Mahatma Gandhi को मौत का पूर्वाभास हो गया था, 1948 से पहले भी हुए हत्या के प्रयास
मनुबेन ने उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन बापू को बताया कि काठियावाड़ के दो नेता उनसे मिलने के लिए उत्सुक हैं, तो 78 साल की उम्र में गांधी ने मनुबेन से कहा, 'उन्हें बताओ कि अगर मैं जीवित रह, तो वे प्रार्थना के बाद चलते-चलते मुझसे बात कर सकते हैं.'
highlights
- 30 जनवरी 1948 को काठियावाड़ के दो नेता गांधीजी से मिलने पहुंचे थे बिड़ला हाउस
- बापू ने मनुबेन से कहा था- उनसे कह दो अगर जीवित रहा तो चलते-चलते बात कर लूंगा
- पैर छूने के बहाने खाकी पोशाक पहने गोडसे ने बापू के शरीर में उतार दी थी तीन गोलियां
नई दिल्ली:
30 जनवरी 1948 का दिन महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) की भतीजी मनु गांधी के दिमाग में अमिट हो गया. प्यार भरे उपनाम मनुबेन से पुकारी जानी जाने वाली वह उन पहली चश्मदीदों में से थीं, जिन्होंने बापू की हत्या (Gandhi Assassination) होते देखी. मनुबेन गांधी के संस्मरण 'लास्ट ग्लिम्प्सेस ऑफ बापू' के अनुसार महात्मा गांधी को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था. मनुबेन ने उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन बापू को बताया कि काठियावाड़ के दो नेता उनसे मिलने के लिए उत्सुक हैं, तो 78 साल की उम्र में गांधी ने मनुबेन से कहा, 'उन्हें बताओ कि अगर मैं जीवित रह, तो वे प्रार्थना के बाद चलते-चलते मुझसे बात कर सकते हैं.' उस दिन बापू को बिड़ला हाउस (Birla House) के पीछे वाले लॉन में पहुंचने में पहले ही दस मिनट की देरी हो चुकी थी. वहां वे हर शाम अपनी सर्व धर्म विश्वास प्रार्थना सभा आयोजित करते थे. बापू सहारा लेने के तौर पर दाईं ओर मनुबेन और बाईं ओर गोद ली हुई बेटी आभा चटर्जी के साथ जा रहे थे. इतने में भीड़ को चीरता हुआ एक खाकी पोशाक में नाथूराम गोड (Nathuram Godse) से सामने आया और गांधी के पैर छूने का प्रयास करता प्रतीत हुआ. यह अलग बात है उसने पैर छूने के बजाय प्वाइंट ब्लैंक रेंज से बापू के शरीर में तीन गोलियां उतार दीं. अधिकांश भारतीय बापू की हत्या की कहानी से परिचित हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि बापू पहले भी हत्या के पांच प्रयासों से सफलतापूर्वक बच निकले थे? 2015 में प्रकाशित तीस्ता सीतलवाड़ (Teesta Sitalvad) द्वारा संकलित और संपादित पुस्तक 'बियॉन्ड डाउट-ए डोजियर ऑन गांधीज असैसिनेशन' महात्मा गांधी की हत्या से संबंधित अभिलेखीय दस्तावेजों का संग्रह है
पहला हमला 1934 पुणे में
पुणे में आयोजित एक समारोह में महात्मा गांधी को जाना था. उन्हें लेने के लिए दो गाड़ियां आईं, जो लगभग एक जैसी दिखती थीं. एक गाड़ी में आयोजक थे और दूसरे में कस्तूरबा और महात्मा गांधी यात्रा करने वाले थे. जो आयोजक उन्हें लेने आए थे, उनकी कार आगे निकल गई. बीच में रेलवे फाटक पड़ता था. महात्मा गांधी की कार वहां रुक गई. तभी एक धमाका हुआ और जो कार आगे निकल गई थी, उसके परखच्चे उड़ गए. इस हमले में निगम के मुख्य अधिकारी, दो पुलिसकर्मियों और सात अन्य घायल हुए. बापू के सचिव प्यारेलाल ने अपनी पुस्तक 'महात्मा गांधी: द लास्ट फेज' में लिखा है कि यह बम धमाका गांधी विरोधी हिंदू चरमपंथियों का काम था.
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पंचगनी में हमला
दस साल बाद जुलाई 1944 में बापू की हत्या दूसरा प्रयास हुआ. बापू को आगा खान पैलेस से नजरबंदी से रिहाई के बाद पता चला कि उन्हें मलेरिया हो गया है. डॉक्टर के आराम करने के निर्देश पर कुछ शांत समय बिताने के लिए वह पुणे के पास एक पहाड़ी रिसॉर्ट पंचगनी गए. वहां एक दिन बस में भरकर आए कुछ लोग उनके खिलाफ प्रदर्शन करने लगे. गांधीजी ने कोशिश की कि उनसे बात की जाए, उनको समझाया जाए, उनकी नाराज़गी समझी जाए कि वो क्यों गुस्सा हैं? यह अलग बात है कि उनमें से कोई बात करने को राजी नहीं था. शाम को प्रार्थना सभा के दौरान एक आदमी छुरा लेकर दौड़ पड़ा, जिसे मणिशंकर पुरोहित और भिल्लारे गुरुजी ने पकड़ लिया.
मुंबई में फिर से हमला
सीतलवाड़ लिखती हैं कि अतिवादी नाथूराम गोडसे और एलजी थत्ते ने बापू को जिन्ना से मिलने से रोकने की धमकी दी थी. जब गांधी ने सेवाग्राम से बंबई की यात्रा शुरू करनी चाही, तो नाथूराम गोडसे ने अपने समर्थकों के साथ आश्रम में भीड़ लगा दी. मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के कुछ लोग इससे नाराज़ थे कि गांधी और जिन्ना की मुलाकात का कोई मतलब नहीं है और ये मुलाक़ात नहीं होनी चाहिए. 1944 में गांधीजी पर हमले की दूसरी कोशिश हुई और वह भी नाकाम रही.
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चंपारण में दो बार कोशिश
1917 में महात्मा गांधी मोतिहारी में थे. मोतिहारी में सबसे बड़ी नील मिल के मैनेजर इरविन ने उन्हें बातचीत के लिए बुलाया. इरविन मोतिहारी की सभी नील फ़ैक्ट्रियों के मैनेजरों के नेता थे. इरविन ने सोचा कि जिस आदमी ने उनकी नाक में दम कर रखा है, अगर इस बातचीत के दौरान उन्हें खाने-पीने की किसी चीज़ में ज़हर दे दिया जाए. ये बात इरविन ने अपने खानसामे बत्तख मियां अंसारी को बताई. बत्तख मियां से कहा गया कि वो ट्रे लेकर गांधी के पास जाएंगे. जब वे गांधी जी के पास पहुंचे तो बत्तख मियां की हिम्मत नहीं हुई कि वे ट्रे गांधी के सामने रख देते. गांधी ने उन्हें सिर उठाकर देखा, तो बत्तख मियां रोने लगे और सारी बात खुल गई. ये किस्सा महात्मा गांधी की जीवनी में कहीं नहीं है.
अंग्रेज़ की नील कोठी पर
दूसरा एक और रोचक किस्सा है कि जब ये कोशिश नाकाम हो गई और गांधीजी बच गए तो एक दूसरे अंग्रेज़ मिल मालिक को बहुत गुस्सा आया. उसने कहा कि गांधी अकेले मिल जाए तो मैं उन्हें गोली मार दूंगा. ये बात गांधी जी तक पहुंची. अगली सुबह. महात्मा उसी के इलाक़े में थे. गांधी सुबह-सुबह उठकर अपनी लाठी लिए हुए उस अंग्रेज़ की नील कोठी पर पहुंच गए. और उन्होंने वहां जो चौकीदार था, उससे कहा कि बता दो कि मैं आ गया हूं और अकेला हूं. कोठी का दरवाज़ा नहीं खुला और वो अंग्रेज़ बाहर नहीं आया.
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