समान नागरिक संहिता बन चुकी है देश की जरूरत, विचार करे केंद्र
एक मामले की सुनवाई करते हुए इलाहबाद हाई कोर्ट ने कहा कि यूनिफॉर्म सिविल कोर्ड देश की जरूरत है और इसे अनिवार्य रूप से लाया जाना चाहिए.
highlights
- इलाहबाद हाई कोर्ट की टिप्पणी से बहस में आया नया मोड़
- अल्पसंख्यकों के भय से इसे स्वैच्छिक नहीं बनाया जा सकता
- हालात ऐसे बन गए हैं कि अब संसद को हस्तक्षेप करना चाहिए
इलाहाबाद:
समान नागरिक संहिता को लेकर चल रहे विचार-विमर्श को अब इलाहबाद हाई कोर्ट ने भी नया मोड़ दे दिया है. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार को समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने को लेकर विचार करने को कहा है. उच्च न्यायालय के मुताबिक समान नागरिक संहिता अब देश की जरूरत बन गई है. गौरतलब है कि संविधान की धारा 44 में कहा गया है कि भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान कानून होगा, चाहे वो किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो. समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक और जमीन-जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होने की बात कही गई है.
इलाहबाद ने समान नागरिक संहिता को बताया जरूरत
एक मामले की सुनवाई करते हुए इलाहबाद हाई कोर्ट ने कहा कि यूनिफॉर्म सिविल कोर्ड देश की जरूरत है और इसे अनिवार्य रूप से लाया जाना चाहिए. कोर्ट ने आगे कहा, ‘इसे सिर्फ स्वैच्छिक नहीं बनाया जा सकता, अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा व्यक्त की गई आशंका और भय के मद्देनजर जैसा कि 75 साल पहले डॉक्टर बीआर अंबेडकर ने कहा था.’ प्राप्त जानकारी के मुताबिक हाईकोर्ट में अलग-अलग धर्मों के दंपति ने मैरेज रजिस्ट्रेशन में सुरक्षा को लेकर याचिका दायर की थी. इसी मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति सुनीत कुमार ने कहा कि ये समय की आवश्यकता है कि संसद एक ‘एकल परिवार कोड’ के साथ आए. अंतरधार्मिक जोड़ों को ‘अपराधियों के रूप में शिकार होने से बचाएं.’ अदालत ने आगे कहा, ‘हालात ऐसे बन गए हैं कि अब संसद को हस्तक्षेप करना चाहिए और जांच करनी चाहिए कि क्या देश में विवाह और पंजीकरण को लेकर अलग-अलग कानून होने चाहिए. या फिर एक’.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी की थी वकालत
हालांकि राज्य सरकार की ओर से पेश हुए वकील ने कहा कि याचिकाकर्ताओं के विवाह को जिला प्राधिकरण द्वारा जांच के बिना पंजीकृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि उन्हें इस उद्देश्य के लिए अपने साथी के धर्म में परिवर्तित होने से पहले जिला मजिस्ट्रेट से अनिवार्य मंजूरी नहीं मिली थी. हालांकि याचिकाकर्ताओं के वकील ने जोर देकर कहा कि नागरिकों को अपने साथी और धर्म को चुनने का अधिकार है और धर्म परिवर्तन अपनी इच्छा से हुआ. गौरतलब है कि इस साल जुलाई में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी समान नागरिक संहिता पर टिप्पणी की थी और कहा था कि सरकार को समान क़ानून के दिशा में सोचना चाहिए.
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