Rohini Vrat 2020: जानिए क्यों किया जाता है रोहिणी व्रत और क्या है इसका महत्व
रोहिणी नक्षत्र सूर्योदय के बाद प्रबल होता है उस दिन रोहिणी व्रत किया जाता है. इस व्रत में जैन धर्म के भगवान वासुपूज्या की पूजा की जाती है.
नई दिल्ली:
आज रोहिणी व्रत है. जैन समुदाय में इस व्रत का काफी महत्व है जो रोहिणी नक्षत्र के दिन किया जाता है. मान्यता है कि इस व्रत को करने से आत्मा के विकार दूर हो जाते हैं और कर्म बंध से छुटकारा मिलता है. वहीं जैन महिलाएं इस व्रत को पति की लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य के लिए भी करती हैं. जब रोहिणी नक्षत्र सूर्योदय के बाद प्रबल होता है उस दिन रोहिणी व्रत किया जाता है. इस व्रत में जैन धर्म के भगवान वासुपूज्या की पूजा की जाती है.
पूजा विधि
इस दिन महिलायें सुबह जल्दी उठकर स्नान करके पूजा करती हैं. इसके बाद पूजा के लिए वासुपूज्य भगवान की पांचरत्न, ताम्र या स्वर्ण प्रतिमा की स्थापना की जाती है. उनका ध्यान करते हुए करके दो वस्त्रों, फूल, फल और नैवेध्य का भोग लगाया जाता है. रोहिणी व्रत का पालन उदिया तिथि में रोहिणी नक्षत्र के दिन से शुरू होकर अगले नक्षत्र मार्गशीर्ष तक चलता है. इस दिन गरीबों को दान देने का भी काफी महत्व होता है.
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कथा
पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय में चंपापुरी नाम के नगर में राजा माधवा अपनी पत्वी लक्ष्मीपति के साथ राज करते थे. उनके 7 पुत्र और 1 रोहिणी नाम की पुत्री थी. एक बार राजा ने एक ज्ञानी से पूछा कि मेरी पुत्री का वर कौन होगा? तो उन्होंने कहा कि हस्तिनापुर के राजकुमार अशोक के साथ रोहिणी का विवाह होगा. ऐसे में राजा ने रोहिणी के स्वंयवर का आयोजन किया जिसमें राजकुमार अशोक को भी आमंत्रित किया गया. रोहिणी ने स्वंयवर में राजकुमार अशोक के गले में माला डाली और दोनों का विवाह हो गया.
इसके बाद एक समय हस्तिनापुर नगर के वन में श्री चारण मुनिराज आए. राजा अपने प्रियजनों के साथ उनके दर्शन के लिए गया और प्रणाम करके धर्मोपदेश को ग्रहण किया. इसके पश्चात राजा ने मुनिराज से पूछा कि मेरी रानी इतनी शांतचित्त क्यों है?
तब गुरुवर ने कहा कि इसी नगर में वस्तुपाल नाम का राजा था और उसका धनमित्र नामक एक मित्र था. उस धनमित्र की दुर्गंधा कन्या उत्पन्न हुई. धनमित्र को हमेशा चिंता रहती थी कि इस कन्या से कौन विवाह करेगा? धनमित्र ने धन का लोभ देकर अपने मित्र के पुत्र श्रीषेण से उसका विवाह कर दिया, लेकिन अत्यंत दुर्गंध से पीड़ित होकर वह एक ही मास में उसे छोड़कर कहीं चला गया.
इसी समय अमृतसेन मुनिराज विहार करते हुए नगर में आए, तो धनमित्र अपनी पुत्री दुर्गंधा के साथ वंदना करने गया और मुनिराज से पुत्री के भविष्य के बारे में पूछा. उन्होंने बताया कि गिरनार पर्वत के निकट एक नगर में राजा भूपाल राज्य करते थे. उनकी सिंधुमती नाम की रानी थी. एक दिन राजा, रानी सहित वनक्रीड़ा के लिए चले, सो मार्ग में मुनिराज को देखकर राजा ने रानी से घर जाकर मुनि के लिए आहार व्यवस्था करने को कहा. राजा की आज्ञा से रानी चली तो गई, परंतु क्रोधित होकर उसने मुनिराज को कड़वी तुम्बी का आहार दिया जिससे मुनिराज को अत्यंत वेदना हुई और तत्काल उन्होंने प्राण त्याग दिए.
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जब राजा को इसका पता चला, तो उन्होंने रानी को नगर से बाहर निकाल दिया और इस पाप से रानी के शरीर में कोढ़ उत्पन्न हो गया. अत्यधिक वेदना और दु:ख को भोगते हुए वो रौद्र भावों से मरकर नर्क में गई. वहां अनंत दु:खों को भोगने के बाद पशु योनि में उत्पन्न और फिर तेरे घर दुर्गंधा कन्या हुई.
यह पूर्ण वृत्तांत सुनकर धनमित्र ने पूछा- कोई व्रत-विधानादि धर्मकार्य बताइए जिससे कि यह पातक दूर हो. तब स्वामी ने कहा- सम्यग्दर्शन सहित रोहिणी व्रत पालन करो अर्थात प्रति मास में रोहिणी नामक नक्षत्र जिस दिन आए, उस दिन चारों प्रकार के आहार का त्याग करें और श्री जिन चैत्यालय में जाकर धर्मध्यान सहित 16 प्रहर व्यतीत करें अर्थात सामायिक, स्वाध्याय, धर्मचर्चा, पूजा, अभिषेक आदि में समय बिताए और स्वशक्ति दान करें. इस प्रकार यह व्रत 5 वर्ष और 5 मास तक करें.
दुर्गंधा ने श्रद्धापूर्वक व्रत धारण किया और आयु के अंत में संन्यास सहित मरण कर प्रथम स्वर्ग में देवी हुई. वहां से आकर तेरी परमप्रिया रानी हुई। इसके बाद राजा अशोक ने अपने भविष्य के बारे में पूछा, तो स्वामी बोले- भील होते हुए तूने मुनिराज पर घोर उपसर्ग किया था, सो तू मरकर नरक गया और फिर अनेक कुयोनियों में भ्रमण करता हुआ एक वणिक के घर जन्म लिया, सो अत्यंत घृणित शरीर पाया, तब तूने मुनिराज के उपदेश से रोहिणी व्रत किया फलस्वरूप स्वर्गों में उत्पन्न होते हुए यहां अशोक नामक राजा हुआ. इस प्रकार राजा अशोक और रानी रोहिणी, रोहिणी व्रत के प्रभाव से स्वर्गादि सुख भोगकर मोक्ष को प्राप्त हुए.
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