श्मशान में चिताओं के बीच शुरू होती अघोरी की दुनिया, इंसानी मांस और मदिरा से साधना
अघोरी शब्द सुनते ही शरीर में सिरहन होने लगती है. माया-मोह से दूर अघोरी की अपनी दुनिया है. आम जनजीवन में होने वाली क्रियाओं से विपरित अघोरी अपनी साधना में जुटा रहता है. जहां पर जीवन खत्म होता है, वहां से उनकी दुनिया शुरू होती है.
highlights
- बाबा मशाननाथ मंदिर में महाकाल के औघड़ रूप की पूजा होती है
- कई भक्त महाकाल पर इस दौरान शराब भी चढ़ाते हैं
- बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर अघोरियों का जमघट लगता है
नई दिल्ली:
अघोरी शब्द सुनते ही शरीर में सिरहन होने लगती है. माया-मोह से दूर अघोरी की अपनी दुनिया है. आम जनजीवन में होने वाली क्रियाओं से विपरीत अघोरी अपनी साधना में जुटा रहता है. जहां पर जीवन खत्म होता है, वहां से उनकी दुनिया शुरू होती है. श्मशान में नरमुंडों के साथ अक्सर उन्हें तपस्या में लीन देखा जाता है. मणिकर्णिका घाट स्थित बाबा मशाननाथ मंदिर में महाकाल के औघड़ रूप की पूजा होती है. महाकाल को दही से नहलाया जाता है. उन पर चिता की भस्म से त्रिमुंड और ओम बनाया जाता है. फल, मिठाई के साथ गांजे का भोग चढ़ाया जाता है. कई भक्त महाकाल पर इस दौरान शराब भी चढ़ाते हैं. बताया जाता है कि यह मंदिर अघोरियों का गढ़ है. यहां के डोम और अघोरियों के बीच गहरा रिश्ता है. रात के 9 बजे के बाद बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर अघोरियों का जमघट लगता है.
चारों ओर चिंताएं सुलगने लगती हैं. कोई चिता के पास नरमुंड का जाप कर रहा होता है तो कोई जलती चिता से राख उठाकर मालिश कर रहा होता है. वहीं कुछ मुर्गे का सिर काटकर उसके खून से साधना करते हैं. कई ऐसे भी हैं जो इंसानी खोपड़ी में भोजन का सेवन करते हैं. ये होती हैं अघोरी की क्रियाएं. यानि जिसे हम अपनी दुनिया में अपवित्र मानते हैं. वहीं अघोरी के लिए ये पवित्र है. वे इंसान का कच्चा मांस तक खा जाते हैं. कई तो मल मूत्र का भी भोग लगाते हैं.
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डोम और अघोरी के बीच ऐसा रिश्ता
अघोरी और डोम का नाता शुरू से रहा है. किसी अघोरी को तब तक सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है, जब तक डोम का बच्चा उसे बांस से पांच बार मारता नहीं. डोम ही अघोरी साधक को श्मशान में जरूरी चीजें मुहैया करता है. डोम को अघोरी के तमाम ठिकानों की पता होता है. डोम की मदद से अघोरी को साधाना के लिए इंसानी मांस, खोपड़ी आदि मिल पाता है. अघोरी के तप में डोम ही उसका सच्चा मित्र है.
खोपड़ी का तप से नाता
अघोरी का तप खोपड़ी से पूरा हो पाता है. इंसानी खोपड़ी सत्य का प्रतीक है. साधक का काम खोपड़ी में जो भी शक्ति होती है, उसे जगाना होता है. इसे सिद्ध खोपड़ी भी कहा जाता है. अघोरियों के अनुसार, इससे उनके सामने निगेटिव शक्तियां आ जाती हैं. ऐसा कहना है कि ये ताकतें अकाल मृत्यु या हादसे में मरे किसी इंसान की आत्मा होती हैं. इसे मुक्ति नहीं मिली होती है. उन्हें अघोरी खोपड़ी के जरिए साधने की कोशिश करते हैं. अघोरियों के अनुसार इन्हें मदिरा और मांस का सेवन भी कराया जाता है.
अघोरियों का कहना है कि खोपड़ी मस्तिष्क, बुद्धि, विवेक संरचना का प्रतीक है. इसमें पॉजिटिव और निगेटिव दोनों तरह की एनर्जी बनी रहती है. अघोरियों के अनुसार, वे बहाए हुए शवों की खोपड़ी लेते हैं. यह काम डोम करता है. शव को जलाने के दौरान कपाल क्रिया होती है. इसमें खोपड़ी को फोड़ा जाता है. अगर यह नहीं फूटती है तो डोम बांस के डंडे से पांच बार मारकर तोड़ देता है. अकसर मरने वाले के रिश्तेदार किसी भी लाश के जलते वक्त खोपड़ी के जलने का इंतजार करते हैं. यहां भी मिलीभगत रहती है. कई शव ऐसे भी जलाए जाते हैं , जिसकी खोपड़ी न जले.
शैव परंपरा और मातृ तांत्रिक परंपरा
अघोर का अर्थ है कि जो घोर नहीं हो, यानी जो कठिन न हो. यह एक मार्ग की तरह है. अघोरी को किसी भी चीज से नफरत नहीं होती है. इस पंथ में दो धाराएं होती हैं. शैव परंपरा और दूसरा मातृ तांत्रिक परंपरा. शैव परंपरा में अघोरी शिव के औघड़ रूप को साधते हैं. वहीं मातृ तांत्रिक परंपरा के साधक कमाख्या देवी, तारापीठ और कालीपीठ जैसे शक्ति पीठों पर साधना के लिए जाते हैं. अघोरी तामसिक और सात्विक दोनों तरह की पूजा अर्चना होती है. तामसिक में मांस के साथ मदिरा का प्रयोग होता है. वहीं सात्विक में फल, इलाचयी, लौंग, जायफल, फूल जैसी चीजों का उपयोग होता है.
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