'शायरी रह गई और शेर चला गया': जानिए कौन थे राहत इंदौरी
राहत साहब के बचपन का नाम कामिल था बाद में इनका नाम बदलकर राहत उल्लाह कर दिया गया. राहत साहब का बचपन बहुत ही गरीबी और मुफलिसी में बीता. इनके पिता ने इंदौर में आने के बाद ऑटो चलाया और मिल में भी काम किया.
नई दिल्ली:
देश के मशहूर शायर राहत इंदौरी (Rahat Indori) का मंगलवार को हॉर्ट अटैक के चलते निधन हो गया है. इसके पहले सोमवार की देर रात उनकी तबीयत खराब होने की वजह से उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया था, जहां पर 70 वर्षीय इंदौरी को कोरोना वायरस (Corona Virus) से संक्रमित होने की पुष्टि हुई. मध्य प्रदेश के राहत साहब दुनिया को तो अलविदा कह गए लेकिन पीछे अदब -ओ- शायरी की ऐसी विरासत छोड़ गए जो नई पीढ़ियों के लिए बहुत ही मूल्यवान साबित होंगी. आइए आपको राहत इंदौरी साहब के विषय में कुछ खास बातें बताते हैं.
राहत इंदौरी साहब का जन्म 1 जनवरी 1950 को रविवार के दिन हुआ था. इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक ये 1369 हिजरी थी और तारीक 12 रबी उल अव्वल थी. इसी दिन रिफअत उल्लाह साहब के घर राहत साहब की पैदाइश हुई. उनके पिता रिफअत उल्लाह सन 1942 में सोनकछ देवास जिले से इंदौर आए थे, तब शायद ही उन्होंने कभी ये सोचा हो कि उनका बेटा आने वाले समय में एक दिन अपने शहर को एक नई पहचान देगा. राहत साहब के बचपन का नाम कामिल था बाद में इनका नाम बदलकर राहत उल्लाह कर दिया गया. राहत साहब का बचपन बहुत ही गरीबी और मुफलिसी में बीता. इनके पिता ने इंदौर में आने के बाद ऑटो चलाया और मिल में भी काम किया. ये दूसरे विश्वयुद्ध (1939-1945) का दौर चल रहा था जब देश में आर्थिक मंदी छाई हुई थी.
पिता को गंवानी पड़ी नौकरी और छोड़ना पड़ा था घर
साल 1939 से 1945 तक चलने वाले दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पूरे यूरोप की हालात खराब थी. चूंकि उस समय भारत की कई मिलों के उत्पादों का निर्माण यूरोप में होता था इसी वजह से दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भारत भी प्रभावित था दिनों भारत के कई मिलों के उत्पादों का निर्यात युरोप से होता था. दूर देशों में हो रहे युद्ध के कारण भारत पर भी असर पड़ा. मिलें बंद हो गईं और मजदूरों को छंटनी का शिकार होना पड़ा इसी में उनके पिता को भी नौकरी से हाथ धोना पड़ा. परिवार की हालत बद से बदतर होने लगी घर भी छोड़ना पड़ा.
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पढ़ने लिखने के शौकीन थे राहत साहब
राहत इंदौरी साहब को बचपन से ही पढ़ने लिखने का शौक था पहला मुशायरा देवास में पढ़ा था. हाल में डॉ दीपक रुहानी ने राहत साहब पर एक किताब 'मुझे सुनाते रहे लोग वाकया मेरा' में उनके एक दिलचस्प किस्से का जिक्र किया है. बात तब की है जब राहत साहब नौंवी क्लास में थे तब उनके स्कूल नूतन हायर सेकेंड्री स्कूल एक मुशायरा होना था. राहत साहब की ड्यूटी शायरों की खिदमत करने की लगी. जांनिसार अख्तर वहां आए थे. राहत साहब उनसे ऑटोग्राफ लेने पहुंचे और कहा- मैं भी शेर पढ़ना चाहता हूं, इसके लिए क्या करना होगा. इसके बाद जांनिसार अख्तर ने राहत साहब को ऑटोग्राफ देते हुए अपने शेर का पहला मिसरा लिखा- 'हमसे भागा न करो दूर गज़ालों की तरह', राहत साहब के मुंह से दूसरा मिसरा बेसाख्ता निकला- 'हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह..'
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जनता के खयालों को अपनी शायरी से बयां करते थे
राहत इंदौरी जनता के खयालातों को अपनी शायरी के माध्यम से बयां किया करते थे इस पर जुबान का लहजा ऐसा होता था कि क्या लखनऊ और क्या इंदौर क्या दिल्ली और क्या लाहौर. हर जगह के लोगों की बात उनकी शायरी में होती है. इसका एक उदाहरण तो बहुत पहले ही मिल गया था. साल 1986 में राहत साहब कराची में एक शेर पढ़ते हैं और लगातार 5 मिनट तक तालियों की गूंज हाल में सुनाई देती है और फिर बाद में दिल्ली में भी वही शेर पढ़ते हैं और ठीक वैसा ही दृश्य यहां भी होता है.
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