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शिवपाल की कमजोरी में खुद की मजबूती देख रही सपा

लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) की करारी हार के बाद उम्मीद की जा रही थी कि मुलायम सिंह यादव का परिवार फिर से एकजुट हो सकता है और अखिलेश अपने चाचा शिवपाल से मधुर संबंध बनाने की चेष्टा करेंगे.

Updated on: 15 Sep 2019, 10:41 AM

लखनऊ:

लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) की करारी हार के बाद उम्मीद की जा रही थी कि मुलायम सिंह यादव का परिवार फिर से एकजुट हो सकता है और अखिलेश अपने चाचा शिवपाल से मधुर संबंध बनाने की चेष्टा करेंगे. मगर, इस दिशा में कोई प्रयास करने के बजाए सपा ने दलबदल कानून के तहत शिवपाल सिंह यादव की विधानसभा सदस्यता रद्द करने के लिए विधानसभा में याचिका लगा दी है. वहीं, नरेश अग्रवाल के बेटे नितिन अग्रवाल पर पार्टी चुप है, जबकि नितिन अब भाजपा का दामन थाम चुके हैं. राजनीतिक गलियारों में अब चर्चा यह होने लगी है कि शिवपाल को कमजोर करके सपा अपना बेस वोट बचाने की कोशिश कर रही है.

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शिवपाल ने लोकसभा चुनाव के दौरान ही सपा छोड़ दी थी, लेकिन सपा ने उस समय उनकी विधानसभा सदस्यता खत्म कराने को लेकर कोई पहल नहीं की थी. तब माना जा रहा था कि आगे चल कर चाचा -भतीजे में सुलह हो सकती है. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. साफ है कि अब यादव वोट बैंक पर वर्चस्व की लड़ाई में सपा को शिवपाल की पार्टी से जूझना होगा और इसको लेकर मुलायम परिवार में खटास और बढ़ेगी. उपचुनाव में प्रसपा की नामौजूदगी का फायदा अब किसे होगा, यह तो बाद में पता चलेगा.

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राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि शिवपाल यादव ने लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को चुनाव मैदान में उतार कर अपनी ताकत दिखाने का प्रयास किया था, लेकिन वह सफल नहीं हुए. वह सिर्फ वोट कटवा साबित हुए. इसी कारण सपा फिरोजाबाद की अपनी परंपरागत सीट हार गई.

सपा के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि "शिवपाल को अब पार्टी में रखने से कोई फायदा नहीं है. उन्हें कमजोर करने से उनके साथ लगे जमीनी यादव नेता उनसे टूट कर सपा के पाले में आ जाएंगे. इससे उपचुनाव में पार्टी को फायदा होगा. हालांकि ज्यादातर लोग समझ गए हैं कि शिवपाल सपा के बगैर कुछ नहीं है. वह समय-समय पर सपा को डेंट ही करते रहे हैं. ऐसे में उनकी सदस्यता छीनकर उन्हें कमजोर करना जरूरी है."

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राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल का कहना है, "शिवपाल सपा से अलग होने के बाद अपना राजनीतिक करियर कांग्रेस में देख रहे थे. कांग्रेस में उनके जाने की खूब चर्चा भी थी. लेकिन लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के हाशिये पर चले जाने के बाद वह अकेले पड़ गए. लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा ने भी शिवपाल को महत्व देना कम कर दिया है."

उन्होंने कहा, "अखिलेश और मुलायम दोनों समझ गए हैं कि शिवपाल के पास अब न कांग्रेस में जाने का रास्ता है और न भाजपा में ही. ऐसे में अब उन्हें कमजोर करके ही सपा मजबूत हो सकती है. उनके साथ जुड़े यादव वोट सपा अपने पाले में ले सकती है."

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रतनमणि ने कहा, "जो नेता अपने बलबूते राजनीति में मजबूत होता है, उसके कमजोर होने पर उसका वोट बैंक अपने आप ही छिटक जाता है. प्रदेश में ऐसे कई उदाहरण हैं. राजा भैया, अजीत सिंह, चन्द्रशेखर, शारदानंद अंचल जैसे लोग अपने-अपने वोट बैंक पर राजनीति करते थे. इनके कमजोर होने पर इनका वोट बैंक छिटक गया. इसी कारण सपा शिवपाल को कमजोर करने का प्रयास कर रही है."

एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक राजकुमार कहते हैं, "लोकसभा चुनाव के बाद शिवपाल सपा में आना चाहते थे, लेकिन अखिलेश उन्हें किसी भी कीमत पर पार्टी में शामिल करने को तैयार नहीं थे. दरअसल शिवपाल को लेने के बाद अखिलेश का सिरदर्द और बढ़ जाता."

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उन्होंने कहा, "अखिलेश अब चाहते हैं कि शिवपाल को लेकर कार्यकर्ताओं में कोई कनफ्यूजन न रहे, इसीलिए उनकी विधायकी पर उन्होंने अर्जी डाल दी है. शिवपाल ने लगातार हमले करके अखिलेश को नुकसान ही पहुंचाया है. ऐसे में उनकी सदस्यता खत्म करके कार्यकर्ताओं को भी संदेश देना है कि कोई ऊहापोह की स्थिति न रहे और पार्टी के लोग शिवपाल के खिलाफ भी हमला बोल सकें."