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सत्ता संभालने के बाद क्या पाकिस्तानी सेना के 'कठपुतली' नहीं बनेंगे इमरान खान ?

चूहों और इंसानों की सबसे अच्छी तरह से बनाई गई योजना भी विफल हो सकती है। पाकिस्तान के आम चुनाव में यह कथन फिट बैठता नजर आ रहा है।

Updated on: 26 Jul 2018, 08:11 PM

नई दिल्ली:

चूहों और इंसानों की सबसे अच्छी तरह से बनाई गई योजना भी विफल हो सकती है। पाकिस्तान के आम चुनाव में यह कथन फिट बैठता नजर आ रहा है। 

अगर पाकिस्तानी सेना चाहती है कि पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के नेता इमरान खान चुनावों में पूर्ण बहुमत हासिल करें तो लग रहा है कि उसे निराश होना पड़ेगा। पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी को बहुमत हासिल न कर पाने की स्थिति में गठबंधन करना पड़ेगा जिससे देश में मौजूदा उथल-पुथल की स्थिति और अधिक जटिल होगी।

चूंकि इमरान अपने प्रतिद्वंद्वी नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग और बिलावल भुट्टो की पीपुल्स पार्टी के साथ सरकार बनाने के लिए तैयार नहीं हो सकते, इसलिए उन्हें निर्दलीय उम्मीदवारों पर आश्रित रहना पड़ेगा।

लेकिन, एक ऐसे व्यक्ति के लिए जिसके पास शासन का कोई अनुभव नहीं है, एक खिचड़ी सरकार को देश की असंख्य समस्याओं जैसे कमजोर अर्थव्यवस्था, बिजली-पानी की किल्लत और सबसे बढ़कर आतंकवाद, जो पाकिस्तान को दुनिया की आंखों में निम्न स्तर तक ले गया है, के जवाब खोजने में बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ेगा।

जिहादियों के लिए तथाकथित सॉफ्ट कॉर्नर रखने का आरोप लगाकर इमरान के आलोचक उन्हें तालिबान खान के नाम से बुलाते हैं। क्या इमरान के लिए ऐसी कोई स्थिति है? अगर वह 26 नवंबर, 2008 के मुंबई आतंकवादी हमले के मास्टरमाइंड हाफिज मोहम्मद सईद को अपने समर्थकों में चाहते थे तो वह यह जानकर निराश हुए होंगे कि हाफिज सईद की अल्लाह-ओ-अकबर पार्टी को चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा है। पाकिस्तानी आवाम ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है।

अल्लाह-ओ-अकबर पार्टी पार्टी की यह विफलता पाकिस्तान की जनता के उस रुझान की फिर से पुष्टि कर रही है कि वह कथित इस्लाम-पसंद पार्टियों से चुनाव में दूर रहती है और उन्हें संसद से दूर रखती है। उदाहरण के लिए कट्टर जमात-ए-इस्लामी ने 2013 के चुनावों में मात्र दो फीसदी वोट हासिल किए थे। इस तरह पाकिस्तानी सेना की आतंकवादियों को 'मुख्यधारा में' लाने की उम्मीद धराशाई हो गई है।

सईद की चुनावों में हार को एक संकेत के रूप में देखा जा सकता है कि पाकिस्तान का दिल सही जगह पर है। यह भारतीयों को हमेशा दिखाई नहीं देता और इसकी वजह भारत-विरोधी सेना और इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के संरक्षण में पाकिस्तान का आतंकवादियों की पनाहगाह बने रहना रहा है। इमरान खान ने हालांकि मुंबई में 26/11 हमले को पाकिस्तान से जोड़ने की नवाज शरीफ की बात की आलोचना की थी लेकिन इससे हाफिज सईद को कोई खास फायदा नहीं हुआ।

पाकिस्तान की सेना विदेश और घरेलू मामलों में भी अपना नियंत्रण बनाए रखती है लेकिन दुनिया को बताने के लिए कि देश का राजनीतिक परिदृश्य बेहतर है, वह एक नागरिक सरकार व शासनाध्यक्ष के पक्ष में है। इमरान गठबंधन प्रमुख बनकर उसकी इस जरूरत को भले पूरा कर दें लेकिन पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज की आलोचनाओं ने उनके कदम बांध दिए हैं।

ऐसे में सेना के लिए यह चिंता वाली बात हो सकती है कि इमरान किस हद तक एक 'कठपुतली' साबित हो पाएंगे? क्या राजनीति में उतरे क्रिकेट के जांबाज खिलाड़ी जिन पर उनकी एक पूर्व पत्नी ने नशे का आदी होने का आरोप लगाया था, वह सेना द्वारा उनके लिए लिखी गई पटकथा का पालन करेंगे?

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यह माना जाता है कि एक बार जब कोई व्यक्ति सत्ता तक पहुंच जाता है तो वह खुद अपने दिमाग से संचालित होना शुरू हो जाता है। इमरान के अत्यधिक अभिव्यक्तिपूर्ण और चमकदार व्यक्तित्व को ध्यान में रखते हुए यह विश्वास करना मुश्किल है कि वह हर समय सेना की 'कठपुतली' बनकर रह सकेंगे। खासकर जब विश्व के नेताओं के साथ उनकी बातचीत में उन्हें बताएगा जाएगा कि पाकिस्तान की वह प्रतिष्ठा नहीं है जो वे समझते हैं और आतंकवाद पर भारत का रुख व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है। 

भारत को अपनी पश्चिमी सीमा में आए इस नए बदलाव के साथ ध्यान से चलना होगा। इमरान को सेना और आतंकवादियों का मित्र बताकर खारिज कर देना सही नहीं होगा। भले ही, कश्मीर पर उनकी बातें उन्हें उग्र रूप में पेश करती हों लेकिन इस तरह की बातें घरेलू राजनीति के दबाव में भी हो सकती हैं ना कि लंबे समय के परिप्रेक्ष्य में इन्हें कहा गया हो। भारतीय विदेश मंत्रालय में पाकिस्तान डेस्क को अपने विकल्पों और पत्तों को अभी संभालकर रखने की जरूरत है।

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(अमूल्य गांगुली टिप्पणीकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं)