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नेताजी और आजाद हिंद फौज का ऐसा रहा सफरनामा, डरते थे अंग्रेज

जापान में रह रहे आजाद हिंद फौज के संस्थापक रासबिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को सिंगापुर में नेताजी को आजाद हिंद फौज की कमान सौंप दी.

Updated on: 21 Oct 2019, 04:57 PM

highlights

  • गांधीजी से वैचारिक मतभेद के बाद नेताजी ने छोड़ी कांग्रेस.
  • सिंगापुर में संभाली थी आजाद हिंद फौज की कमान.
  • आजाद हिंद फौज ने पहली बार देश में 1944 में झंडा फहराया.

New Delhi:

अगर स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस और गांधी ने एक समय साथ-साथ अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलनों में हिस्सा लिया था. यह अलग बात है कि 1939 में गांधी से वैचारिक मतभेदों के चलते सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस से अलग हो गए और उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की. इस अलगाव की वजह भी सोच में जमीन-आसमान का अंतर था. नेताजी का मानना था कि अंग्रेज दूसरे विश्व युद्ध में फंसे हुए हैं और ऐसे में राजनीतिक अस्थिरता का फायदा उठाते हुए देश की आजादी के प्रयास किए जाने चाहिए. इसके विपरीत गांधीजी या कहें उनसे प्रभावित नेताओं का मानना था कि युद्ध की समाप्ति पर अंग्रेज खुद-ब-खुद भारत को आजादी दे देंगे.

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सिंगापुर में संभाली आजाद हिंद फौज की कमान
यह वह दौर था जब गांधी ने भारतीयों से ब्रिटिश सेना में शामिल हो दूसरे विश्व युद्ध में मित्र सेना की ओर से लड़ने का आह्वान किया था. इस विचार के सख्त खिलाफ थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस. उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध में भारत के शामिल होने का जोरदार विरोध किया था. ऐसे में घबराए अंग्रेज हुक्मरानों ने उन्हें जेल में ठूंस दिया. वहां नेताजी ने भूख हड़ताल कर दी. इससे और भी घबराए अंग्रेजों ने उन्हें जेल से निकालकर उनके ही घर में नज़रबंद कर दिया. इस नजरबंदी के दौरान ही सुभाष चंद्र बोस जर्मनी भाग गए. वहां युद्ध का मोर्चा देखा और युद्ध लड़ने का प्रशिक्षण लिया. जर्मनी में रहने के दौरान जापान में रह रहे आजाद हिंद फौज के संस्थापक रासबिहारी बोस ने आमंत्रित किया और 4 जुलाई 1943 को सिंगापुर में नेताजी को आजाद हिंद फौज की कमान सौंप दी. आजाद हिंद फौज में 85000 सैनिक शामिल थे और कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन के नेतृत्व वाली महिला यूनिट भी थी.

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नेताजी ने बनाई आजाद हिन्द सरकार
इसके बाद सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार 'आज़ाद हिन्द सरकार' बनाई जिसे जर्मनी, जापान, फिलिपींस, कोरिया, चीन, इटली, आयरलैंड समेत नौ देशों ने मान्यता भी दी. इसके बाद सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज को और शक्तिशाली बनाने पर ध्यान केंद्रित किया. पहले इस फौज में उन भारतीय सैनिकों को लिया गया था, जो जापान की ओर बंदी बना लिए गए थे. बाद में इसमें बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवक भी भर्ती किए गए.इसके साथ ही फ़ौज को आधुनिक युद्ध के लिए तैयार करने की दिशा में जन, धन और उपकरण जुटाए. आज़ाद हिंद की ऐतिहासिक उपलब्धि ही थी कि उसने जापान की मदद से अंडमान निकोबार द्वीप समूह को भारत के पहले स्वाधीन भूभाग के रूप में हासिल कर लिया. इस विजय के साथ ही नेताजी ने राष्ट्रीय आज़ाद बैंक और स्वाधीन भारत के लिए अपनी मुद्रा के निर्माण के आदेश दिए. इंफाल और कोहिमा के मोर्चे पर कई बार भारतीय ब्रिटेश सेना को आज़ाद हिंद फ़ौज ने युद्ध में हराया.

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1944 में ही फहरा दिया था तिरंगा
आजाद हिंद फौज के सदस्यों ने पहली बार देश में 1944 को 19 मार्च के दिन झंडा फहराया दिया. कर्नल शौकत मलिक ने कुछ मणिपुरी और आजाद हिंद के साथियों की मदद से माइरंग में राष्ट्रीय ध्वज फहराया था. 6 जुलाई 1944 को नेताजी ने रंगून रेडियो स्टेशन से गांधी जी के नाम जारी एक प्रसारण में अपनी स्थिति स्पष्ट की और उनसे मदद मांगी. 21 मार्च 1944 को 'चलो दिल्ली' के नारे के साथ आजाद हिंद फौज का हिन्दुस्थान की धरती पर आगमन हुआ. आजाद हिंद फौज एक 'आजाद हिंद रेडियो' का इस्तेमाल करती थी, जो लोगों को आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित करती थी. इस पर अंग्रेजी, हिंदी, मराठी, बंगाली, पंजाबी, पाष्तू और उर्दू में खबरों का प्रसारण होता था.

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आजाद हिंद फौज से डरी ब्रिटिश हुकूमत
हालांकि जर्मनी और इटली की हार के साथ ही 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया. युद्ध में लाखों लोग मारे गए. जब यह युद्ध ख़त्म होने के क़रीब था तभी 6 और 9 अगस्त 1945 को अमरीका ने जापान के दो शहरों- हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरा दिए. इसमें दो लाख से भी अधिक लोग मारे गए. इसके फौरन बाद जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया. जापान की हार के बाद बेहद कठिन परिस्थितियों में फ़ौज ने आत्मसमर्पण कर दिया और फिर सैनिकों पर लाल क़िले में मुक़दमा चलाया गया. जब यह मुक़दमा चल रहा था तो पूरा भारत भड़क उठा और जिस भारतीय सेना के बल पर अंग्रेज़ राज कर रहे थे, वे विद्रोह पर उतर आए. यही ब्रिटिश शान की ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ. अंग्रेज़ अच्छी तरह समझ गए कि राजनीति व कूटनीति के बल पर राज्य करना मुश्किल हो जाएगा. उन्हें भारत को स्वाधीन करने की घोषणा करनी पड़ी."