CAA से मुसलमानों को क्यों रखा गया बाहर, इन आंकड़ों से समझिए क्या है पूरा मामला?
अब सवाल यह है कि सिर्फ गैर-मुसलमानों को ही भारतीय नागरिकता देने की आवश्यकता क्यों है, इसमें मुसलमानों को शामिल क्यों नहीं किया गया? ये जानना जरुरी है कि आखिर इस कानून से मुस्लिमों को क्यों वंचित किया गया?
नई दिल्ली:
कुछ ही दिनों में लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान होने वाला है और चुनाव से ठीक पहले देशभर में नागरिकता संशोधन कानून लागू कर दिया गया. आपको बता दें कि नागरिकता संशोधन बिल दिसंबर 2019 में दोनों संसदों से पास हो गया था लेकिन तब इसे लागू नहीं किया गया था, लेकिन चार साल बाद इस कानून को पूरे देश में लागू कर दिया गया. इस कानून के आते ही पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले गैर-मुस्लिमों को आसानी से भारतीय नागरिकता मिल जाएगी यानी इन तीनों देशों के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसी धर्म के जो लोग भारत में शरणार्थी के तौर पर रह रहे थे, उन्हें भारतीय नागरिकता मिल जाएगी. गौरतलब है कि जो लोग 31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले भारत में आकर बस गए हैं. ऐसे शरणार्थियों को बिना किसी वैलिड डॉक्यूमेंट या वीजा के भी भारतीय नागरिकता दी जा सकती है.
आख़िर मुसलमान इस क़ानून से क्यों हैं वंचित?
अब सवाल यह है कि सिर्फ गैर-मुसलमानों को ही भारतीय नागरिकता देने की आवश्यकता क्यों है, इसमें मुसलमानों को शामिल क्यों नहीं किया गया? ये जानना जरुरी है कि आखिर इस कानून से मुस्लिमों को क्यों वंचित किया गया? इसके लिए सबसे पहले हमें गृह मंत्री अमित शाह के उस बयान को याद करना होगा, जब उन्होंने सदन में बिल पेश करते हुए दिया था. उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों की आबादी 20 फीसदी कम हो गई है. उन्होंने दावा किया कि इन धार्मिक अल्पसंख्यकों को या तो मार दिया गया या जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया या उन्हें भारत भागना पड़ा.
सरकार का तर्क था कि इन देशों में अल्पसंख्यक कम हो रहे हैं और उन्हें धर्म के आधार पर प्रताड़ित किया जा रहा है, इसलिए उनके लिए यह कानून है. ऐसे में सवाल ये है कि क्या वाकई इन तीनों देशों में अल्पसंख्यकों की संख्या कम हो गई है?
इन तीन देशों में स्थिति क्या है अल्पसंख्यकों की?
यह बताने की जरूरत नहीं है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान तीनों मुस्लिम राष्ट्र हैं. अब आंकड़ों के जरिए समझते हैं कि इन देशों में अल्पसंख्यकों की क्या स्थिति है? सबसे पहले बात करते हैं पाकिस्तान की. पाकिस्तान की नींव साल 1947 में विभाजन के बाद रखी गई, उस समय बांग्लादेश अस्तित्व में नहीं आया था. पाकिस्तान दो हिस्सों में था, पहला- पूर्वी पाकिस्तान और दूसरा पश्चिमी पाकिस्तान.
आंकड़ों को नहीं दर्द को समझिए
साल 1951 में जब पाकिस्तान में जनगणना हुई तो वहां मुस्लिम आबादी 85.8 फीसदी और गैर-मुस्लिम आबादी 14.2 फीसदी थी. आपको बता दें कि उस समय पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में गैर-मुसलमानों की आबादी 23.4 प्रतिशत और पश्चिमी पाकिस्तान (आज का पाकिस्तान) में 3.44 प्रतिशत थी. इसके बाद साल 1972 में पाकिस्तान में जनगणना हुई और उस समय बांग्लादेश एक नया देश बन चुका था. 1972 की जनगणना के अनुसार पाकिस्तान में गैर-मुसलमानों की जनसंख्या घटकर 3.25 प्रतिशत रह गई थी। आज से ठीक सात दिन पहले पाकिस्तान में 2017 की जनगणना हुई थी, उस वक्त पाकिस्तान में गैर-मुस्लिमों की आबादी 3.53 हो गई थी.
बंग्लादेश ने कर दिया सोचने पर मजबूर
पाकिस्तान में गैर-मुसलमानों की संख्या न तो बहुत बढ़ी और न ही ज्यादा कम हुई, लेकिन इसके विपरीत, बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की आबादी में काफी गिरावट आई. साल 2011 में जब बांग्लादेश में जनगणना हुआ तो गैर-मुसलमानों की आबादी घटकर 9.4 फीसदी रह गई. यानी गैर-मुसलमानों की आबादी जो साल 1951 में 23.4 थी, वो अब 9.4 हो गई थी.
क्या है अफगानिस्तान की रिपोर्ट?
अंतरराष्ट्रीय मीडिया अल-जजीर के मुताबिक, 1970 के दशक में अफगानिस्तान में 7 लाख से ज्यादा हिंदू और सिख रहते थे, लेकिन मौजूदा हालात में ये आबादी घटकर 7 हजार से भी कम हो गई है. अमेरिकी विदेश विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक, 2018 में अफगानिस्तान में सिर्फ 700 हिंदू और सिख परिवार बचे थे. वहां गृह युद्ध के कारण कई लोगों को वहां से भागना पड़ा.
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