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Janmashtami Special: जानें कृष्ण की सबसे बड़ी भक्त मीरा बाई के बारे में, जिनकी भक्ति से विष भी अमृत बन गया

जब भी श्रीकृष्ण के भक्तों पर चर्चा होती है तो उसमें मीरा बाई का नाम सबसे ऊपर होता है

Updated on: 20 Aug 2019, 11:55 AM

नई दिल्ली:

जब भी भगवान श्री कृष्ण के परम भक्तों की बात होती है तो उसमें मीरा बाई का नाम जरूर आता है. एक ऐसी भक्त जिन्होंने अपना पूरा जीवन भगवान कृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया और यहीं वजह कि जब भी श्रीकृष्ण के भक्तों पर चर्चा होती है तो उसमें मीरा बाई का नाम सबसे ऊपर होता है.

मीरा बाई एक मध्यकालीन हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और कृष्ण भक्त थीं. वे भक्ति आन्दोलन के सबसे लोकप्रिय भक्ति-संतों में एक थीं. भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित उनके भजन आज भी उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं और श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं. मीरा का जन्म राजस्थान के एक राजघराने में हुआ था. मीरा बाई के जीवन के बारे में तमाम पौराणिक कथाएं और किवदंतियां प्रचलित हैं. ये सभी किवदंतियां मीराबाई के बहादुरी की कहानियां कहती हैं और उनके कृष्ण प्रेम और भक्ति को दर्शाती हैं. इनके माध्यम से यह भी पता चलता है की किस प्रकार से मीराबाई ने सामाजिक और पारिवारिक दस्तूरों का बहादुरी से मुकाबला किया और कृष्ण को अपना पति मानकर उनकी भक्ति में लीन हो गयीं. उनके ससुराल पक्ष ने उनकी कृष्ण भक्ति को राजघराने के अनुकूल नहीं माना और समय-समय पर उनपर अत्याचार किये.

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भारतीय परंपरा में भगवान् कृष्ण के गुणगान में लिखी गई हजारों भक्तिपरक कविताओं का संबंध मीरा के साथ जोड़ा जाता है पर विद्वान ऐसा मानते हैं कि इनमें से कुछ कवितायेँ ही मीरा द्वारा रचित थीं. बाकी की कविताओं की रचना 18वीं शताब्दी में हुई प्रतीत होती हैं. ऐसी ढेरों कवितायेँ जिन्हें मीराबाई द्वारा रचित माना जाता है, दरअसल उनके प्रसंशकों द्वारा लिखी मालूम पड़ती हैं. ये कवितायेँ ‘भजन’ कहलाती हैं.

मीराबाई के जीवन से सम्बंधित कोई भी विश्वसनीय ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हैं. विद्वानों ने साहित्य और दूसरे स्रोतों से मीराबाई के जीवन के बारे में प्रकाश डालने की कोशिश की है. इन दस्तावेजों के अनुसार मीरा का जन्म राजस्थान के मेड़ता में सन 1498 में एक राजपरिवार में हुआ था. उनके पिता रतन सिंह राठोड़ एक छोटे से राजपूत रियासत के शासक थे. वे अपनी माता-पिता की इकलौती संतान थीं. जब वे छोटी बच्ची थीं तभी उनकी माता का निधन हो गया था. उन्हें संगीत, धर्म, राजनीति और प्राशासन जैसे विषयों की शिक्षा दी गयी. मीरा का लालन-पालन उनके दादा के देख-रेख में हुआ जो भगवान् विष्णु के काफी बड़े उपासक थे और एक योद्धा होने के साथ-साथ भक्त-हृदय भी थे. उनके यहां साधु-संतों का आना-जाना लगा ही रहता था. इस प्रकार मीरा बचपन से ही साधु-संतों और धार्मिक लोगों के सम्पर्क में आती रहीं.

जब मीरा ने किया था सतीप्रथा का विरोध

मीरा का विवाह राणा सांगा के पुत्र और मेवाड़ के राजकुमार भोज राज के साथ सन 1516 में संपन्न हुआ. उनके पति भोज राज दिल्ली सल्तनत के शाशकों के साथ एक संघर्ष में सन 1518 में घायल हो गए और इसी कारण सन 1521 में उनकी मृत्यु हो गयी. उनके पति के मृत्यु के कुछ वर्षों के अन्दर ही उनके पिता और ससुर भी मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के साथ युद्ध में मारे गए. ऐसा कहा जाता है कि उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु के बाद मीरा को उनके पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया किन्तु वे इसके लिए तैयार नही हुईं और धीरे-धीरे वे संसार से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं.

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कृष्ण भक्ति

पति के मृत्यु के बाद इनकी भक्ति दिनों-दिन बढ़ती गई. मीरा अक्सर मंदिरों में जाकर कृष्णभक्तों के सामने कृष्ण की मूर्ति के सामने नाचती रहती थीं. मीराबाई की कृष्ण भक्ति और इस प्रकार से नाचना और गाना उनके पति के परिवार को अच्छा नहीं लगा जिसके वजह से कई बार उन्हें विष देकर मारने की कोशिश की गई.ऐसा माना जाता है कि सन्‌ 1533 के आसपास मीरा को ‘राव बीरमदेव’ ने मेड़ता बुला लिया और मीरा के चित्तौड़ त्यागते ही अगले साल सन्‌ 1534 में गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर लिया. इस युद्ध में चितौड़ के शासक विक्रमादित्य मारे गए और सैकड़ों महिलाओं ने जौहर किया. इसके पश्चात सन्‌ 1538 में जोधपुर के शासक राव मालदेव ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया जिसके बाद बीरमदेव ने भागकर अजमेर में शरण ली और मीरा बाई ब्रज की तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ीं. सन्‌ 1539 में मीरा बाई वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिलीं. वृंदावन में कुछ साल निवास करने के बाद मीराबाई सन्‌ 1546 के आस-पास द्वारका चली गईं.

मीराबाई को क्यों माना गया विद्रोही

तत्कालीन समाज में मीराबाई को एक विद्रोही माना गया क्योंकि उनके धार्मिक क्रिया-कलाप किसी राजकुमारी और विधवा के लिए स्थापित परंपरागत नियमों के
अनुकूल नहीं थे. वह अपना अधिकांश समय कृष्ण के मंदिर और साधु-संतों व तीर्थ यात्रियों से मिलने तथा भक्ति पदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं.
ऐसा माना जाता है कि बहुत दिनों तक वृन्दावन में रहने के बाद मीरा द्वारिका चली गईं जहां सन 1560 में वे भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गईं.