दावोस: वैश्विक आर्थिक सम्मेलन में भारत की भागीदारी अहम
दावोस सम्मेलन में दुनियाभर के सबसे संपन्न और शक्तिशाली संभ्रात लोग वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीति पर चर्चा के लिए एकत्रित होंगे।
नई दिल्ली:
भारत इस वर्ष दावोस में होने जा रहे वैश्विक आर्थिक सम्मेलन के लिए मंत्रियों, नीति निर्माताओं और व्यापारिक नेताओं के सबसे बड़े दल को भेजने की तैयारी कर रहा है।
इतना ही नहीं प्रधानमंत्री मुख्य कार्यक्रम में उद्घाटन सत्र को संबोधित भी करेंगे।
दावोस सम्मेलन में दुनियाभर के सबसे संपन्न और शक्तिशाली संभ्रात लोग वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीति पर चर्चा के लिए एकत्रित होंगे।
इस साल सम्मेलन का विषय है 'खंडित दुनिया में एक साझा भविष्य का निर्माण' जो उन व्यापक चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए एक समन्वित और एकीकृत काम की जरूरत पर बल देगा, जो आज दुनिया के सामने हैं।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के एकीकरण ने भारत को काफी हद तक खुद को एक उभरते हुए बाजार के रूप में स्थापित करने में मदद की है। बड़ी आर्थिक शक्तियां अब प्रमुख क्षेत्रों में भारत की मौजूदगी को पहचान रही हैं।
ऐसे में आज के समय में अस्थिर वैश्विक विकास को देखते हुए वैश्विक स्तर पर सम्मेलनों में हमारी भागीदारी के महत्व को समझना लाभप्रद साबित होगा।
20 वर्षो के बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री डब्ल्यूईएफ की वार्षिक बैठक में हिस्सा लेगा। इससे पहले 1997 में एच.डी. देवेगौड़ा इस सम्मेलन में शामिल हुए थे।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हालिया आर्थिक विकास की पृष्ठभूमि में और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और नोटबंदी के मद्देनजर इस वैश्विक मंच पर 2022 तक एक नए और परिवर्तित भारत के अपने सपने को उठा सकते हैं। साथ ही वह आर्थिक असंतुलनों, आतंकवाद और साइबर खतरों से जुड़े मुद्दों को भी उठा सकते हैं।
वह राष्ट्रीय और विदेश नीतियों पर भारत के रुख को प्रमुखता से पेश कर सकते हैं और उन पर इसकी प्रबल जिम्मेदारी है कि यह संदेश पहुंचे। उनके साथ सम्मेलन में शामिल होने जा रहे मंत्री, कारोबारी और नागरिक समाज के नेता भी कई सत्रों में पिछले साढ़े तीन वर्षो में हुए प्रयासों को विस्तार से पेश करेंगे।
यह आयोजन ऐसे समय में होने जा रहा है, जब आर्थिक विकास और सामाजिक उन्नति को लेकर भारतीयों में उम्मीदें हैं। डब्ल्यूईएफ जैसे मंचों पर शीर्ष वैश्विक नेताओं के साथ चर्चाएं काफी सीखने का मौका देंगी।
वैश्विक मंचों पर भारत अपना रुख पेश कर सकता है, नेतृत्व करने की मंशा जाहिर कर सकता है और विश्व समुदाय को व्यापार करने के लिए देश में सही माहौल होने का संदेश दे सकता है। साथ ही वैश्विक आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने के लिए एक संभावित साझेदार के रूप में उभर सकता है।
इसके मद्देनजर सरकार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 25 जनवरी से होने जा रहे दो दिवसीय भारत-आसियान सम्मेलन के लिए तैयारियां कर रही है। इस सम्मेलन में सभी 10 आसियान देश हिस्सा लेंगे। यह हमारे देश के लिए इन देशों के समक्ष खुद को सामरिक क्षेत्रीय संपर्क के क्षेत्रों में एक ताकतवर साथी के रूप में प्रस्तुत करने का एक मौका साबित हो सकता है।
हालांकि, भारत हांगकांग में इस सप्ताह हुए आसियान आर्थिक सम्मेलन (एएफएफ) के 11वें संस्करण में शामिल नहीं हुआ। एएफएफ में विश्व के सबसे शीर्ष कारोबारी शामिल होते हैं, जो एशियाई बाजारों में विकास पर चर्चा करते हैं। इसमें संदेह नहीं है कि इस साल एफएफएफ में शामिल न होना अपनी वैश्विक मौजूदगी दर्शाने में भारत का कमजोर रुख दर्शाता है।
अगर हम ऐसे वैश्विक और आर्थिक मंचों से पड़ने वाले प्रभाव पर गौर करें, तो समझा जा सकता है कि ये चर्चाएं और वार्ताएं विचारों और अनुभवों के उच्च एकीकरण की ओर कदम बढ़ाने में मददगार साबित होती हैं।
एक आम भारतीय सोच सकता है और कह सकता है, 'इस सब का क्या औचित्य है?'
हो सकता है कि उसने कभी दावोस जैसे किसी स्थान के बारे में न सुना हो और संभवत: वह सोच सकता है कि यह और कुछ नहीं विश्व के सबसे शक्तिशाली संभ्रांत लोगों द्वारा आयोजित कोई योजना है। फिर भी जहां पलक झपकते ही वैश्विक तनाव पैदा हो उठते हैं, वहां ऐसे तटस्थ मंच होना सुखद है, जहां चर्चाएं अरुचिकर नहीं होंगी।
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