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युवा दिलों पर राज करने वाले महान संगीतकार एसडी बर्मन का जन्मदिन आज

बतौर संगीतकार एसडी बर्मन की सबसे ख़ास बात यह थी कि उनके संगीत पर उनकी बढ़ती उम्र का प्रभाव कभी नहीं पड़ा.

Updated on: 01 Oct 2018, 12:00 PM

नई दिल्ली:

संगीतकार सचिनदेव बर्मन यानी कि हमारे एसडी बर्मन अपने ख़ास म्यूज़िक स्टाइल के लिए जाने जाते रहे हैं. हालांकि उनके गाये गीतों में जो लोकगीत के अंदाज़ हैं वह आज के युवाओं को भी काफी आकर्षित करती है. फिल्म 'काबुलीवाला' का 'गंगा आए कहां से', फिल्म 'गाइड' का 'वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहां', 'सुजाता' फिल्म का 'सुन मेरा बंधू रे, सुन मेरे मितवा' फिल्म 'बंदिनी' से 'ओ मांझी मेरे साजन हैं उस पार मैं इस पार' और 'अराधना' फिल्म से 'काहे को रोये, सफल होगी तेरी अराधना' एसडी बर्मन द्वारा गाये कुछ ऐसे ही गीत हैं जो आपके रूह में उतर जाता है और आपको एक दूसरी दुनिया में ले जाता है.

बतौर संगीतकार एसडी बर्मन की सबसे ख़ास बात यह थी कि उनके संगीत पर उनकी बढ़ती उम्र का प्रभाव कभी नहीं पड़ा. एसडी बर्मन ने 31 अक्टूबर 1975 को फिल्म 'चुपके-चुपके' का मशहूर रोमांटिक गाना, 'अब के सजन सावन में' बनाया था. यह गाना एसडी बर्मन ने दुनिया को अलविदा कहने से कुछ समय पहले कंपोज किया था. इसी तरह 67 साल की उम्र में उन्होंने अभिमान का हिट गीत, 'मीत ना मिला रे मन का' बनाया था.

गीतकार एसडी बर्मन का जन्म एक अक्टूबर 1906 में त्रिपुरा के शाही परिवार में हुआ. उनके पिता जाने-माने सितारवादक और ध्रुपद गायक थे. बचपन के दिनों से ही सचिनदेव बर्मन का रुझान संगीत की ओर था और वे अपने पिता से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लिया करते थे. इसके साथ ही उन्होंने उस्ताद बादल खान और भीष्मदेव चट्टोपाध्याय से भी शास्त्रीय संगीत की तालीम ली.

अपने जीवन के शुरुआती दौर में एसडी बर्मन ने रेडियो से प्रसारित पूर्वोतर लोक-संगीत के कार्यक्रमों में काम किया. साल 1930 तक वे स्थापित लोकगायक के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे.

बतौर गायक उन्हें साल 1933 में प्रदर्शित फिल्म 'यहूदी की लड़की' में गाने का मौका मिला, लेकिन बाद में उस फिल्म से उनके गाए गीत को हटा दिया गया. उन्होंने 1935 में प्रदर्शित फिल्म 'सांझेर पिदम' में भी अपना स्वर दिया, लेकिन वे पार्श्वगायक के रूप में कुछ खास पहचान नहीं बना सके.

वर्ष 1944 में संगीतकार बनने का सपना लिए सचिनदेव बर्मन मुंबई आ गए, जहां सबसे पहले उन्हें 1946 में फिल्मिस्तान की फिल्म 'एट डेज' में बतौर संगीतकार काम करने का मौका मिला, लेकिन इस फिल्म के जरिए वे कुछ खास पहचान नहीं बना पाए.

इसके बाद 1947 में उनके संगीत से सजी फिल्म 'दो भाई' के पार्श्वगायिका गीता दत्त के गाए गीत 'मेरा सुंदर सपना बीत गया...' की कामयाबी के बाद वे कुछ हद तक बतौर संगीतकार अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए.

एसडी बर्मन ने अपने संगीत से हमेशा ही फिल्मों को एक नई ऊंचाई दी. सुजाता (1959) में एक अछूत कन्या के सवर्ण परिवार में आने के बाद उसकी जिंदगी के उतार चढ़ाव के लिए बर्मन दा के पास 'नन्ही कली सोने चली' या 'काली घटा छाये मोरा जिया तरसाए' जैसे गीत थे. उधर, कागज़ के फूल (1960) की कल्पना 'वक़्त ने किया क्या हंसी सितम' और 'देखी ज़माने की यारी' जैसे गीतों के बिना हो ही नहीं सकती. एसडी बर्मन के लिए 'डार्क म्यूजिक' पसंदीदा क्षेत्र नहीं था, इसलिए प्यासा और कागज़ के फूल में अपनी श्रेष्ठता साबित करने के बाद उन्होंने ऐसे संगीत पर दुबारा काम नहीं किया.

एक बार बर्मन दा के दिए एक इंटरव्यू से नाराज़ होकर लता मंगेशकर ने उनसे दूरियां बढ़ा लीं. ये वही लता थीं जिनके लिए बर्मन दा ने एक बार कहा था कि 'मुझे हारमोनियम और लता दो, मैं संगीत बना दूंगा'. लेकिन छह साल बाद जब ये दूरियां दूर हुईं और बंदिनी (1963) में यह जोड़ी दोबारा बनी तो फिर कमाल हो गया. 'मोरा गोरा अंग लै ले' और 'जोगी जब से तू आया मेरे द्वार' जैसे गीत हर जुबान पर छा गए. इसी फिल्म में बर्मन दा का खुद का गाया 'मोरे साजन हैं उस पार' भी था.

एसडी बर्मन को 2 बार फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार से नवाजा गया है. एसडी बर्मन को सबसे पहले 1954 में प्रदर्शित फिल्म 'टैक्सी ड्राइवर' के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया. इसके बाद वर्ष 1973 में प्रदर्शित फिल्म 'अभिमान' के लिए भी वे सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजे गए.

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फिल्म 'मिली' के संगीत 'बड़ी सूनी-सूनी है...' की रिकॉर्डिंग के दौरान एसडी बर्मन अचेतन अवस्था में चले गए. हिन्दी सिने जगत को अपने बेमिसाल संगीत से सराबोर करने वाले सचिन दा 31 अक्टूबर 1975 को इस दुनिया को अलविदा कह गए.