कई संघर्षों से भरा हुआ है सम्मेद शिखर का इतिहास, मुगलों से जैनियों को सौंपे जाने की कहानी
झारखंड की राजधानी रांची से 160 किमी दूर गिरिडीह में स्थिति खूबसूरत पहाड़ी सम्मेद शिखर आज चर्चा में है. इसके कई नाम है. इसे हर समुदाय अपने नाम से पुकारता है. Many conflicts in the history of Sammed Shikhar the story of handing over from Mughals to Jai
नई दिल्ली:
Sammed Shikharji: जैन धर्म के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थस्थल सम्मेद शिखरजी को लेकर विवाद गहराता ही जा रहा है. जैन समाज ने सम्मेद शिखरजी और पारसनाथ पर्वत के 10 किमी के दायरे को पर्यटन गतिविधियों से मुक्त करने, जंगल में किसी तरह की कटाई को रोकने, और सम्मेद शिखरजी को तीर्थस्थल घोषित करने की मांग थी. जिसके तहत 10 किमी के दायरे में न तो मांस की बिक्री-सेवन किया जा सकता है और न ही शराब का. दरअसल, केंद्र सरकार ने साल 2019 में सम्मेद शिखरजी को इको सेंसेटिव जोन के तौर पर चिन्हित किया था. इसके बाद झारखंड सरकार ने इस इलाके को पर्यटन केंद्र के तौर पर विकसित करने का फैसला किया. लेकिन जैन धर्मावलंबियों का विरोध इसी बात से है. जैन धर्मावलंबियों का कहना है कि सरकार इस पवित्र क्षेत्र को पर्यटन स्थल नहीं, बल्कि तीर्थस्थल घोषित करे. इस मामले में जैन समुदाय ने देशव्यापी प्रदर्शन किये. जिसके बाद केंद्र सरकार ने उनकी बातें मान ली है.
इन मुद्दों पर जैन समुदाय और आदिवासी समुदाय में ठनी
केंद्र सरकार ने जैन धर्मावलंबियों की बातें मान ली है और झारखंड सरकार से कह भी दिया है कि पर्यटन स्थल बनाने वाले आदेश को बदला जाए. लेकिन अब पेंच फंस गया है. पेंच ये है कि सम्मेद शिखरजी सिर्फ जैन धर्मावलंबियों के लिए ही नहीं, बल्कि झारखंड के सबसे बड़े आदिवासी संथाली समुदाय के लिए भी पवित्र है. आदिवासी समुदाय की जीविका जंगल में चलने वाली गतिविधियों पर टिकी है. मांस का सेवन भी आम है. और शराब जैसी चीजों से आज के आधुनिक समय में कौन दूर है? शराब हटा भी दें तो मांस-लकड़ी का मुद्दा, साथ ही संथाली समुदाय का प्रमुख धार्मिक केंद्र होना, ये दो बातें जैन समुदाय के पक्ष में किए गए केंद्र सरकार के फैसले के बिल्कुल उलट हैं. अब आदिवासी समुदाय भी हुंकार भर रहा है कि वो भी अपनी ताकत दिखाएगा. समस्या ये है कि झारखंड की सत्ताधारी पार्टी आदिवासियों की बहुलता वाली पार्टी मानी जाती है. लेकिन केंद्र सरकार ने झारखंड सरकार से फैसला बदलने के लिए कह दिया है.
कभी निजी मिल्कियत में बदल गया था सम्मेद शिखरजी का मालिकाना हक
ये मामला अब भी ऊपर से जितना आसान दिख रहा है, दरअसल-वो मामला सदियों से उलझा ही रहा है. राजाओं के समय में कभी ये मुगलों के अधीन रहा, तो कभी अंग्रेजों के. हालांकि जैन धर्म के मानने वालों ने हर बार लड़ाई जीती. एक बार तो पूरे सम्मेद शिखरजी का मालिकाना हक बिल्कुल निजी मिल्कियत वाला भी बन गया था, जो कुछ साल पहले कोर्ट के फैसले के बाद बदला गया. चलिए, अब हम बताते हैं सम्मेद शिखरजी का वो इतिहास, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है.
क्यों महत्वपूर्ण हैं सम्मेद शिखरजी?
झारखंड की राजधानी रांची से कुछ दूरी पर गिरिडीह में स्थित इस खूबसूरत पहाड़ी को हर समुदाय अपने नाम से पुकारता है. जैन समुदाय के लिए ये सम्मेद शिखर है. वहीं आदिवासियों के लिए मरांगबुरू और सरकार इसे पारसनाथ हिल भी कहती है. इस शिखर का इतिहास पुराना है. इस दौरान कई बार इसका मलिकाना हक शिफ्ट होता रहा है. आइए जानते हैं शिखर पर्वत से जुड़ी कई ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में...
जैन धर्म में कुल 24 तीर्थकर हुए
जैन धर्म में कुल 24 तीर्थकर हुए हैं. 772 ईसा पूर्व में पाश्वर्नाथ आखिरी तीर्थकर थे. उन्होंने सम्मेद शिखर पर निर्वाण पाया. इस पहाड़ का नाम पारसनाथ पड़ा. सम्मेद शुरुआती उल्लेख दो हजार साल पहले जैन धर्म के छठे आगम ज्ञाताधर्मकथा में वर्णित है. इसके बाद नौवीं शताब्दी में सुरीश्रव्रजी महाराज सम्मेद शिखर पर पहुंचे. उन्होंने 20 तीर्थकरों की निर्वाण भूमि को चिह्नित कर स्तूप बनवाए. 13 वीं शताब्दी वाघेला राजवंश के मंत्री वास्तुपाल ने 20 तीर्थकरों की मूर्तियों वाले एक जैन मंदिर को बनवाया था.
अकबर ने जैनियों को सौंपा था सम्मेद शिखर
1592 ईस्वी में मुगल बादशाह अकबर ने सम्मेद शिखर जैनियों को सौंपने का निर्देश दिया. इस तरह से पवित्र स्थान पर शिकार पर रोक लगाई. 1698 ईस्वी में मुगल बादशाह औरंगजेब ने सम्मेद शिखर को टैक्स फ्री कर दिया. इसके बाद 1760 ईस्वीं में बंगाल के नवाब अहमद शाह बाहदुर ने शिखरजी पहड़ी की जमीन मुर्शिदाबाद के जगत सेठ को सौंप दी. जगत सेठ निर्वाण भूमि पर छोटे-छोटे श्राइन बनवाए. तलहटी में मंदिर बनवाए. 1790 ईस्वी में ब्रिटिश साम्राज्य ने पालगंज के राजा को सम्मेद शिखर की जमींदारी सौंप दी. 1867 में जैन समुदाय और पालगंज के राजा के बीच विवाद बढ़ गया.
इकरारनामे के बाद मामला सुलझा
मलिकाना हक को लेकर दोनों ने एक-दूसरे पर केस किया. इकरारनामे के बाद मामला सुलझा लिया गया. इस सुलह में पहाड़ी पर हक पालगंज के राजा को गया. वहीं जैनियों को पूजा करने और मंदिर बनाने का अधिकार दिया गया. इस बीच पालगंज के राजा ने सम्मेद शिखर की दो हजार एकड़ जमीन को एक इंग्लिश प्लांटर बोड्डम को दे दी. 1888 में यहां चमड़े की एक फैक्ट्री लगाई. जैन समुदाय ने इसका विरोध किया. जैन समुदाय इसके खिलाफ कोर्ट चला गया और बूचड़खाना बंद कर दिया गया.
जैनियों को मिला सम्मेद शिखर
पालगंज एस्टेट ने एक बार दोबारा शिखर को लीज पर देने का प्रस्ताव रखा. इसका जैन समुदाय ने विरोध किया. उनका कहना था कि इससे पवित्रता पर असर पड़ेगा.
बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने इसे लेकर मध्यस्थता की. सरकार का कहना था कि ये जगह पालगंज के राजा की है. अगर जैन समुदाय इसे लीज पर नहीं देने चाहता है तो उसे जमींदारों को मुआवजा भरा होगा. नौ मार्च 1918 को दो लाख 42 हजार रुपये एकमुश्त और 4 हजार रुपये प्रतिवर्ष मुआवजें पर पहाड़ी का अधिकार जैनियों ने खरीद लिया.
आजादी के बाद 25 सितंबर 1950 को बिहार में भूमि सुधार अधिनियम लाया गया. सरकार को राज्य की किसी भी संपत्ति पर अधिकार पाने की ताकत मिली. अब मलिकाना हक बिहार राज्य सरकार में आ गया. मगर इसके बाद भी सरकार और जैनियों कई समझौते हुए.
24 अगस्त 2004 हाईकोर्ट ने सुनाया निर्णय
24 अगस्त 2004 हाईकोर्ट ने निर्णय सुनाया कि इस पूरे शिखर पर राज्य सरकार का स्वामित्व होगा. पारसनाथ पहाड़ी पर किसी के निर्माण की अनुमति नहीं होगी. दिगंबरों को अनुमति के बाद ही किसी निर्माण को अधिकार मिलेगा. झारखंड सरकार को एक प्रबंधन समिति बनाने का आदेश दिया.
पर्यटन स्थल बनाना चाहती है सरकार
अगस्त 2019 में केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय ने सम्मेद शिखर और पारसनाथ पहाड़ी को इको सेंसिटिव जोन में रख दिया. झारखंड सरकार ने इसे पर्यटन स्थल घोषित कर डाला.
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