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कालबेलिया नृत्य सीखने के लिए मधु बनी जापान की मयूमी

जापान की मयूमी भी कालबेलिया नृत्य की फैन है जिसने अपनी नौकरी छोड कर इसे सीखा और आज जापान में दूसरों को सीखा रही है.

Updated on: 14 Feb 2019, 12:33 PM

नई दिल्ली:

राजस्थान में कालबेलिया नृत्य सपेरा जाति से जुड़ा है. इस जाति की महिलाएं काले कपडों में यह नृत्य करती है। आज यह नृत्यु सात समुंदर पार बडी ख्याति अर्जित कर चुका है जिसके चलते विदेशी भी यह सीखने भारत आते हैं. जापान की मयूमी भी कालबेलिया नृत्य की फैन है जिसने अपनी नौकरी छोड कर इसे सीखा और आज जापान में दूसरों को सीखा रही है. मयूमी साल में दो बार अपनी गुुरु आशा सपेरा के पास सीखने आती है.

मयूमी ने 2008 में फ्रेंच डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'लच्चो द्रोम' (सुरक्षित यात्रा) देखी, जो रोमन लोगों की उत्तर-पश्चिमी भारत से लेकर स्पेन तक की यात्रा की कहानी है. फिल्म में कालबेलिया नृत्य के बारे में भी दिखाया गया. यहीं से शुरू हुआ मयूमी का कालबेलिया से लगाव. वो इस नृत्य से इतनी प्रभावित हुईं कि 2012 में इसे जानने-समझने के लिए भारत आ गईं.

इसी दौरान जोधपुर की कालबेलिया डांसर आशा कालबेलिया का वीडियो देखा और वह प्रभावित हुई. उसने ने फेसबुक से आशा से संपर्क किया और पहली बार 2015 में डांस सीखने जोधपुर आ गईं. तब से लेकर वे हर साल दो बार सिर्फ कालबेलिया सीखने भारत आती हैं और इन दिनों जोधपुर आई हुई हैं.

मयूमी ने बताया, वे इन दिनों कई राजस्थानी गाने भी सीख रही हैं, जिससे डांस स्टेप्स आसानी से सीखे जा सके. कॉर्पोरेट कंपनी में जॉब करने वाली मयूमी आजकल जापान के दो शहरो टोक्यो और सपोरो में कालबेलिया डांस की क्लास ले रही हैं. अब तक 50 से भी ज्यादा जापानियों को सीखा भी चुकी हैं.

अब नृत्य के साथ साथ उसने राजस्थानी गाने गाना भी शुरू कर दिया है. जिसे सुनकर यह अंदाजा लगाना मुश्क्लि है कि यह कोई वीदेशी गले से निकले शब्द है. सबसे अचरज की बात यह है कि मयूमी का नाम भी यहां मधु कर दिया गया है.

मयूमी की गुरु आशा का मानना है कि उसमें सीखने की जबरदस्त लगन है जिसकी वजह से वह लगातार यहां आ रही है.  खुद आशा तीन साल इटली में रह कर पूरे यूरोप में अपनी प्रस्तुतियां दे चुकी है. आशा बताती है कि उसके पास मयूमी के अलावा भी कई स्टूडेंट है जिन्हें वह जब भी उन देशों में जाति है तो प्रशिक्षण देती है.

कला और संस्कृती की कोई सीमाएं नहीं होती है। मयूमी और आशा को देखकर यह इस बात को मानना ही पडता है. खास बात यह है कि कभी खाना बदहोश जीवन जीने वाली कालबेलिया जाति की यह कला विदेशों में सिर्फ मनोरंजन का साधन थी, अब विदेशी खुद भी इसे सीखने लगे हैं.