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मां और बेटी के मिलन के परिचायक हैं उत्तराखंड के यह धार्मिक और सांस्कृतिक मेले

उत्तराखंड में मेलों और धार्मिक त्योहारों की संस्कृति का बड़ा अनूठा संगम रहा है. ये मेले उत्तराखंड की संस्कृति के परिचायक हैं.

Updated on: 05 Sep 2019, 12:19 PM

देहरादून:

उत्तराखंड में मेलों और धार्मिक त्योहारों की संस्कृति का बड़ा अनूठा संगम रहा है. ये मेले उत्तराखंड की संस्कृति के परिचायक हैं. इनके बिना रंगीलो कुमाऊं और छबीलो गढ़वाल की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती है. चैत्र मास के साथ ही उत्तराखंड में इन मेलों की शुरुआत हो जाती है. यह मेले धार्मिक ,संस्कृति और व्यापारिक महत्व वाले हैं. इन मेलों में शिरकत करने के लिए सिर्फ प्रदेशभर ही नहीं बल्कि देश और विदेश से भी लोग प्रतिभाग करने पहुंचते हैं. लेकिन संस्कृति के प्रसार के साथ इन मेलों का सबसे बड़ा योगदान लोगों का मिलन कराना भी है. किसी जमाने में यह मेले ही मनोरंजन का साधन हुआ करते थे. जब आधुनिक समय की तरह सोशल मीडिया, फिल्म और मनोरंजन नहीं था. उस दौरान लोग इन्हीं मेलों के जरिए अपना मनोरंजन किया करते थे. मेलों की तैयारी कई महीनों से शुरू हो जाती थी. दूर-दूर से व्यापारी इन मेलों में अपनी दुकानें लगाने पहुंचते थे. जिससे यह साबित होता है कि व्यापार की दृष्टि से भी यह मेले शुरुआत से ही बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं.

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उत्तराखंड के धार्मिक मेलों में सबसे दिलचस्प बात यह है की मेलों के दौरान अपने गांव को छोड़ शहरों में रहने वाले लोग गांव की ओर लौटने लगते हैं. सूने पड़े गांव में अगले कुछ दिनों के लिए रौनक लौटने लगती है. इस दौरान गांव की बेटियां भी वापस मायके आने लगती हैं. कहा जाए तो यह मेले मां बेटी के मिलन भी कराते हैं. क्योंकि मेले के दौरान अक्सर मां बेटियों का मिलन होता है. मेलों के मौके पर मां अपनी बेटियों के लिए अपनी ओर से भेंट और साज सज्जा का सामान लेकर पहुंचती हैं. क्योंकि आज मेले में उसकी मुलाकात अपनी बेटी से भी होगी और ऐसे में मेले के आनंद के साथ बेटी के मिलन का मौका भी है. बेटियां अपने मां और परिजनों से मिलने के लिए खुशी-खुशी इन मेलों में पहुंचती हैं. इन मेलों में पहुंचने के लिए महिलाएं काफी लंबे समय से तैयारियां करती हैं. क्योंकि यह मेले ही उनकी मनोरंजन का साधन भी है. भले ही अब गांव में मोबाइल और टीवी के जरिए मनोरंजन किया जाने लगा है, लेकिन एक समय ऐसा था जब महीनों के इंतजार के बाद इस तरह के धार्मिक मेलों मैं प्रतिभाग महिलाएं बड़ी खुशी के साथ करती थी. मेलों के दौरान कई महिलाएं अपनी बेटियों के लिए महीनों से रखे घी के डिब्बे अनाज की टोकरी और फल लेकर पहुंचती थीं. क्योंकि उस दौरान यह मेले ही थे, जब मां अपनी बेटी की कुशलक्षेम पूछती थी और उसके लिए बड़े प्यार से उपहार लेकर आती थी.

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उत्तराखंड के मेलों का अलग-अलग क्षेत्रों में भी बड़ा योगदान है. उत्तराखंड में पिथौरागढ़ का जौलजीबी मेला सबसे पुराने मेलों में शामिल है. 1914 में इस मेले की शुरुआत हुई थी. जिसमें तिब्बत, नेपाल और भारत तीनों ही देशों के लोग प्रतिभाग किया करते थे. सामान का आदान-प्रदान तो होता ही था, साथ ही संस्कृति का भी आदान-प्रदान होता था. तिब्बत के लोग ऊन से बने सामान और नमक का व्यापार पिथौरागढ़ के जौलजीबी स्थान पर करने के लिए आते थे. पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय से 68 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जौलजीबी में यह मुख्य मेला आयोजित किया जाता था. जो व्यापार की दृष्टि से बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद इसमें केवल नेपाल द्वारा ही प्रतिभाग किया जाता है. चीन के तिब्बत पर कब्जे के बाद तिब्बत के लोग अब मेले में प्रतिभाग नहीं करते हैं. पहले के समय में इस मेले में वस्तु विनिमय यानी बाटर इकोनॉमी का प्रचलन था. हालांकि अब नेपाल और भारत मुद्रा लेनदेन के जरिए इस मेले में प्रतिभाग करते हैं.

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चमोली का गोचर मेला और बागेश्वर का उत्तरायणी मेला यह दोनों मेले भी संस्कृति और व्यापार दोनों का सम्मिश्रण है. क्योंकि इन दोनों मेलों के जरिए लोक संस्कृति के साथ-साथ अपने व्यापार को भी आगे बढ़ा सकते थे. आज भी इन दोनों मेलों में लोग बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं और इनकी आयोजन के लिए कई महीनों से तैयारियां की जाती हैं. दूर-दूर से लोग अपना सामान बेचने के लिए बागेश्वर और गोचर मेलों में पहुंचते हैं. उत्तरकाशी का माघ मेला श्रीनगर का बैकुंठ चतुर्दशी मेला भी संस्कृति के आदान-प्रदान का बड़ा परिचायक है. इन्हीं मेलों के जरिए उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल अंचलों की संस्कृति को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है.

कुमाऊं और गढ़वाल की संस्कृति को जोड़ने का सबसे बड़ा पर्व है नंदा देवी महोत्सव. हर 12 साल में नंदा राजजात का आयोजन होता है, जिसमें कुमाऊं और गढ़वाल की संस्कृति का मिलन होता है. लेकिन हर साल गढ़वाल में नंदा लोग जात होती है, जिसकी शुरुआत कुरुड़ से होती है. सप्तमी के दिन चमोली के बेदनी बुग्याल में मेले के साथ समाप्ति होती है. वही कुमाऊं में नंदा सुनंदा के मेलों मैं सप्तमी और अष्टमी का बड़ा महत्व है, नैनीताल भवाली अल्मोड़ा और कोट भ्रामरी गरुड़ मैं नंदा अष्टमी के मेले बड़े उत्साह के साथ आयोजित किए जाते हैं. नंदा अष्टमी के दिन कुमाऊं में मां नंदा की डोली का पवित्र नदियों में विसर्जन किया जाता है.

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