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Karnataka Elections: बीजेपी छोड़ते लिंगायतों का कांग्रेस कर रही स्वागत, चुनाव में इसका क्या है मतलब

मतदान का दिन करीब आते-आते किसी भी लिंगायत नेता का कांग्रेस में शामिल होना उस पार्टी के लिए एक बड़ा बढ़ावा और बोनस है, जो इस समुदाय को वापस लुभाने की पूरी कोशिश कर रही है.

Updated on: 15 Apr 2023, 02:23 PM

highlights

  • इस चुनाव में कांग्रेस लिंगायत समुदाय को फिर लुभाने की पूरी कोशिश कर रही
  • ऐसे में लक्ष्मण सावदी जैसे लिंगायत नेताओं का जुड़ना कांग्रेस के लिए बड़ा बोनस
  • कांग्रेस की सत्ता से बेदखली और बीजेपी की ताजपोशी में लिंगायतों की बड़ी भूमिका

नई दिल्ली:

कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2023 (Karnataka Assembly Elections 2023) के तहत मतदान का दिन करीब आते-आते कई लिंगायत (Lingayat) नेता कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं. इससे कांग्रेस (Congress) पार्टी के मनोबल और संभावनाओं को वास्तव में बढ़ावा ही मिला है. कांग्रेस इस समुदाय को फिर लुभाने की पूरी कोशिश कर रही है. कांग्रेस से जुड़े सूत्रों का दावा है कि लक्ष्मण सावदी (Laxman Savadi) के बाद उत्तरी कर्नाटक के कई और लिंगायत नेताओं के पाला बदलने की उम्मीद है. गौरतलब है कि कर्नाटक के पूर्व उपमुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी बेलगाम जिले की अथानी सीट से भारतीय जनता पार्टी (BJP) से टिकट कटने के बाद शुक्रवार को कांग्रेस में शामिल हो गए. इसके पहले उन्होंने बेंगलुरु के लिए उड़ान भरी, कांग्रेस नेताओं के साथ बैठक की और भगवा पार्टी को हराने की कसम खाकर उनके साथ शामिल हो गए.

लिंगायत वोटरों ने ही राज्य में प्रशस्त किया बीजेपी का मार्ग
2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार से शिकस्त खाए लक्ष्मण सावदी एक बड़े क्षेत्र में दबदबा रखने वाले बड़े नेता नहीं हो सकते हैं. हालांकि जो इस चुनाव में मायने रखता है, वह है उनकी जाति यानी लिंगायत. मतदान का दिन करीब आते-आते किसी भी लिंगायत नेता का कांग्रेस में शामिल होना उस पार्टी के लिए एक बड़ा बढ़ावा और बोनस है, जो इस समुदाय को वापस लुभाने की पूरी कोशिश कर रही है. सावदी के हाथ थामने के बाद उत्तर कर्नाटक के कई और लिंगायत नेताओं के पाला बदलने की उम्मीद है. यहां यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि कर्नाटक में भाजपा का उदय सीधे-सीधे लिंगायतों के वोट देने से जुड़ा हुआ है.

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प्यार-नफरत का रिश्ता है कांग्रेस-लिंगायत का
आबादी के 16 फीसदी हिस्से के साथ आर्थिक और राजनीतिक रूप से सबसे शक्तिशाली समुदाय लिंगायतों का 1972 से कांग्रेस के साथ प्रेम-घृणा का रिश्ता रहा है. तत्कालीन कांग्रेस सीएम डी देवराज उर्स के नेतृत्व में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की राजनीति के उभरने के बाद लिंगायतों ने पाला बदल लिया. वे विपक्षी पार्टी जनता परिवार के साथ हो लिए और 1983 में गुंडुराव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिराने में एक प्रमुख भूमिका निभाई. उनके समर्थन से एक ब्राह्मण रामकृष्ण हेगड़े दो बार मुख्यमंत्री बने. दूसरी सबसे शक्तिशाली जाति वोक्कालिगा भी एचडी देवेगौड़ा की वजह से जनता परिवार के साथ थी.

कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में लिंगायतों की बड़ी भूमिका
लिंगायत 1989 में संक्षिप्त रूप से कांग्रेस में लौट आए, जब विधानसभा चुनाव एक शक्तिशाली लिंगायत नेता वीरेंद्र पाटिल के नेतृत्व में हुए. उस समय कांग्रेस ने 224 सदस्यीय विधानसभा में रिकॉर्ड 181 सीटें जीतकर चुनाव में जीत हासिल की थी. यह अलग बात है कि 1990 में कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी द्वारा वीरेंद्र पाटिल को हटाया जाना. इसके बाद बंगारप्पा और वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में ओबीसी राजनीति की वापसी ने उन्हें एक बार फिर कांग्रेस छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया. एक बार फिर 1994 के विधानसभा चुनावों में लिंगायतों और वोक्कालिगाओं ने मिलकर जनता दल को वोट दिया और कांग्रेस को करारी शिकस्त दी. 

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बीजेपी में नहीं थम रहा है असंतोष
कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने कहा कि वह लक्ष्मण सावदी के भाजपा छोड़ने के फैसले से आहत थे. उन्होंने कहा, 'कांग्रेस के पास राज्य की 224 सीटों में 60 से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों के लिए उम्मीदवार नहीं हैं और इसलिए वे अन्य दलों के नेताओं को शामिल कर रहे.' इसके जवाब में राज्य कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार ने पार्टी में सावदी के प्रवेश को ऐतिहासिक बताया. उन्होंने कहा, 'राज्य भर के 63 निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा के बागी हैं. इनमें से करीब 90 फीसदी बागी कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं.' इस बीच, भाजपा के टिकट वितरण से असंतोष जारी है. अब होसदुर्गा के विधायक गुलीहट्टी शेखर ने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया और संकेत दिया कि वह एक निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ेंगे.