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अंग्रेजों ने गांधी नहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस के 'डर' से दी थी भारत को आजादी

अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का फैसला गांधी के किसी आंदोलन से नहीं, वरन नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज के 'डर' से लिया था.

Updated on: 21 Oct 2019, 05:00 PM

highlights

  • क्लीमेंट एटली ने कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस के सामने खोले थे कई राज.
  • अंग्रेजों के जाने के पीछे नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज का रहा डर.
  • क्लीमेंट ने स्वतंत्रया प्राप्ति में गांधी के योगदान को बताया 'मामूली'.

New Delhi:

तथ्यों के साथ छेड़छाड़ कर स्वतंत्रता आंदोलन को महज गांधी-नेहरू के इर्द-गिर्द दर्ज कराने के कांग्रेस के नेताओं को इरादों का राजफाश अब ऐतिहासिक घटनाओं पर केंद्रित किताबें ही करने लगी हैं. इनकी मदद कर रहे हैं आजाद भारत में नेताजी से जुड़े गोपनीय दस्तावेज, जो मोदी सरकार में एक हद तक अब सार्वजनिक किए जा चुके हैं. आजाद हिंद फौज के स्थापना दिवस पर ऐसे में इतिहासकार रंजन बोरा, जनरल जीडी बख्शी और नेताजी पर गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजनिक कराने की लंबी लड़ाई लड़ने वाले पत्रकार-लेखक अनुज धर की किताबों से ही इस बात की बहस नए सिरे से खड़ी होती है कि आधुनिक भारत के इतिहास को नए सिरे से लिखने की जरूरत है. खासकर अंग्रेजी शासन से आजादी में किसकी भूमिका बड़ी रही, यह तो नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत तो आन ही पड़ी है. यह जानने के बाद तो और भी कि अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का फैसला गांधी के किसी आंदोलन से नहीं, वरन नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज के 'डर' से लिया था.

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रंजन बोरा ने किया खुलासा
जनरल जीडी बख्शी की किताब 'बोसः एन इंडियन समुराई' और रंजन बोरा की 1982 में आई किताब के एक प्रसंग से नेताजी सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज का ब्रिटिश राज से आजादी दिलाने में योगदान स्पष्ट हो जाता है. इसमें भारत की आजादी के पत्र पर साइन करने वाले तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली और पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक गवर्नर और कलकत्ता हाई कोर्ट के जज जस्टिस पीबी चक्रवर्ती के बीच हुई बातचीत का ब्योरा दर्ज है. इसमें क्लीमेंट एटली ने स्पष्ट तौर पर ब्रिटिश हुक्मरानों पर उस दबाव का जिक्र किया गया था, जिसकी वजह से अंग्रेजों ने भारत को आजाद करने का मन पक्के तौर पर बना लिया था.

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एटली ने नेताजी को बताया भारत छोड़ने का कारण
इसमें जस्टिस पीबी चक्रवर्ती के हवाले से एक अध्याय ही लिखा गया है. इसके मुताबिक क्लीमेंट एटली आजाद भारत में अपने प्रवास के दौरान कलकत्ता राजभवन के अतिथि बतौर रुके थे. उस दौरान एटली और जस्टिस चक्रवर्ती की विभिन्न मसलों पर चर्चा हुई, जिसमें एक हिस्सा भारत की आजादी और जुड़े कारणों पर भी था. पीबी चक्रवर्ती ने इस बातचीत के दौरान एटली से दो-टूक पूछा था, 'जब कुछ समय पहले गांधी का अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन अपनी धार खो चुका था और जब अंग्रेज हुक्मरानों के लिए जल्दबाजी में भारत छोड़ने के लिए तात्कालिक कोई दबाव नहीं था, तो अंग्रेज हुक्मरानों ने भारत को बहुप्रतीक्षित आजादी देने का फैसला तुरत-फुरत क्यों किया?' इसके जवाब में क्लीमेंट एटली ने कई कारणों का हवाला दिया था, जिनमें ब्रिटिश राजशाही के प्रति निष्ठा में कमी आने के साथ-साथ एक बड़ा कारण सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज की वजह से अंग्रेज सेना में फूटते बगावत के अंकुर थे.

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गांधी का योगदान 'मामूली'
जस्टिस पीबी चक्रवर्ती सिर्फ इसी प्रश्न पर नहीं रुके थे. उन्होंने क्लीमेंट एटली से चर्चा को विराम देने से पहले एक आखिरी प्रश्न पूछा था, जो स्वाधीनता आंदोलन और उसमें प्रभावी भूमिका निभाने वाले नायक से संबंधित था. किताब में जस्टिस चक्रवर्ती लिखते हैं, 'भारत को आजादी देने या भारत छोड़ने से जुड़े अंग्रेज हुक्मरानों के निर्णय़ पर गांधी का किस हद तक प्रभाव था?' इसके जवाब में क्लीमेंट एटली ने एक ही शब्द बहुत चबा-चबा कर बोला था और वह मा-मू-ली (m-i-n-i-m-a-l) अंग्रेजों के भारत छोड़ने के कारणों पर इस बड़े रहस्योद्घाटन का पहला सार्वजनिक जिक्र या प्रकाशन इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टॉरिकल रिव्यू ने 1982 में किया था. क्लीमेंट एटली के इस रहस्योद्घाटन के बाद यह जानना बहुत जरूरी हो जाता है कि आखिर वह नेताजी और आजाद हिंद फौज को लेकर ऐसा क्यों सोचते थे. इसके लिए इतिहास की कुछ और गलियों में झांकना पड़ेगा.

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रेड फोर्ट ट्रायल ने लगाई आग
दूसरा विश्व युद्ध खत्म हो चुका था. ब्रिटेन और अमेरिका के नेतृत्व में मित्र सेना बाजी अपने नाम कर चुकी थी. जर्मनी के तानाशाह हिटलर की सेना को भारी पराजय का सामना करना पड़ा था. ऐसे में विजयी पक्ष पराजित सेना के बचे-खुचे अधिकारियों और उनके समर्थकों को 'न्याय की वेदी' पर चढ़ाना चाहती थी. इस कड़ी में भारत में आजाद हिंद फौज के अधिकारियों को गिरफ्तार कर उन्हें यातनाएं दी गई, राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया गया और अंततः कुछ को मौत के घाट उतार दिया गया. अंग्रेजों की इस पूरी 'कानूनी कवायद' को इतिहास में 'रेड फोर्ट ट्रायल' के नाम से जाना जाता था. यह अलग बात है कि इस मुकदमे से ब्रिटिश सशस्त्र सेना में भर्ती भारतीय सैनिकों के तन-बदन में आग लगा दी थी. फरवरी 1946 में रॉयल इंडियन नेवी में कार्यरत लगभग 20 हजार नौसैनिकों ने ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह कर दिया. इस विद्रोह से प्रेरित होकर रॉयल इंडियन एयर फोर्स और जबलपुर की ब्रिटिश सशस्त्र सेना में भी बगावत हो गई. इस बीच दूसरे विश्व युद्ध के बाद 2.5 लाख भारतीयों को ब्रिटिश सेना से हटा दिया गया था.

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ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों के खिलाफ भारतीय सैनिक
उस वक्त सैन्य खुफिया रिपोर्ट्स में इसको लेकर गंभीर चेतावनी दी गई थी. 1946 में अंग्रेज हुक्मरानों को भेजी गई इस गोपनीय रिपोर्ट में कहा गया था कि भारतीय सैनिक अंग्रेज सैन्य अधिकारियों का आदेश मानने को तैयार नहीं थे. उस समय ब्रिटिश सेना में महज 40 हजार गोरे थे और वे 2.5 लाख भारतीय सैनिकों से संघर्ष के लिए तैयार नहीं थे. ऐसे में अंग्रेजों के पास भारत को आजाद करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था. यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजों ने भारत पर शासन का विस्तार और उसके बाद उसे बरकरार रखने में इसी फौज का जबर्दस्त योगदान था. उसी ब्रिटिश सेना का मनोबल टूटा हुआ था. उधर आजाद हिंद फौज के अधिकारियों और सैनिकों के साथ अंग्रेज बर्बरता के खिलाफ भारतीय सैनिकों में जबर्दस्त रोष था. इस रोष की पराकाष्ठा का अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं कि अंग्रेजों के खिलाफ हिंदू-मुसलमान खाई भी पट गई थी. इसने अंग्रेजों को सबसे ज्यादा डराया था.