दिवाली विशेष: शोरगर एक परम्परा, हुनुर जो 300 साल से आज भी जयपुर की है पहचान
कोरोनाकाल के बाद सरकार ने ग्रीन पटाखों की परमिशन दी है,मगर जयपुर में करीब 300 साल से ही इको फ्रेंडली पटाखे बनाये जा रहे हैं
highlights
- जयपुर में शोरगर का काम 300 साल पुराना है
- शोरगरों को राजा मानसिंह ने जयपुर के आमेर में बसा दिया
- आतिशबाजी में 60 प्रतिशत हर्बल का प्रयोग किया जाता है
जयपुर:
दीवाली हो या शादी पार्टी बारह महीने पटाखों का काम करने वाले 'शोरगर' दिन रात इस कार्य में लगे रहते है. कोरोनाकाल के बाद सरकार ने ग्रीन पटाखों की परमिशन दी है,मगर जयपुर में करीब 300 साल से ही इको फ्रेंडली पटाखे बनाये जा रहे हैं. राजा महाराज के समय से हजारों परिवार पटाखे व्यवसाय से जुड़े हैं, इनको 'शोरगर' नाम से जाना जाता है. जयपुर में शोरगर का काम 300 साल पुराना है. शोरा यानी सोडियम जो पटाखें बनाने में काम आता है, जिससे इनका नाम राजा महाराजाओं ने 'शोरगर' डाल दिया. वहीं अफगानिस्तान से अपना हुनुर लेकर आये शोरगरों को राजा मानसिंह ने जयपुर के आमेर में बसा दिया और रजवाड़ो के सरंक्षण में अपने इस हुनुर को बहुत ऊंचाई तक ले गए.
वहीं शुरुआत में 'शोरगर' राजा महाराजा के दौर में दीपावली पर आतिशबाज़ी बनाया करते थे, जो परंपरा आज भी चली आ रही है. जयपुर में करीब 1500 और राजस्थान में करीब 5 हजार परिवार 'शोरगर' से जुड़े हैं. दीवाली हिन्दुओ का त्योहार है जबकि मुस्लिम बिरादरी के शोरगर भाईचार का रंग आज भी भरते आ रहे हैं. वहीं शोरगारों का कहना है की उन्हें इस काम से बहुत सुकून मिलता है.
वही 'शोरगारो' ने कहा की पहले के मुकाबले अभी आतिशबाजी में 60 प्रतिशत हर्बल का प्रयोग किया जाता है और 40 प्रतिशत केमिकल का इस्तमाल होता है. जिससे प्रदूषण की मात्रा 65 प्रतिशत कम हो जाती है साथ ही प्रदूषण को कम करने के लिए आजकल पटाखों में चमकीली फरयिया, पन्नियां का इस्तेमाल ना करके सादा कागज का इस्तेमाल किया जाता है. जिससे प्रदूषण भी कम हो और महंगाई के दौर में कीमतों में भी कमी आये. वहीं महाराजाओं के समय शहर में अलग-अलग स्थानों पर चकरी में पटाखों को लगा कर आतिशबाजी की जाती थी. जिनकी कीमत 10 से लेकर 1000 रुपये तक के पटाखे मिल रहे हैं.
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