हिमालय पर मंडरा रहा है तबाही का खतरा, पड़ सकता है भयंकर सूखा, वैज्ञानिकों ने दी ये चेतावनी
Global Warming: शोध में पता चला है कि प्रत्येक देश में 50 प्रतिशत से अधिक कृषि भूमि अगले 30 साल की अवधि में कम से कम एक वर्ष से अधिक समय तक गंभीर सूखे की चपेट में आ सकती है.
नई दिल्ली:
Global Warming: पूरी दुनिया में इनदिनों ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में है. बढ़ता तापमान मैदानी इलाकों में ही नहीं बल्कि बर्फ से ढंके पहाड़ों के लिए भी खतरा बनता जा रहा है. दुनियाभर के देशों पर इसका खतरा मंडरा रहा है. इसी बीच किए गए एक शोध में डराने वाला खुलासा हुआ है. जिमसें कहा गया है कि आने वाले दिनों में हिमालय पर तबाही मच सकती है. ये तबाही बढ़ते तापमान के चलते होने का अनुमान है. नए शोध में कहा गया है कि अगर तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होती है तो हिमालय क्षेत्र का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा एक साल के लिए सूख जाएगा. इसे लेकर वैज्ञानिकों ने चेतावनी जारी की है.
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पीटीआई के मुताबिक, जर्नल क्लाइमैटिक चेंज में प्रकाशित किए गए कुछ निष्कर्षों से पता चलता है कि पेरिस समझौते के ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सकता है. साथ ही पेरिस समझौते के तापमान के नियंत्रण लक्ष्यों का पालन करके भारत में गर्मी के तनाव के बढ़ते मानव जोखिम में 80 प्रतिशत की कमी लाई जा सकती है. वहीं इससे तापमान 3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होती है.
ईस्ट एंग्लिया विश्वविद्यालय में हुआ शोध
इंग्लैंड में ईस्ट एंग्लिया विश्वविद्यालय (UAE) के शोधकर्ताओं के नेतृत्व वाली एक टीम ने यह निर्धारित किया है कि ग्लोबल वार्मिंग का स्तर बढ़ने के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर मानव और प्राकृतिक प्रणालियों के लिए जलवायु परिवर्तन के जोखिम कैसे बढ़ रहे हैं. शोध में शामिल शोधकर्ताओं ने पाया कि तापमान बढ़ने के साथ कृषि भूमि के सूखे की चपेट में आने की संभावना में बहुत बड़ी वृद्धि हुई है. जो आने वाले सालों में और बढ़ सकती है.
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सूखे की चपेट में आ जाएगी कृषि योग्य जमीन
शोध में पता चला है कि प्रत्येक देश में 50 प्रतिशत से अधिक कृषि भूमि अगले 30 साल की अवधि में कम से कम एक वर्ष से अधिक समय तक गंभीर सूखे की चपेट में आ सकती है. वहीं ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने से कृषि भूमि पर सूखे का जोखिम 21 प्रतिशत (भारत) और 61 प्रतिशत (इथियोपिया) में कम होने की संभावना है. इसके साथ ही नदी से आने वाली बाढ़ के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान में भी कमी आएगी. ऐसा तब होगा जब नदियां और झरने अपने किनारे तोड़ देते हैं. बाद नदियों का पानी निकटवर्ती निचले इलाकों में भर जाता है.
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