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रोहिंग्या शरणार्थी भारत के लिए बड़ा संकट

भारत को हमेशा से ही मददगार देश माना जाता है और भारत की सह्दयता और सहनशीलता सबको साथ लेकर चलने की रही है लेकिन कोई भारत को धर्मशाला समझ अपने कुकृत्यों को छिपाकर भारत में शरणार्थी बनकर भारतवासियों के संसाधनो पर कब्जा करने की सोचे तो ये भी भारतवर्ष को क

Updated on: 11 Oct 2021, 10:37 PM

नई दिल्ली:

भारत को हमेशा से ही मददगार देश माना जाता है और भारत की सह्दयता और सहनशीलता सबको साथ लेकर चलने की रही है लेकिन कोई भारत को धर्मशाला समझ अपने कुकृत्यों को छिपाकर भारत में शरणार्थी बनकर भारतवासियों के संसाधनो पर कब्जा करने की सोचे तो ये भी भारतवर्ष को कतई गवारा नहीं है। कुछ ऐसे ही देश के लिए नासूर बन गए हैं रोहिंग्या शरणार्थी जिनका मसला देश की सुरक्षा और संप्रभुता के लिए भी बेहद संवेदनशील हो गया है। भारत में पनाह लेकर रहने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों को देश से निकालने की मांग हमेशा से होती रही है। हालांकि, 2017 में तत्कालीन  केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजूजू ने आधिकारिक रुप से रोहिंग्याओं की संख्या 40,000 बताई थी। उन्होंने यह भी बताया कि इनमें लगभग 16,000 औपचारिक रूप से यूएनएचसीआर से शरणार्थी के रूप में पंजीकृत थे। हालांकि वर्तमान में  रोहिंग्या प्रवासियों की सटीक संख्या का पता लगाना मुश्किल है, रोहिंग्याओं की समस्याओं के संबंध में जानने के लिए हमें रोहिंग्याओं की समस्याओं को मूल रुप से समझने की जरुरत है।  

दरअसल रोहिग्याओं का मुद्दा उस वक्त चर्चा में आया था जब 25 अगस्त 2017 को रोहिंग्या चरमपंथियों ने म्यामांर के उत्तर रखाइन में पुलिस पोस्ट पर हमला कर 12 सुरक्षाकर्मियों को मार दिया था। इस हमले के बाद सेना ने अपना क्रूर अभियान चलाया और तब से ही म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमानों का पलायन जारी है। बात अगर रोहिंग्याओं के इतिहास की करें तो पता चलता है कि वर्ष 1400 के आसपास रोहिंग्या लोग ऐसे पहले मुस्लिम्स थे, जो कि बर्मा के अराकान प्रांत में आकर बस गए थे। यही नहीं ब्रिटिश शासन काल में भी  रोहिंग्या वर्ष 1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया। तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया या फिर उनकी हत्या कर दी। इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था। वर्ष 1824 से लेकर 1826 तक चले एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।बात म्यांमार में सैनिक शासनकी शुरुआत और रोहिंग्याओं के इतिहास की करें तो  द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्त‍ि और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्रवाई के दौर में रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मी सेनाके शासन ने यांगून (पूर्व का रंगून) पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैर राजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की। सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार करदिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया। तब से स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। रोहिग्याओं को लेकर वर्तमान सबसे बड़ी समस्या ये हैं कि  पिछले महीने शुरू हुई हिंसा के बाद से अब तक करीब 3,79,000 रोहिंग्या शरणार्थी सीमा पार करके बांग्लादेश में शरण ले चुके हैं और भारत के भी विभिन्न इलाकों में शरण ले चुके है। मानवाधिकार कार्यकर्ता आंग सान सूकी का कहना है कि  म्यांमार की नेता आंग सान सू ची ने कहा है कि उनका देश रखाइन प्रांत में बसे सभी लोगों को बचाने की पूरी कोशिश कर रहा है। रोहिग्याओं को लेकर म्यांमार सरकार की भूमिका यदि सूची अंतराष्ट्रीय दवाब में झुकती हैं और रखाइन स्टेट को लेकर कोई विश्वसनीय जांच कराती हैं तो उन्हें आर्मी से टकराव का जोखिम उठाना पड़ सकता है। उनकी सरकार ख़तरे में आ सकती है।

सुरक्षा एजेसिंयों का मानना है कि रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रति देश विरोधी ताकतों की हमदर्दी देश की सुरक्षा के लिए बहुत बड़ी चेतावनी है और  रोहिंग्या विस्थापितों के इस्लामी हमदर्दों की है, जो पाकिस्तान के अपने सुरक्षित अड्डों में बैठकर उनकी दुर्दशा को 'इस्लाम-विरोधी अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र' की तरह पेश करते हैं। रोहिंग्या संकट पर  चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा था, म्यांमार के रखाइन प्रांत में हुए हिंसक हमले की चीन कड़ी निंदा करता है। हम म्यांमार की उन कोशिशों का समर्थन करते हैं जिसके तहत वह रखाइन में शांति और स्थिरता बहाल कर रहा है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को म्यांमार का समर्थन करना चाहिए। रोहिंग्या संकट के चलते हाल के सालों में म्यांमार से आ रहे रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों और जम्मू-कश्मीर तथा भारत के दूसरे क्षेत्रों में उनके बसने के मुद्दे ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। अनुमान है कि अभी करीब 40,000 से अधिक रोहिंग्या शरणार्थी असम, पश्चिम बंगाल, केरल, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं। रोहिंग्याओं के लिए हालात इसलिए भी मुश्किल हैं क्योंकि  जब म्यांमार सरकार रोहिंग्या मुस्लिमों को अपने देश का नागरिक नहीं मानती है तो वह भारत के कहने पर उन्हें वापस कैसे लेगी। यदि भारत ने इनकी वापसी का दबाव म्यांमार पर बनाया तो दोनों देशों के संबंधों पर इसका विपरीत असर पड़ने की उम्मीद है। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने संयुक्त राष्ट्र में कहा कि म्यांमार में सुरक्षित जोन बनाया जाना चाहिए. इसे यूएन की निगरानी में बनाया जा सकता है। शेख हसीना कह चुकी हैं कि म्यांमार को हिंसा और ‘जातीय सफाए’ की कार्रवाई बंद करनी चाहिए। हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार परिषद के सदस्यों ने एक प्रस्ताव पारित करके म्यांमार में रोहिंग्या का जनसंहार करने वालों और यातनाएं देने वालों को गिरफ़्तार करके मुक़द्दमा चलाने और दंडित किए जाने की मांग की है। बात रोहिंग्या संकट के समाधान की हो तो ये बात बिल्कुल सच है कि  विश्व में कही भी हो रहे अशांति और अत्याचार सम्पूर्ण विश्व के लिए खतरा है और भारत जो इतना करीब है उसपर तो इसका प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है अतः जरुरत है कि एक तरफ म्यांमार भी अपने इस आतंरिक मामले से निपटने के लिए गंभीरता दिखाए वही भारत सहित सभी वैश्विक शक्तियों द्वारा भी संयुक्त राष्ट्र के एजेंसियों का सहारा लेकर इस मुद्दे को हल करने का प्रयास किया जाये।