Anti Hindi Agitations फिर दक्षिणी राज्यों में निकला भाषागत 'अहं का बेताल'
2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर उदय ने एक हिंदी-हिंदू-हिंदुत्व भारत रूपी 'जिन्न' को बाहर ला दिया है. इस 'जिन्न' ने सभी दक्षिणी राज्यों में उनके राष्ट्रवादी प्रतिकों के आख्यानों को तेजी से जन्म देने का काम किया है.
highlights
- लगभग आधी सदी पुराना है तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन
- भाजपा के उदय से दक्षिण की क्षेत्रीय रजनीति के समीकरण बदले
- अब क्षेत्रीय दल हिंदी विरोध के सहारे फिर आधिपत्य जमाने के मूड में
नई दिल्ली:
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन (MK Stalin) ने 'अतीत के हिंदी विरोधी आंदोलन' की याद दिलाते हुए भारतीय जनता पार्टी (BJP) नीत केंद्र सरकार के गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी थोपने के प्रयासों का कड़ा विरोध किया है. इसके पहले 2018 में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) के कार्यकारी अध्यक्ष रहते हुए स्टालिन ने तमिलनाडु में हिंदी थोपने के केंद्र सरकार के प्रयास जारी रहने पर '1965 जैसे' आंदोलन की चेतावनी दी थी. स्टालिन ने उस दौरान भी लगभग आधी सदी पहले डीएमके की हिंदी विरोधी लामबंदी का परोक्ष जिक्र कर केंद्र को सीधी चेतावनी देने का काम किया था.
आखिर हुआ क्या था 1965 में
द्रविड़ आंदोलन और भारतीय राष्ट्रीय राज्य के साथ इसके जुड़ाव ने 1965 को इतिहास में एक मील का पत्थर बना दिया है. 1963 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राजभाषा विधेयक पेश किया. इस विधेयक में 1965 तक अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी को देश की एकमात्र आधिकारिक भाषा बनाए जाने का लक्ष्य रखा गया था. द्रविड़ आंदोलन की राजनीतिक उत्तराधिकारी डीएमके पार्टी ने तत्कालीन केंद्र सरकार के इस कदम के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया. डीएमके ने पार्टी कार्यकर्ताओं से संविधान के अनुच्छेद 17 की प्रतियां जलाने को कहा, जिसमें हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया. इसके बाद डीएमके प्रमुख सीएन अन्नदुरै को गिरफ्तार कर छह महीने के लिए जेल में डाल दिया गया. नतीजतन विरोध और बढ़ने लगा और 25 जनवरी 1964 को डीएमके के एक 27 वर्षीय कार्यकर्ता चिन्नास्वामी ने हिंदी के विरोध में खुद को आग लगा ली. इस तरह वह तमिल भाषा और उससे जुड़े सम्मान के लिए होने वाला पहला 'शहीद' बन गया. इसके बावजूद केंद्र सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी और उसने घोषणा कर दी कि 26 जनवरी 1965 से हिंदी भारत देश की आधिकारिक भाषा बन जाएगी. घोषित तारीख के एक दिन पहले यानी 25 जनवरी 1965 को डीमएम के अन्नादुरै सरीखे वरिष्ठ नेताओं को एहतियातन हिरासत में ले लिया गया. इसके विरोध में और स्कूली पाठ्यक्रम से हिंदी को हटाने की मांग को लेकर मद्रास के विभिन्न कॉलेजों के 50 हजार से ज्यादा छात्रों ने सेंट जॉर्ज तक मार्च निकाला. सेंट जॉर्ज राज्य सरकार का औपचारिक कार्यालय हुआ करता था, जहां तत्कालीन मुख्यमंत्री एम भक्तावत्सलम बैठा करते थे. 'अन्नाः द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ सीएन अन्नादुरै' में आर कानन लिखते हैं, '26 जनवरी को अल सुबह एम करुणानिधि और अन्य डीएमके नेताओं को भी हिरासत में ले लिया गया. मद्रास के कोडम्बक्कम में डीएमके कार्यकर्ता टीएम शिवालिंगम ने गैसोलीन डालकर खुद को आग लगा ली. सिर्फ शिवालिंगम ही नहीं, वीरूगम्बक्कम अरंगनाथन, अय्यानपल्लयम वीरप्पन और रंगासमुथीरम मुत्थू ने भी खुद को विरोध स्वरूप आगे के हवाले कर दिया. इनके अलावा कीरानूर मुत्थू, विरालीमलाई षड़मुगम और पीलामेंदु धंधपणि ने जहर खाकर जान दे दी.' यही नहीं, केंद्र सरकार में तमिलनाडु के दो मंत्रियों क्रमशः सी सुब्रामण्यम और ओवी अलागेशण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को इस्तीफा देने की धमकी दे डाली. लाल बहादुर शास्त्री 1964 में प्रधानमंत्री बने थे. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर आंदोलनरत लोगों को आश्वस्त किया कि हिंदी को जबरन थोपा नहीं जाएगा और अंग्रेजी आधिकारिक भाषा बनी रहेगी. 1965 में गैर हिंदी भाषी आबादी के डर से कांग्रेस कार्यसमिति ने स्कूलों के लिए तीन भाषा फॉमूला का प्रस्ताव पारित कर दिया. इसके साथ ही राजभाषा विधेयक 1963 में संशोधन की मांग रख दी.
The rigorous thrust by Union BJP government for #HindiImposition, negating the diversity of India is happening at an alarming pace.
— M.K.Stalin (@mkstalin) October 10, 2022
The proposals made in the 11th volume of the report of the Parliamentary Committee on Official Language are a direct onslaught on India's soul. 1/2 pic.twitter.com/Orry8qKshq
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1965 के आंदोलन का प्रभाव
हिंदी थोपने के खिलाफ डीएमके को अपने संघर्ष में मिली जीत ने भारतीय संघवाद का एक महत्वपूर्ण पहलू स्थापित किया. इसके तहत भारत की भाषाई बहुलता के साथ खिलवाड़ नहीं किया जाना था. साथ ही यह कि प्रत्येक भारतीय भाषा को एकसमान सम्मान दिया जाना था. राजनीतिक तौर पर तमिलनाडु में कांग्रेस के लिए इसके परिणाम विनाशकारी साबित हुए. वह हिंदी विरोधी आंदोलनों के दौरान खोई हुई जमीन आज तक वापस नहीं हासिल कर सकी है. दो साल बाद 1967 में हुए विधानसभा चुनाव में डीएमके ने चुनाव जीता. तभी से राज्य में अकेले द्रविड़ दल सत्ता में रहते हैं. मुख्यमंत्री अन्नादुरै की सरकार ने मद्रास राज्य का नाम बदलकर तमिलनाडु कर दिया और सार्वजनिक स्तर में तमिल का आधिपत्य स्थापित करने का एक विस्तृत मिशन शुरू किया गया.
तमिलनाडु में हिंदी विरोध का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ
वास्तव में हिंदी विरोध भाषाई गर्व और क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान बन चुका है. 20 सदी की शुरुआत में लगभग समग्र भारत में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के समानांतर ही भाषाई पहचान पर केंद्रित राष्ट्रवाद भी विकसित हो गए थे. दुर्भाग्य से शुरुआत में राष्ट्र की भावना से वंचित तमिलनाडु की सामाजिक न्याय की राजनीति ने तमिल और द्रविड़ भाषाई और जातीय पहचान को कांग्रेस के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आंदोलन और कम्युनिस्टों दोनों से अलग करने के लिए अपनाया. यह 1937-39 का पहला हिंदी विरोधी आंदोलन था, जिसने पेरियार ईवी रामास्वामी और उनके अनुयायियों को 1936 में कांग्रेस से प्रांतीय चुनाव हारने के बाद राजनीतिक स्थान हासिल करने में भारी मदद की थी. सी राजगोपालाचारी की सरकार ने मद्रास प्रेसीडेंसी के प्राथमिक विद्यालयों में हिंदी की शुरुआत की और इसी के समानांतर पेरियार के नेतृत्व में हिंदी विरोधी आंदोलन ने भारतीय राष्ट्र राज्य से स्वतंत्र एक तमिल-द्रविड़ राष्ट्र की कल्पना को शक्ति प्रदान की. नतीजा यह निकला कि तमिल बनाम हिंदी तर्क भी द्रविड़ बनाम आर्यन बहस में शामिल हो गया. यानी जाति व्यवस्था और ब्राह्मण वर्चस्व को आर्यों द्वारा थोपे गए मूल्यों के रूप में पेश किया गया, था जो उत्तर भारत से आए थे. यह अवधारणा तमिल बनाम हिंदी, दक्षिण बनाम उत्तर तब से पोषित है. इसी ने तमिलनाडु में हर आंदोलन की भूमिका और फिर रूप-रेखा तैयार की. यहं तक 1980 के दशक में श्रीलंकाई तमिलों के लिए लामबंदी से लेकर हाल के दिनों में जल्लीकट्टू आयोजित करने के अधिकार तक इसे प्रमुखता और गहराई से देखा जा सकता है.
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पुराने तनाव फिर से क्यों बढ़ गए
2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर उदय ने एक हिंदी-हिंदू-हिंदुत्व भारत रूपी 'जिन्न' को बाहर ला दिया है. इस 'जिन्न' ने सभी दक्षिणी राज्यों में उनके राष्ट्रवादी प्रतिकों के आख्यानों को तेजी से जन्म देने का काम किया है. तमिलनाडु में, हिंदी और केंद्र लंबे समय से राजनीतिक दलों के लिए कैडर जुटाने के लिए एक आधारभूत मंच रहे हैं. साथ ही जनता का ध्यान मूल मुद्दों से भटकाने का माध्यम भी. जयललिता के बाद तमिलनाडु की राजनीति पर केंद्र और भाजपा का प्रभाव कई गुना बढ़ गया है. स्थानीय संगठन इसको लेकर राजनीतिक समीकरणों और आयोमों में एक संभावित बदलाव महसूस कर रहे हैं. ऐसी परिस्थितियों में डीएमके तमिलनाडु की प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी के रूप में अपनी स्थिति को फिर से स्थापित करना चाहता है. इसके लिए 1965 की तुलना में खुद को तमिल हितों के रक्षक के रूप में स्थापित करने के लिए इससे बेहतर विरासत क्या हो सकती है.
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