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कैसे खत्म हुआ UPA, विपक्षी एकता को क्यों पड़ी 'I.N.D.I.A' की जरूरत? 

साल 2004 में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में ही UPA यानी 'यूनाइडेट प्रोग्रेसिव अलायंस' नाम से गठबंधन बना था. जानकारों की मानें तो अब नाम बदलना कांग्रेस का UPA की छवि से बाहर निकलना भी बड़ी वजह हो सकता है.

Updated on: 02 Aug 2023, 06:38 PM

highlights

  • UPA से 'I.N.D.I.A' तक का सफर. 
  • लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारी में 'I.N.D.I.A'
  • अब NDA को टक्कर देगा 'I.N.D.I.A'

नई दिल्ली:

Lok Sabha Election 2024 Politics: 2024 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को कड़ी टक्कर देने के लिए 26 विपक्षी दलों ने एक मंच पर आने का मन बना लिया है. 18 जुलाई को बेंगलुरु में लंबे मंथन के बाद इन दलों ने अपने गठबंधन का नाम INDIA रखा. 'इंडिया' से मतलब "इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव एलायंस" से है.  इस गठबंधन में कांग्रेस सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है, वहीं इस बार उसे अपने पूर्व सहयोगियों के अलावा भी कुछ नए साथियों का सहयोग मिला है. बता दें कि साल 2004 में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में ही UPA यानी 'यूनाइडेट प्रोग्रेसिव अलायंस' नाम से गठबंधन बना था. इस गठबंधन ने कांग्रेस के मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 10 साल तक केंद्र में सरकार चलाई थी...लेकिन अब यूपीए खत्म हो गया है. आज हम UPA के टूटने और 'इंडिया' के बनने की इनसाइड स्टोरी आपको बताएंगे.    

लेफ्ट ने निभाई किंगमेकर की भूमिका 

साल 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस नाम के गठबंधन की सरकार बनाई थी. ये सरकार अक्टूबर महीने में अपने पांच साल पूरे करने वाली थी. लेकिन 'इंडिया शाइनिंग' के नारे पर भरोसा करने वाला एनडीए का कुनबा 6 महीने पहले ही लोकसभा चुनाव करवाने को तैयार हो गया. अप्रैल-मई महीने में लोकसभा के लिए वोटिंग होती है और इंडिया शाइनिंग का गुब्बारा फूट जाता है. चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली NDA सत्ता से बाहर हो जाती है. इन चुनावों में BJP को सिर्फ 138 सीटें मिलती हैं. जबकि कांग्रेस पार्टी उससे सिर्फ 7 सीटें ज्यादा ला पाती है. कांग्रेस लोकसभा में 145 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन जाती है. वहीं करीब 60 सीटें जीतकर लेफ्ट का कुनबा किंगमेकर की भूमिका में उभरता है. 

कांग्रेस को समर्थन का ऐलान

इन चुनावों में समाजवादी पार्टी 36, बीएसपी 19 और लालू यादव की आरजेडी 24 सीटें लेकर आती है. ऐसे में BJP को सत्ता से बाहर रखने के लिए सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस मुख्य भूमिका में आ गई. अब कवायद शुरू हुई बीजेपी विरोधी सरकार के गठन की. इस काम में लगे अनुभवी कम्युनिस्ट नेता और CPM के तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत. सुरजीत कांग्रेस के साथ मिलकर धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को एक साथ लाने में जुट गए. सुरजीत की कवायद का नतीजा ये रहा कि 14 दलों ने कांग्रेस को समर्थन का ऐलान कर दिया. अब बात गठबंधन के नाम पर आ गई. 

नाम पर हुआ मंथन 

गठबंधन के नाम के लिए यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस यानी UPA पहली पसंद नहीं था. ऐसा बताया जा रहा है कि इस गठबंधन का शुरुआती नाम 'यूनाइटेड सेक्युलर अलायंस' या 'प्रोग्रेसिव सेक्युलर अलायंस' सुझाया गया था. लेकिन बाद में इसे बदलकर यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस कर दिया गया. इसके पीछे भी एक कहानी है, जानकारों की मानें तो सरकार गठन से पहले गठबंधन को लेकर दिल्ली में लगातार बैठकों का सिलसिला चल रहा था. उस वक्त दक्षिण के कद्दावर नेता और डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि ने सोनिया गांधी से मिलकर सेक्युलर शब्द के लेकर कहा कि तमिल में इसका मतलब गैर धार्मिक होता है. यही वजह है कि बाद में इस गठबंधन का नाम यूनाइटेड सेक्युलर अलायंस की बजाय यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस हो गया.

डॉ मनमोहन सिंह ने बने प्रधानमंत्री

22 मई 2004 को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डॉ मनमोहन सिंह ने UPA सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली. मनमोहन सिंह के साथ शपथ लेने वालों में NCP प्रमुख पवार, आरजेडी नेता लालू यादव, एलजेपी नेता राम विलास पासवान, झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन, तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख के चंद्रशेखर राव, करुणानिधि की पार्टी DMK से टीआर बालू, दयानिधि मारन, ए राजा और PMK से अंबुमणि रामदास शामिल थे.

कैसे बिखरा UPA का कुनबा

साल 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में सरकार तो बन गई,  लेकिन 2006 तक आते-आते UPA के कुनबे को पहला झटका लगा. आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर टीआरएस नेता के चंद्रशेखर राव UPA से अलग हो गए. इसके बाद साल 2007 में MDMK के वाइको ने भी यूपीए का साथ छोड़ दिया. लेकिन इस सरकार को सबसे बड़ा झटका साल 2008 में लगा. अमेरिका से न्यूक डील को लेकर 4 लेफ्ट पार्टियों ने UPA से अपना समर्थन वापस ले लिया. इन चारों पार्टियों के सांसदों की संख्या 60 थी. ऐसे में मनमोहन सिंह सरकार को संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा. लेकिन सदन में सरकार के पक्ष में ज्यादा वोट पड़े और इस सरकार ने अपने पांच साल पूरे किए. 

फिर हुई सत्ता में वापसी 

इसके बाद साल 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन पहले की तुलना में काफी बेहतर रहा. कांग्रेस ने 206 सीटों पर जीत दर्ज की, इसके साथ ही UPA एक बार फिर से सत्ता में वापसी करती है. लेकिन, इस बार UPA का कुनबा थोड़ा छोटा हो गया. आरजेडी, एलजेपी यूपीए से अलग हो चुके थे. वहीं टीएमसी, NCP, DMK, नेशनल कॉन्फ्रेंस और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग यानी IUML यूपीए 2 के प्रमुख घटक थे. हालांकि, बाद में आरजेडी, सपा और बसपा ने भी UPA को समर्थन दिया, लेकिन 2010 में राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल के विरोध में आरजेडी ने समर्थन वापस ले लिया. साल 2012 आते-आते में दो बड़ी पार्टियों टीएमसी और DMK भी UPA से अलग हो गईं. इसी साल कई और छोटी पार्टियां भी UPA से अलग हो चुकी थी. नतीजा ये हुआ कि साल 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का सफाया हो गया. 

खत्म हो गया अस्तित्व!

2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अब तक की सबसे कम 44 सीटें जीतीं. हालांकि, कांग्रेस गठबंधन को अभी भी UPA के रूप में जाना जाता था, लेकिन तकनीकी रूप से कहा जाए तो 2014 के बाद कोई UPA नहीं था. UPA में शामिल रही ज्यादातर पार्टियों से कांग्रेस के संबंध खराब हो चुके थे. कांग्रेस नेताओं का कहना था कि आजकल वे आमतौर पर विपक्षी दलों के लिए समान विचारधारा वाले दल शब्द का उपयोग करते हैं. यही वजह है कि दिसंबर 2021 में सत्तारूढ़ BJP के खिलाफ सभी क्षेत्रीय दलों को एकजुट करने की जरूरत पर जोर देते हुए टीएमसी नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा था कि 'UPA क्या है? कोई UPA नहीं है.' यानी ये बिलकुल सीधा संकेत था कि अब UPA का कोई अस्तित्व नहीं है और अब एक नए गठबंधन का समय है.

क्या कहते हैं सियासी जानकार 

राजनीति के जानकारों की मानें तो नाम बदलना कांग्रेस का UPA की छवि से बाहर निकलना भी बड़ी वजह हो सकता है. दरअसल 2014 के चुनाव आते आते UPA की छवि भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से खराब हो गई थी और 2019 में भी मोदी समेत BJP के दूसरे नेता अक्सर इस गठबंधन पर वंशवाद की राजनीति और भ्रष्टाचार के आरोप लगाते रहे हैं. हाल ही में BJP अध्यक्ष जेपी नड्डा ने UPA की आलोचना करते हुए कहा था कि U का मतलब उत्पीड़न, P का मतलब पक्षपात और A का मतलब अत्याचार से है.

BJP विरोधी "INDIA" तक कैसे पहुंचे?

विपक्षी दलों की पहली बैठक 23 जून को पटना में हुई थी, इस बैठक में 15 विपक्षी दलों ने हिस्सा लिया.  इस दौरान आम आदमी पार्टी ने दिल्ली अध्यादेश के विरोध में कांग्रेस द्वारा समर्थन देने की शर्त रख दी. यही वजह रही कि इस बैठक में कोई फैसला नहीं हो सकता. इसके बाद विपक्षी दलों की दूसरी बैठक 17 जुलाई को बेंगलुरु में शुरू हुई. इस बार इसमें शामिल होने वाले दलों की संख्या 26 पहुंच गई थी. बताया गया कि गठबंधन के लिए INDIA नाम का सुझाव सबसे पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दिया था. हालांकि, वो चाहते थे कि कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से इसे मंजूरी दिलाएं. बताया जाता है कि वो INDIA नाम पर आसानी से सहमत हो गईं. उन्होंने केवल ये सुझाव दिया कि N का मतलब नेशनल के बजाय न्यू होना चाहिए. फिर इस बात पर अनौपचारिक चर्चा हुई कि क्या D अक्षर का मतलब डेमोक्रेटिक होना चाहिए या डेवलपमेंटल.

नाम के लेकर उठे सवाल 

जानकार बताते हैं कि विपक्षी दलों के कुछ नेता 17 जुलाई की रात को डिनर के बाद ज्वाइंट स्टेटमेंट को अंतिम रूप देने के लिए बैठे. ये बैठक आधी रात के बाद तक चली. इस दौरान ये भी तय हुआ कि 18 जुलाई को बैठक में ममता बनर्जी INDIA नाम का प्रपोजल रखेंगी. पहले से तय प्लान के मुताबिक, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपने बयान से बैठक की शुरुआत की. इसके बाद टीएमसी प्रमुख ममता ने विपक्षी गठबंधन के लिए INDIA नाम का प्रस्ताव दिया. बिहार के मुख्यमंत्री और JDU प्रमुख नीतीश कुमार ने पूछा कि किसी राजनीतिक गठबंधन का नाम INDIA कैसे रखा जा सकता है. वामपंथी नेता सीताराम येचुरी, डी राजा और जी देवराजन ने भी इस नाम पर हैरानी जताई.

आगे है लंबी लड़ाई

गठबंधन का नाम तय करने के लिए सबसे ज्यादा जोर टीएमसी और कांग्रेस का था. दोनों ही पार्टियां चाहती थीं कि बैठक में ही गठबंधन के नाम पर मुहर लग जाए. लास्ट में बोलते हुए राहुल ने पूरे जोश के साथ INDIA नाम का समर्थन किया. उनका तर्क था कि विपक्ष आसानी से INDIA बनाम NDA का नैरेटिव बना सकता है. साथ ही लोगों को बताया जा सकता है कि नरेंद्र मोदी INDIA के खिलाफ हैं और जो लोग BJP के खिलाफ हैं वे INDIA के साथ हैं. बैठक में कांग्रेस नेता खड़गे और राहुल दोनों ने कहा कि 2024 में इस गठबंधन की जीत की स्थिति में कांग्रेस को प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा नहीं है. जानकार बताते हैं कि पटना में विपक्षी दलों की पहली मीटिंग के बाद काफी असमंजस की स्थिति थी. ऐसे में बेंगलुरु की बैठक में गठबंधन का नाम तय हो जाना बड़ा अचीवमेंट है. अब देखना होगा कि ये गठबंधन कैसे 2024 के लिए सीटों का बंटवारा करता है और कैसे बीजेपी और एनडीए को टक्कर देता है. 

रिपोर्ट- नवीन कुमार