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जन्मदिन विशेष: पैसों से ज्यादा कला को महत्व देते थे कालजयी संगीतकार नौशाद

संगीत के प्रति बचपन से ही रुझान होने के कारण नौशाद देर रात फिल्म देखकर लौटते थे।

Updated on: 25 Dec 2016, 12:27 AM

highlights

  • 64 सालों तक काम करने के बावजूद उन्होंने सिर्फ 67 फिल्मों को ही संगीत दिया।
  • वह 1982 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार और 1992 में पद्मश्री से नवाजे गए।
  • वह हारमोनियम की मरम्मत का काम भी किया करते थे।
  • इस संगीतकार को पैसों से ज्यादा अपने संगीत और उसकी गुणवत्ता से प्यार था।

नई दिल्ली:

नौशाद के संगीत से सजे गीतों को सुनते ही एक ऐसे संगीतकार का अक्स जेहन में उभरता है, जिनकी संगीत रचनाएं कालजयी हैं। उन्होंने संगीत की गुणवत्ता पर ज्यादा ध्यान दिया, तभी तो लगातार 64 सालों तक काम करने के बावजूद उन्होंने सिर्फ 67 फिल्मों को ही संगीत दिया। मगर जो दिया, सो खरा सोना! वह 1982 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार और 1992 में पद्मश्री से नवाजे गए।

नौशाद अली का जन्म 25 सितंबर, 1919 को नवाबों के शहर लखनऊ में रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनके पिता वाहिद अली क्लर्क थे। नौशाद बचपन में लखनऊ से 25 किलोमीटर दूर बाराबंकी में आयोजित होने वाले वार्षिक मेला देवा शरीफ में जाया करते थे। वहां वह कव्वालों और संगीतकारों को श्रद्धालुओं के सामने प्रस्तुति देते देखकर प्रभावित होते थे। उसी दौरान उनके अंदर भी संगीत की तालीम लेने की इच्छा जागी।

उन्होंने हिंदुस्तानी संगीत की तालीम उस्ताद गुरबत अली, उस्ताद यूसुफ अली और उस्ताद बब्बन साहब से ली। वह हारमोनियम की मरम्मत का काम भी किया करते थे।

संगीत के प्रति बचपन से ही रुझान होने के कारण नौशाद देर रात फिल्म देखकर लौटते थे, इससे नाराज उनके पिता उनसे अक्सर कहते "घर या संगीत में से किसी एक को चुन लो।"

एक बार एक नाटक कंपनी जब लखनऊ आई तो नौशाद ने नाटक मंडली में शामिल होने के लिए अपने पिता से आखिरकर कह ही दिया, "आपको आपका घर मुबारक, मुझे मेरा संगीत।" नाटक मंडली के साथ नौशाद ने गुजरात, जोधपुर, बरेली आदि शहरों का भ्रमण किया।

नौशाद अपने दोस्त से 25 रुपये उधार लेकर 1937 में मुंबई आ गए। यहां उन्हें कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। रातें फुटपाथ पर सोकर गुजारनी पड़ी। इसी दौरान नौशाद की मुलाकात निर्माता कारदार से हुई, जिनकी सिफारिश पर उन्हें संगीतकार हुसैन के यहां 40 रुपये महीने पर पियानो बजाने का काम मिला। इसके बाद संगीतकार खेमचंद प्रकाश के सहयोगी के रूप में नौशाद काम करने लगे।

चंदूलाल शाह की फिल्म के लिए नौशाद ने एक ठुमरी 'बता दे कोई कौन गली गए श्याम' को संगीतबद्ध किया, लेकिन किसी कारण से फिल्म बन नहीं पाई। नौशाद की बतौर संगीतकार पहली फिल्म 'प्रेमनगर' (1940) थी। 1944 की फिल्म 'रतन' का गीत 'अंखियां मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना' खूब मशहूर हुआ और यहीं से नौशाद के सफल करियर की शुरुआत हुई।

नौशाद ने 'आन', 'मदर', 'इंडिया', 'अनमोल', 'घड़ी', 'बैजू बावरा', 'मुगल-ए-आजम', 'शाहजहां', 'लीडर', 'संघर्ष', 'गंगा जमुना', 'आईना', 'पाकीजा', आदि कई बेहतरीन फिल्मों के मशहूर गीतों को अपने संगीत से सजाया।

नौशदा शायर भी थे और उनका दीवान 'आठवां सुर' नाम से प्रकाशित हुआ।

उनकी जन्मभूमि लखनऊ हमेशा उनके दिल में बसी रही। इसे उनके द्वारा रची गई इन पंक्तियों से समझा जा सकता है, "रंग नया है, लेकिन घर ये पुराना है, ये कूचा जाना पहचाना है, क्या जानें क्यों उड़ गए पंछी पेड़ों से भरी बहारों में, गुलशन वीराना है।"

साल 1946 की बात है, नौशाद ने एक दिन कारदार स्टूडियो के पास स्थित एक टेलाफोन बूथ से किसी को फोन कर रहे थे, तभी वहां से एक युवती अपने धुन में गुनगुनाते हुए गुजरी। वह कोई और नहीं, लता मंगेशकर थीं। नौशाद ने लता से बात की और आने वाली फिल्म 'चांदनी' के लिए उन्हें ऑडिशन टेस्ट देने के लिए बुला लिया। झमाझम बारिश में हाथों में छाता लिए सफेद साड़ी पहने दुबली-पतली युवती लता ऑडिशन देने जा पहुंचीं।

नौशाद ने लता की प्रतिभा को पहचान लिया था। लता की कमजोर उर्दू को संवारने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। रफी को भी उन्होंने ही मौका दिया था। लता और रफी आगे चलकर हिंदी सिनेमा में गायन क्षेत्र के 'कोहिनूर' साबित हुए।

नौशाद ने ही गायिका सुरैया, संगीतकार मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूंनी और उमादेवी को फिल्म उद्योग में स्थापित किया। इस संगीतकार को पैसों से ज्यादा अपने संगीत और उसकी गुणवत्ता से प्यार था।

एक बार की बात है, जब नौशाद हारमोनियम पर संगीत का रियाज कर रहे थे, उसी दौरान 'मुगल-ए-आजम' के संगीतकार के रूप में नौशाद को अनुबंधित करने के लिए के. आसिफ उनके घर पहुंचे। उन्होंने हारमोनियम बजा रहे नौशाद के ऊपर नोट की गड्डिया फेंक दीं, जिससे नौशाद भड़क गए। काफी मान-मन्नौवल करने पर नौशाद 'मुगल-ए-आजम' में संगीत देने के लिए राजी हुए। 'जब प्यार किया तो डरना क्या' सहित इस फिल्म के सभी गीत आज भी लोगों की जुबां पर हैं।

उन्होंने पाश्र्वगायन के क्षेत्र में साउंड मिक्सिंग और गाने की रिकॉर्डिग को अलग रखा। मुगल-ए-आजम के गीत 'प्यार किया तो डरना क्या' में ईको लाने के लिए नौशदा ने लता से बाथरू म में गंवाया था।

नौशाद फिल्मफेयर पुरस्कार पाने वाले पहले संगीतकार थे। 'बैजू बावरा' (1952) के लिए उन्हें इस पुरस्कार से नवाजा गया, लेकिन अफसोस कि इसके बाद उन्हें अन्य किसी फिल्म के लिए यह पुरस्कार नहीं मिला।

हिंदुस्तानी संगीत को बढ़ावा देने के लिए नौशाद ने महाराष्ट्र सरकार से संगीत अकादमी खोलने के लिए जमीन देने का आग्रह किया था, जिसे स्वीकार कर लिया गया। 'नौशाद एकेडमी ऑफ हिंदुस्तानी संगीत' में आज भी नई प्रतिभाएं तराशी जाती हैं।

नौशाद ने टीवी शो 'द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान' और 'अकबर द ग्रेट' के लिए भी संगीत दिया था। वर्ष 2005 में आई अकबर खान की फिल्म 'ताजमहल : एन एटर्नल लव स्टोरी' उनके संगीत से सजी आखिरी फिल्म थी। इस फिल्म के सफल न होने से वह काफी दुखी हुए थे।

मुंबई में पांच मई, 2006 को नौशाद का इंतकाल हो गया। महान संगीतकार आज भले हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके संगीत से सजे गीत अमर हैं और उनका संगीत भी। नौशाद को उनके जन्म दिवस पर शत शत नमन!