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सपा-क़ौमी एकता दल विलय: क्या बनी रह पायेगी पार्टी की एकता?

समाजवादी परिवार के अंदर की उठापटक को समझना यूं तो जटिल है लेकिन इसमें रोचक पुट भी कम नहीं हैं।

Updated on: 06 Oct 2016, 09:09 PM

लखनऊ:

समाजवादी पार्टी के अंदर चल रही पारिवारिक खींचतान हाल के दिनों में सुर्ख़ियों में रही। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बाहुबली नेता मुख़्तार अंसारी की पार्टी क़ौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय इसी खींचतान की अगली कड़ी है। माना जाता है कि सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश अपनी छवि को लेकर सचेत रहते हैं सो उन्हें इस विलय से ऐतराज़ था। लेकिन पार्टी के ज़मीनी नेता माने जाने वाले शिवपाल चाहते थे कि मुख़्तार पार्टी के साथ आ जाएँ। आखिरकार यही हुआ और समाजवादी पार्टी के अंदर फिर से कलह के बुलबुले उभरने के आसार दिखाई दे रहे हैं।

बीते दिनों उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, जिनके पास प्रदेश अध्यक्ष का भी कार्यभार था, को बिना बताये ही शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। जवाबी कार्रवाई करते हुए अखिलेश ने अपने चाचा शिवपाल से कई अहम मंत्रालय छीन लिए। दोनों के समर्थकों ने मुलायम सिंह यादव के घर के आगे प्रदर्शन किये और अपने नेता को सही ठहराया। नेताजी ने बीच-बचाव कर अपने कुनबे को संभाल तो लिया लेकिन हाल की कुछ घटनाओं ने फिर से साफ़ कर दिया है कि समाजवादी परिवार के भीतर सब कुछ ठीक नहीं है।

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समाजवादी परिवार के अंदर की उठापटक को समझना यूं तो जटिल है लेकिन इसमें रोचक पुट भी कम नहीं हैं। लखनऊ की राजनीति को नजदीक से जानने वाले कहते आये हैं कि कि प्रदेश में साढ़े पांच मुख्यमंत्री हैं। यह तंज अखिलेश पर है क्योंकि उन्हें महज़ आधा मुख्यमंत्री माना जाता है। इसके बावजूद प्रदेश के युवाओं में अखिलेश लोकप्रिय हैं और उनके काम करने के तरीके को सराहा भी जाता है। वहीँ शिवपाल प्रदेश की राजनीतिक पेचीदगियों को समझने और सांगठनिक मजबूती के चैंपियन माने जाते हैं। मुलायम की दिक्कत यह है कि उन्हें दोनों को साथ लेकर चलना है। साथ ही उनकी सबसे बड़ी मजबूती यह भी कि उनकी कही बात को पार्टी के अंदर टाला नहीं जा सकता।

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ऐसे हालात में भले ही अखिलेश और शिवपाल खेमा नेताजी की बात मानते दिख रहे हों, लेकिन इससे उनका आपसी वैमनस्य कम होगा, ऐसा मानना जल्दबाज़ी होगी। चुनाव में तकरीबन छः महीने बचे हैं, टिकट बँटवारा होना बाँकी है सो दोनों खेमे एक-दूसरे पर नज़र बनाये हुए हैं और मौक़ा मिलते ही अपना दांव खेल रहे हैं। शिवपाल ने अपना दांव चल दिया है। मुख़्तार के पार्टी में आने से पूर्वांचल में सपा को भले ही अल्पसंख्यकों का साथ मिल जाय लेकिन अखिलेश के लिए इस तथ्य को पचा पाना मुश्किल होगा कि मुख़्तार की छवि एक बिगड़ैल डॉन की है। भाजपा इस मसले को कैसे उछालेगी, इसे भी समझना बहुत मुश्किल नहीं है.

आज की घटना ने इशारा कर दिया है कि फिलहाल संगठन के अंदर शिवपाल ताकतवर हो कर उभरे हैं. प्रदेश अध्यक्ष होने टिकट बांटने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की होगी। ज़ाहिरी तौर पर वो अखिलेश खेमे को दरकिनार करने की कोशिश करेंगे। पिछले दिनों के अनुभवों ने यह दिखा दिया है कि अखिलेश भी शायद ही चुप रह पाएं।

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चुनाव नजदीक हों तो संकट राजनीतिक अस्तित्व का होता है। समाजवादी परिवार में भी यही हो रहा है। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि अंततः बाज़ी किसके हाथ लगती है।