यहां मौत के बाद लोगों की देखभाल कर रहा यह संगठन
आज कल की भाग दौड़ भारी जिंदगी में जिनका कोई नहीं होता है और मरने के बाद जिन्हें चार कंधे मुश्किल से मिलते हैं वहीं लावारिस शव को कौन पूछता है. लेकिन हजारीबाग में कहानी दूसरी है. सड़क पर पड़े किसी लावारिश शव की दुर्गति देख कर हजारीबाग के खालिद और तापस चक्रवर्ती को ये ख्याल आया की इनके लिए कुछ किया जाए.
झारखंड/दुमका:
दुनिया में कई सामाजिक संगठन है ऐसे हैं जो लोगों को बेहतर ज़िन्दगी देने की कोशिश में लगे रहते हैं. लेकिन ऐसे कम ही लोग होंगे जो जिंदगी के बाद भी उनके अंतिम क्रिया-क्रम कराने का भी जिम्मा लेते हैं. आज कल की भाग दौड़ भारी जिंदगी में जिनका कोई नहीं होता है और मरने के बाद जिन्हें चार कंधे मुश्किल से मिलते हैं वहीं लावारिस शव को कौन पूछता है. लेकिन हजारीबाग में कहानी दूसरी है. सड़क पर पड़े किसी लावारिश शव की दुर्गति देख कर हजारीबाग के खालिद और तापस चक्रवर्ती को ये ख्याल आया की इनके लिए कुछ किया जाए. फिर शुरू हुआ देश के शायद पहले ऐसे 2 लोगों का समूह जो लावारिस शवों को उनके धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करता हो.
इस पुनीत काम में इन्हें पहले बड़ी आलोचना सुन्नी पड़ी लेकिन फिर समय बदला और आज जिले में कहीं भी शव मिले तो सबसे पहले खालिद भाई का मोबाईल बजता है. ये केवल लावारिस शवों को ही दफनाते या जलाते नहीं हैं बल्कि अगर किसी की दुर्घटना में मौत हो जाए और उसके परिजनों को आने में वक्त लग जाए तो ये उन शवो को भी संभल कर रखते हैं और परिज़नो को शव के साथ उनके घर तक पहुंचाने में मदद भी करते हैं. वहीं इस सब के लिए ये कोई शुल्क भी नहीं लेते.
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जानकारी देते हुए मुर्दा कल्याण संघ के सदस्य खालिद ने बताया कि शुरूआती दिनों में 2 लोगों से शुरू हुआ यह समूह आज थोडा बड़ा होकर आधे दर्जन लोगों का हो गया है. ये सारे खर्चे खुद उठाते हैं कई बार कई लोगों ने मदद करनी चाही लेकिन इनलोगों ने स्नेह के साथ मना कर दिया पिछले 10 सालों से यहां यह काम अनवरत जारी है. साल में दो बार मृतकों की अस्थियां बनारस में प्रवाहित की जाती हैं और कुरानखानी पढ़ी जाती हैं.
मुर्दा कल्याण संघ के ही सदस्य तापस चक्रवर्ती ने कहा कि आज हजारीबाग का हर शख्स इनके काम की तारीफ करता है. इन लोगों ने सालों से सड़ रही रांची के रिम्स में रखी शवो को भी पिछले साल अंतिम संस्कार किया है और इस वर्ष भी इन्हें रांची जाकर उनका अंतिम संस्कार करना है. इनका कहना है की हर जिले में कुछ लोगों का समूह होना चाहिए जो ऐसे काम करे ताकि कोई शव लावारिश ना कहलाएं और शवों को चार कंधे नसीब हो सकें.
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