधानमंत्री के दामाद थे बल्कि राय बरेली सीट से सदन के सदस्य भी थे। 

हालांकि प्रधानमंत्री नेहरु ने इस मामले को दबे पांव निपटाने की बेहद कोशिश की लेकिन फिरोज़ गांधी ने इस मुद्दे को ज़ोरशोर से सदन मेंल उठाया और जिसके चलते सरकार को फजीहत का सामना करना पड़ा था।

यह फिरोज़ गांधी ही थे जिन्होंने 1956 में एक भ्रष्टाचार विरोधी मामले में देश के एक अमीर कारोबारी राम कृष्ण डालमिया की अपनी कंपनी एलआईसी द्वारा जालसाजी करने की कलई खोल दी थी। इसके कारण सरकार को बकायदा सदन में बिल पारित कर भारतीय जीवन बीमा कंपनी को सरकारी कंपनी बनाना पड़ा था।

एलआईसी के अंदर 245 कंपनियों को राष्ट्रीय दर्जा मिला था। इसी के चलते एलआईसी को 'सरकार का बच्चा' कहा जाता था। इसीलिए फिरोज़ गांधी ने मामले की गंभीरता को समझते हुए मुद्रा घोटाले का मुद्दा सीधे संसद में उठाया था और सरकार को पसोपेश में ला दिया था।

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फिरोज गांधी ने संसद में कहा था कि,'संसद सतर्कता बरतें और भारतीय जीवन बीमा निगम जिसे सरकार ने सबसे बड़ी और सबसे शक्तिशाली वित्तीय संस्था बनाया गया है उस पर नियंत्रण रखना चाहिए, जिसके द्वारा जनता के धन का दुरुपयोग हुआ, हम इसकी आज जांच करेंगे।' - सन् 1957 में फिरोज़ गांधी का सदन में भाषण।

उन्होंने सरकार से सवाल किया कि, 'क्या भारतीय जीवन बीमा निगम ने 50 लाख से ज़्यादा जीवन बीमा के प्रीमियम की रकम, सट्टेबाज हरिदास मुंद्रा की कंपनियों में बाज़ार से ज़्यादा भाव पर शेयर्स खरीदने में खर्च की?' 

इस सवाल के बाद छुंछलाहट में तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णानामचारी को सदन में सफाई देते हुए कहना पड़ा था कि यह सच्चाई नहीं है। हालांकि बाद में उन्हें स्वीकारना पड़ा कि यह सच है और उसके बाद अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ा था।

इसके बाद मामले की जांच के लिए सरकार ने भारी दबाव में एक सदस्यीय जांच कमेटी बनाई और बॉम्बे हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज एम सी छागला को नियुक्त किया। जस्टिस छागला ने इस फैसले की सुनवाई ओपन कोर्ट में की जिसमें कोई भी व्यक्ति इसे सुन सकता था और मात्र 24 दिनों के अंदर इस मामले पर फैसला दे दिया गया।

जस्टिस छागला की रिपोर्ट में कोई ख़ास निष्कर्ष नहीं निकला लेकिन शक की सुई टीटी कृष्णानामचारी, ब्यूरोक्रेट एच एम पटेल और एलआईसी के तत्कालीन अध्यक्ष श्री कामत की ओर मुड़ गई।

खुद को सवालों के घेरे में खड़ा देख नैतिक आधार पर इन सभी को अपने पदों से त्याग पत्र देना पड़ा था। हरिदाम मुंद्रा को 22 साल की जेल हुई थी जो उन्होंने कोलकात्ता की अली पुर जेल में काटी।

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