जन्मदिन विशेष: 'गुलज़ार', ज़िंदगी के एहसास को नज़्मों में पिरोने वाला शख़्स
जो लेखन, निर्देशन, गीत, ग़ज़ल, नज़्म ओर संवाद लेखन जैसे कई कलाओं में गुलज़ार हो उसे गुलज़ार कहते हैं। रूमानी रोमान्स और रुहानी रोमान्स में फ़र्क़ बताने वाले को गुलज़ार कहते हैं।
नई दिल्ली:
ज़िंदगी के एहसास को नज़्मों में जो पिरोए उसे गुलज़ार कहते हैं। जिसकी ग़ज़ल पढ़ कर लगे कि ज़िंदगी झांक रही है तो उसे गुलज़ार कहते हैं। जो लेखन, निर्देशन, गीत, ग़ज़ल, नज़्म और संवाद लेखन जैसे कई कलाओं में गुलज़ार हो उसे गुलज़ार कहते हैं। रूमानी रोमान्स और रुहानी रोमान्स में फ़र्क़ बताने वाले को गुलज़ार कहते हैं।
आंखों पर काले फ्रेम का चश्मा और शरीर पर सफ़ेद कुर्ता पहने जब वह चलते हैं तो लगता है जैसे कोई मुक्कमल नज़्म चल रही हो। साधारण बात भी जब उनकी ज़ुबां से निकलती है तो लगता है उनकी ज़िदगी शायरी में डूबी है। वह ज़िदगी के किसी भी पहलू को लिखें उसमें से ख़ुशबू आती है।
वह गीत जिसमें बचपन की मिट्टी की सौंधी खुशबू आज भी आती है
लकड़ी की काठी, काठी पर घोड़ा, घोड़े की दुम पर मारा हथौड़ा, दौड़ा-दौड़ा घोड़ा दुम उठाकर दौड़' फिल्म मासूम का यह गाना गुलजार साहाब ने लिखा था। यह गाना आजतक लोगों के दिल मे बैठा है। इसके अलावा मशूहर कार्टून सीरीज 'द जंगल बुक' का टाइटल सांग 'जंगल जंगल बात चली है पता चला है' भी गुलजार के कलमों से ही लिखा गया है।
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ग़ालिब और अमीर खुसरो को अपनी लेखनी में उतारा
गुलज़ार साहाब ख़ुद को ग़ालिब का मुलाज़िम बताते हैं। वह अक्सर लोगों को बल्लीमारान की ‘गली क़ासिम जान’ में एक बार जाने की बात कहते हैं। उन्होंने कई बार कहा है कि वह ग़ालिब की पेंशन खा रहे हैं। उन्होंने ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ टीवी धारावाहिक भी बनाई है।
जिस तरह उनका रिश्ता ग़ालिब से है उसी तरह अमीर खुसरो से भी। खुसरो की ग़ज़ल का मतला 'जिहाले मिस्कीं मुकुन तगाफुल दुराए नैना बनाये बतियां' को आधार बना कर गुलामी फिल्म में 'जिहाले मिस्कीं मुकुन ब रंजिश बहाले हिज्र बेचारा दिल है' लिखा। ऐसे ही कई शायरों की विरासत को नए अंदाज में पेश किया है ग़ालिब साहब ने।
कहां से हुई फिल्मों में गीत लिखने की शुरुआत
1963 में आई फिल्म बन्दिनी का गाना 'मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे श्याम रंग दई दे' से अपने गीत के सफर की शुरुआत करने के बाद गुलज़ार ने कई बेहतरीन नगमें दिए। ‘कोई होता जिसको अपना’ ‘मुसाफिर हूं यारों’ ‘इस मोड़ से जाते है' हमने देखी है इन आंखों की महकती ख़ुशबू’ ‘नाम ग़ुम जायेगा’, ‘यारा सीली सीली विरह की रात का जलना' 'चप्पा चप्पा चरखा चले’ ‘एक सूरज निकला था’ ‘कजरारे कजरारे' जैसे गाने लोगों के दिल में बसे हैं।
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जिंदगी देखना हो गुलजार की निर्देशित फिल्में देखिए
1971 में गुलज़ार ने फिल्म 'मेरे अपने' से निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखा। इस फिल्म में गुलज़ार ने ज़माने की आबो-हवा के बीच रिश्तों के पतन को बड़े असरदार तरीके से पेश किया। पहली फिल्म से गुलज़ार ने निर्देशक के तौर पर असरदार उपस्थिति दर्ज कराई।
इसके बाद उन्होने परिचय, किताब, कोशिश, अंगूर ,मौसम ,नमकीन ,किनारा ,लेकिन ,माचिस और हु तू तू जैसी कई फिल्मों का निर्देशन किया। अपनी लगभग सभी फिल्मों में गुलज़ार रिश्तों की भूलभुलैया का ओर -छोर ढूंढते नजर आये जो शायद उनकी निजी जिंदगी के दुखों से निपटने की कोशिश रही होगी।
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कुछ तो ज़रूर है आपके शब्दों में कि हर वो शख्स जिसने भूले से भी पढ़ा है आपको उसे आपकी आदत लग गई। आपकी नज्में ऊंगली थामे जिंदगी के हर मोड़ पर मिल जाती हैं। कभी बचपन के भेश में, कभी यादों के देश में। आपकी रुहानी आवाज़ सुनकर नैना ठगने लगते हैं तो कभी जगते जादू फूंकती हैं कभी नींदे बंजर कर देती हैं।
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