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भारतीय थल सेना का 'अमर' सैनिक शहीद होने के बाद भी ड्यूटी पर

1962 के चीन-भारत युद्ध में शहीद हुए राइफलमैन जसवंत सिंह रावत का आज सुबह तवांग के जसवंत गढ़ युद्ध स्मारक पर पुष्पांजलि समारोह आयोजित किया गया.

Updated on: 21 Oct 2021, 06:18 PM

highlights

  • चीनी सैनिकों ने 17 नवंबर, 1962 को चारों तरफ से जसवंत सिंह को घेरकर हमला किया
  • जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त, 1941 को उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में हुआ था
  • जसवंत सिंह रावत ने खुद को गोली नहीं मारी थी बल्कि चीनी सैनिकों ने उनको फांसी दी थी

नई दिल्ली:

भारतीय सेना का 'अमर' सैनिक जसवंत सिंह रावत 1962 में शहीद होने के बाद भी आज तक ड्यूटी पर हैं. शहीद होने के वक्त वह भारतीय थल सेना में राइफलमैन थे लेकिन अब वह प्रमोशन पाते-पाते मेजर जनरल के पद पर पहुंच गए हैं. शहीद होने के बाद भी भारतीय सेना में उनका प्रमोशन होता है और घर जाने के लिए छुट्टी मिलती है. उनकी ओर से उनके घर के लोग छुट्टी का आवेदन देते हैं और छुट्टी मिलने पर सेना के जवान पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनके चित्र को उनके पैतृक गांव ले जाते हैं. छुट्टी समाप्त होने पर उनके चित्र को वापस जसवंत गढ़ यानि अरुणाचल प्रदेश के तवांग ले जाया जाता है.

जिस चौकी पर जसवंत सिंह ने आखिरी लड़ाई लड़ी थी उसका नाम अब जसवंतगढ़ रख दिया गया है और वहां उनकी याद में एक मंदिर बनाया गया है. मंदिर में उनसे जुड़ीं चीजों को आज भी सुरक्षित रखा गया है. पांच सैनिकों को उनके कमरे की देखरेख के लिए तैनात किया गया है.सेना के जवानों का मानना है कि अब भी जसवंत सिंह की आत्मा चौकी की रक्षा करती है. उन लोगों का कहना है कि वह भारतीय सैनिकों का भी मार्गदर्शन करते हैं. अगर कोई सैनिक ड्यूटी के दौरान सो जाता है तो वह उनको जगा देते हैं. उनके नाम के आगे शहीद नहीं लगाया जाता है और यह माना जाता है कि वह ड्यूटी पर हैं.

1962 के चीन-भारत युद्ध में शहीद हुए राइफलमैन जसवंत सिंह रावत का आज सुबह तवांग के जसवंत गढ़ युद्ध स्मारक पर पुष्पांजलि समारोह आयोजित किया गया. राइफलमैन रावत को 1962 के युद्ध के दौरान उनकी वीरता के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था.

भारतीय सेना के 'अमर' सैनिक जसवंत सिंह रावत अब इस दुनिया में नहीं है, फिर भी वह अरुणाचल प्रदेश में भारत-चीन सीमा पर ड्यूटी निभा रहे है. सेना के नियम के अनुसार उनको सुबह में साढ़े चार बजे चाय, नौ बजे नाश्ता और शाम में खाना भी दिया जाता है. सेना के जवानों और अधिकारियों को मिलने वाली हर सुविधा उन्हें दी जा रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि जसवंत सिंह रावत ने ऐसा क्या किया था कि भारतीय सेना आज तक उन्हें कृतज्ञता ज्ञापित कर रही है. किसी के मरने के साल छह महीने बाद परिवार के लोग भी उसे भूल जाते हैं लेकिन भारतीय सेना जसवंत सिंह रावत को इतना सम्मान क्यों देती है? 

दरअसल जसवंत सिंह रावत भारतीय सेना की वीरता के अतीत, वर्तमान और भविष्य है. भारतीय सेना जसवंत सिंह रावत के माध्यम से अपने जवानों के सामने सेना और जवान, दोनों का एक आदर्श पेश करती है. आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान राइफलमैन जसवंत सिंह रावत ने अकेले 72 घंटे तक चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला किया था और 300 से ज्यादा चीनी सैनिकों को मार गिराया था. इसी वजह से उनको इतना सम्मान मिलता है.  

जसवंत सिंह रावत का पैतृक गांव और परिवार

जसवंत सिंह रावत उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के रहने वाले थे. उनका जन्म 19 अगस्त, 1941 को हुआ था. उनके पिता गुमन सिंह रावत थे. जिस समय शहीद हुए उस समय वह राइफलमैन के पद पर थे और गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन में सेवारत थे. उन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान अरुणाचल प्रदेश के तवांग के नूरारंग की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी.

1962 के भारत-चीन युद्ध में भूमिका 

1962 का भारत-चीन युद्ध अंतिम चरण में था.14,000 फीट की ऊंचाई पर करीब 1000 किलोमीटर क्षेत्र में फैली अरुणाचल प्रदेश स्थित भारत-चीन सीमा युद्ध का मैदान बनी थी.यह इलाका जमा देने वाली ठंड और दुर्गम पथरीले इलाके के लिए जाना जाता है. चीनी सैनिक अरुणाचल प्रदेश के तवांग से आगे तक पहुंच गए थे. चीनी सैनिकों से भारतीय थल सेना की गढ़वाल राइफल्स लोहा ले रही थी. गढ़वाल राइफल्स जसवंत सिंह की बटालियन थी. लड़ाई के बीच में ही संसाधन और जवानों की कमी का हवाला देते हुए बटालियन को वापस बुला लिया गया. लेकिन जसवंत सिंह ने वहीं रहने और चीनी सैनिकों का मुकाबला करने का फैसला किया.

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स्थानीय किवदंतियों के मुताबिक, उन्होंने अरुणाचल प्रदेश की मोनपा जनजाति की दो लड़कियों नूरा और सेला की मदद से फायरिंग ग्राउंड बनाया और तीन स्थानों पर मशीनगन और टैंक रखे.उन्होंने ऐसा चीनी सैनिकों को भ्रम में रखने के लिए किया ताकि चीनी सैनिक यह समझते रहे कि भारतीय सेना बड़ी संख्या में है और तीनों स्थान से हमला कर रही है.नूरा और सेला के साथ-साथ जसवंत सिंह तीनों जगह पर जा-जाकर हमला करते. इससे बड़ी संख्या में चीनी सैनिक मारे गए.

इस तरह वह 72 घंटे यानी तीन दिनों तक चीनी सैनिकों को चकमा देने में कामयाब रहे.लेकिन दुर्भाग्य से उनको राशन की आपूर्ति करने वाले शख्स को चीनी सैनिकों ने पकड़ लिया.उसने चीनी सैनिकों को जसवंत सिंह रावत के बारे में सारी बातें बता दीं. इसके बाद चीनी सैनिकों ने 17 नवंबर, 1962 को चारों तरफ से जसवंत सिंह को घेरकर हमला किया.इस हमले में सेला मारी गई लेकिन नूरा को चीनी सैनिकों ने जिंदा पकड़ लिया.जब जसवंत सिंह को अहसास हो गया कि उनको पकड़ लिया जाएगा तो उन्होंने युद्धबंदी बनने से बचने के लिए एक गोली खुद को मार ली.सेला की याद में एक दर्रे का नाम सेला पास रख दिया गया है.

कहा जाता है कि चीनी सैनिक उनके सिर को काटकर ले गए.युद्ध के बाद चीनी सेना ने उनके सिर को लौटा दिया.अकेले दम पर चीनी सेना को टक्कर देने के उनके बहादुरी भरे कारनामों से चीनी सेना भी प्रभावित हुई और पीतल की बनी रावत की प्रतिमा भेंट की.कुछ कहानियों में यह कहा जाता है कि जसवंत सिंह रावत ने खुद को गोली नहीं मारी थी बल्कि चीनी सैनिकों ने उनको पकड़ लिया था और फांसी दे दी थी.