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Karnataka Elections 2023: बीजेपी 38 साल पुरानी 'पनौती' खत्म करने के फेर में, कांग्रेस रोकने पर अमादा

2008 और 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनावों में दो बार भारतीय जनता पार्टी ने 100 सीटों का आंकड़ा पार किया. फिर भी केसरिया पार्टी बहुमत हासिल करने से मामूली रूप से पीछे रह गई, जिसकी उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी. इस बार विधानसभा चुनाव में मोदी-शाह गठबंधन इसे

Updated on: 01 Apr 2023, 01:53 PM

highlights

  • पीएम नरेंद्र मोदी ने खुद पिछले दो महीनों में कर्नाटक की सात यात्राएं की हैं
  • संदेश स्पष्ट है कर्नाटक में भाजपा को फिर चुनें और 'डबल इंजन' का लाभ लें
  • बीजेपी के लिए बड़ी चुनाती पुराना मैसूर और बेंगलुरु शहर, जहां हैं 89 सीटें

नई दिल्ली:

भारत के केंद्रीय निर्वाचन आयोग (ECI) ने कर्नाटक में विधानसभा चुनाव (Karnataka Elections 2023) के लिए बिगुल फूंकते हुए मतदान के लिए 10 मई और मतगणना के लिए 13 मई की तारीख तय कर दी है. इसके साथ ही आम लोगों में यह उत्सुकता चरम पर पहुंच गई है कि विधानसभा (Karnataka Assembly) में सत्ता की बागडोर किस पार्टी के हाथ में होगी? आमतौर पर कई राज्यों के चुनाव एक साथ होते हैं. इस लिहाज से किसी अन्य राज्य का चुनाव कर्नाटक के साथ नहीं हो रहा है. इस कारण कर्नाटक विधानसभा चुनाव (Karnataka Assembly Elections 2023) ने 'विशिष्टता' प्राप्त कर ली है और मीडिया का अधिक ध्यान इस पर केंद्रित हो चुका है. कई दिलचस्प पहलुओं के बीच इस पर भी कयास लग रहे हैं कि क्या यह चुनाव तय करेगा भारतीय जनता पार्टी (BJP) बहुमत से सत्ता में नहीं आने की 38 साल पुरानी 'पनौती' खत्म कर सकेगी या वह कांग्रेस (Congress) पार्टी के लिए सत्ता का रास्ता बनाएगी.

रामकृष्ण हेगड़े का रिकॉर्ड
1985 की बात है रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार ने 1983 से 1985 तक अल्पमत में रहने के बावजूद लगातार दूसरी जीत हासिल की. ​​हेगड़े ने कर्नाटक में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व किया था. सरकार में रहते हुए इसके बावजूद 1984 के लोकसभा चुनावों में पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद हेगड़े ने विधानसभा को भंग करने का विकल्प चुना. लोकसभा चुनाव की हार के ठीक तीन महीने बाद हेगड़े का यह फैसला मास्टरस्ट्रोक साबित हुआ. कर्नाटक के लोगों ने हेगड़े और उनकी टीम को विधानसभा में दो-तिहाई बहुमत से अधिक 139 सीटों का भारी जनादेश दिया. इससे पहले बहुमत से 18 विधायकों की कम संख्या के साथ सिर्फ 95 सीटों से  हेगड़े ने भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियों के 'बाहरी' समर्थन के साथ सरकार बनाई थी. 

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सत्ता में आते ही कलह 'जनता परिवार' को ले डूबी
हालांकि सत्ता में आने के कुछ समय बाद ही 'जनता परिवार' कलह में डूब गया और तीन भागों में विभाजित हो गया. नतीजतन लोगों ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया. 1989 में कांग्रेस के दिग्गज नेता वीरेंद्र पाटिल ने अपनी पार्टी को भारी जीत दिलाई. हालांकि मुख्यमंत्री के रूप में 11 महीने के कार्यकाल में पाटिल को हृदयाघात के कारण एस बंगरप्पा के लिए रास्ता बनाना पड़ा. बंगरप्पा को कांग्रेस पार्टी में कोई लोकप्रिय समर्थन प्राप्त नहीं था. प्रदेश कांग्रेस के अन्य दिग्गजों की निहित महत्वाकांक्षाओं की वजह से असंतोष बढ़ता गया और अंततः बंगारप्पा के साथ-साथ उनके उत्तराधिकारी वीरप्पा मोइली को निगल गया. 1989 के बाद से हुए सात चुनावों में सभी रंगों के राजनेताओं के 'सत्ता के खेल' से निराश होकर कर्नाटक के लोगों ने स्वेच्छा से मुख्यमंत्री बदले हैं. हालांकि बीएस येदियुरप्पा जैसे कुछ लोग 'रूले' के माध्यम से लौटने में सफल रहे हैं. अब सवाल यह है कि क्या बसवराज बोम्मई, जिनका तीन साल से कम का कार्यकाल रहा है, भाजपा को सत्ता में वापस ला सकते हैं.

मोदी-शाह के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई है यह चुनाव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह किसी भी तरह कर्नाटक की इस 'परंपरा' को पलटने के लिए ढेरों ऊर्जा, समय और केंद्र सरकार के संसाधनों का निवेश कर रहे हैं. पीएम मोदी ने खुद पिछले दो महीनों में कर्नाटक की सात यात्राएं की हैं. इस दौरान बेंगलुरु-मैसूर एक्सप्रेसवे, धारवाड़ में आईआईटी परिसर, शिवमोग्गा में एक ग्रीनफील्ड हवाई अड्डे और हुबली में दुनिया के सबसे लंबे रेलवे प्लेटफॉर्म सरीखी मेगा परियोजनाओं का उद्घाटन किया. कर्नाटक के मतदाताओं के लिए उनका संदेश बेहद स्पष्ट है कि कर्नाटक में भाजपा को फिर से चुनें और 'डबल इंजन' सरकार के लाभों का आनंद लें. गौरतलब है कि 2008 और 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनावों में दो बार भारतीय जनता पार्टी ने 100 सीटों का आंकड़ा पार किया. फिर भी केसरिया पार्टी बहुमत हासिल करने से मामूली रूप से पीछे रह गई, जिसकी उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी. इस बार विधानसभा चुनाव में मोदी-शाह गठबंधन इसे बदलने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं. चुनावी समर का अग्रिम मोर्चे से नेतृत्व करते हुए वे जातिगत समीकरणों पर बारीकी से ध्यान दे रहे हैं. कर्नाटक में जातियां क्षेत्रीय संतुलन समेत और उम्मीदवारों के चयन में एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं.

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बीजेपी और पुराने मैसूर समेत बेगलुरु शहर के समीकरण
भाजपा ने कित्तूर कर्नाटक (पुराना मुंबई क्षेत्र), कल्याण कर्नाटक (पुराना हैदराबाद क्षेत्र), मध्य कर्नाटक और तटीय क्षेत्र में लगातार अच्छा प्रदर्शन किया है. फिर भी वह पुराने मैसूर क्षेत्र और बेंगलुरु शहर में काफी पीछे रही, जहां कुल मिलाकर 89 विधानसभा सीटें हैं. वास्तव में पुराना मैसूर इस बार विधानसभा चुनावों में महत्वपूर्ण रहने वाला है. कांग्रेस और बीजेपी दोनों इस वोक्कालिगा गढ़ में जनता दल (सेक्युलर) का वर्चस्व खत्म कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की कोशिश कर रहे हैं. 2018 के चुनावों में जेडी (एस) ने ओल्ड मैसूर से 37 में से 30 सीटें हासिल की थीं, जिससे एचडी कुमारस्वामी को 14 महीने के लिए मुख्यमंत्री बनने का दूसरा मौका मिला था. जद (एस) की एक बार फिर से 'किंग-मेकर' बनने की उम्मीद इस क्षेत्र में उसके प्रदर्शन पर बहुत अधिक निर्भर करती है. यही वजह है कि परिवार के मुखिया 91 साल के एचडी देवेगौड़ा ने हाल ही में मैसूर में एक विशाल रैली में व्हील चेयर पर बैठ कर परेड निकाली थी. वास्तव में उनका मकसद इस तरह लोगों से सहानुभूति और समर्थन पाना ही रहा.

बीजेपी का 'आरक्षण' दांव
बीजेपी ने अपनी ओर से विभिन्न समुदायों को लुभाने के लिए इस विधानसभा चुनाव में 'आरक्षण कार्ड' भी चला है. चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तारीखों की घोषणा के ठीक चार दिन पहले बोम्मई सरकार एक संशोधित आरक्षण फॉर्मूला लेकर आई. इसके तहत राज्य मंत्रिमंडल ने ओबीसी श्रेणी के तहत मुसलमानों को दिए गए 4 फीसदी आरक्षण को हटाने और इसे लिंगायतों और वोक्कालिगाओं के बीच समान रूप से वितरित करने का निर्णय लिया. सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) आरक्षण में मुसलमानों को समायोजित करने का वादा किया है. इसके अतिरिक्त बोम्मई सरकार ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को दिए गए आरक्षण को भी बढ़ाया. इन समुदायों को भाजपा के नए 'वोट बैंक' के रूप में देखा जाता है, जो कांग्रेस के प्रति अपनी पारंपरिक वफादारी से विमुख हो रहा है.

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केंद्र की जनकल्याणकारी योजनाओं से भी उम्मीदें बढ़ीं बीजेपी की
कुछ कांग्रेसी नेताओं को आशंका है कि भाजपा आरक्षण नीति में जल्दबाजी में बदलाव के साथ अनुचित लाभ उठाने की कोशिश कर रही है. चूंकि केंद्र सरकार ने अभी तक प्रस्तावों को अपनी मंजूरी नहीं दी है. ऐसे में मतदाताओं पर इसका प्रभाव न्यूनतम पड़ सकता है. भाजपा इन चुनावों में एक और 'एक्स' फैक्टर पर भरोसा कर रही है और ये हैं प्रधानमंत्री के तीन प्रमुख जनसरोकारों वाले कार्यक्रमों का प्रभाव. राज्य सरकार के अनुसार 4 करोड़ से अधिक लोग प्रधानमंत्री जन सुरक्षा योजना (6,000 रुपये सीधे लाभार्थियों के बैंक खाते में स्थानांतरित किए जाते हैं 1.4 करोड़ लोगों तक पहुंच चुके हैं), आयुष्मान भारत योजना के तहत सभी बीपीएल परिवारों को स्वास्थ्य कार्ड वितरित किए गए हैं और जन आवास योजना के तहत 10 लाख रुपये 30 लाख हितग्राहियों को आवास निर्माण के लिए ऋण दिया गया है का असर चुनाव में मतगणना पर दिखेगा. बीजेपी उम्मीद कर रही है कि केंद्र की इन कल्याणकारी योजनाओं ने जाति या धर्म का भेद खत्म कर बड़ी संख्या में गरीब परिवारों को पार्टी के उत्साही समर्थकों में बदल दिया है.

बोम्मई सरकार से जुड़े नकारात्मक पहलू
बीजेपी के लिए नकारात्मक पक्षों की बात करें तो बोम्मई सरकार पर सरकारी अनुबंधों से 40 फीसदी कमीशन के आरोप, महामारी के दौरान बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और राजधानी शहर बेंगलुरु के चरमराते बुनियादी ढांचे के साथ छवि खराब हुई है. मतप्रतिशत की चुनावी गणना पर बात करें तो कांग्रेस को अतिरिक्त सीटें हासिल करने के लिए अधिक प्रतिशत वोटों के साथ भाजपा को हराना होगा, क्योंकि उसके मतदाता भाजपा की तुलना में राज्य में अधिक व्यापक रूप से फैले हुए हैं. उदाहरण के लिए 2018 के चुनावों में कांग्रेस ने 38 फीसदी वोटों के साथ 80 सीटें हासिल कीं, जबकि बीजेपी की सीटों का आंकड़ा 36.2 प्रतिशत वोटों के साथ 104 तक पहुंच गया. ऐसा लगता है कि बीजेपी के पास 2023 के विधानसभा चुनावों को जीतने के लिए भारी बाधाओं से पार पाना है, जबकि कांग्रेस को केवल सही पक्ष में खड़ा रहने की जरूरत है.