Muharram 2019: जानिए क्यों मनाते हैं मुहर्रम, क्या थी कर्बला की जंग जिसके लिए मनाया जाता है मातम
आज से लगभग 1400 साल पहले मुहर्रम के महीने में इस्लामिक तारीख की एक ऐतिहासिक जंग हुई थी.
highlights
- आज पूरी दुनियाभर में मनाया जा रहा है मुहर्रम.
- आज के दिन ही मुसलमानों का पहला महीना शुरू होता है.
- आज से लगभग 1400 साल पहले मुहर्रम के महीने में इस्लामिक तारीख की एक ऐतिहासिक जंग हुई थी.
नई दिल्ली:
इस्लामिक कैलेंडर (Islamic Calender) के मुताबिक, आज यानी मुहर्रम के दिन से ही मुसलमानों के नए साल की शुरुआत होती है. इसे साल-ए-हिजरत (जब मोहम्मद साहब मक्के से मदीने के लिए गए थे) भी कहा जाता है. मुहर्रम किसी त्योहार या खुशी का महीना नहीं है, बल्कि ये महीना मातम मनाने का है. इसीलिए इसे 'ग़म का महीना' भी कहा जाता है.
आइये हम आपको बताते हैं कि मुहर्रम का महीना गम का क्यों होता है और इससे जुड़ी कई बातें-
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आज से लगभग 1400 साल पहले मुहर्रम के महीने में इस्लामिक तारीख की एक ऐतिहासिक जंग हुई थी. बातिल के खिलाफ इंसाफ की जंग लड़ी गई थी, जिसमें अहल-ए-बैत (नबी के खानदान) ने आपनी कुर्बानी देकर इस्लाम (Islam) को बचाया था.
इस जंग में जुल्म अपने चरमत स्तर पर पहुंच गया जब इराक की राजधानी बगदाद से करीब 120 किलोमीटर दूर कर्बला में बादशाह यजीद के पत्थर दिल फरमानों ने महज 6 महीने के अली असगर को पानी तक नहीं पीने दिया. जहां भूख-प्यास से एक मां के सीने का दूध सूख गया और जब यजीद की फौज ने पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को नमाज पढ़ते समय सजदे में ही उनका कत्ल कर दिया.
इस जंग में इमाम हुसैन के साथ उनके 72 अन्य साथियों को भी बड़ी बेहरमी से शहीद कर दिया गया. उनके घरों को आग के हवाले कर दिया गया और परिवार के बचे हुए लोगों को कैदी बना लिया गया. जुल्म की इंतेहा तब हुई जब इमाम हुसैन के साथ उनके उनके महज 6 महीने के मासूम बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) को भी बड़ी बेरहमी से कत्ल कर दिया गया.
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इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की कुर्बानी की याद में ही मुहर्रम मनाया जाता है. मुहर्रम शिया और सु्न्नी दोनों ही समुदाय के लोग मनाते हैं. हालांकि, इसे मनाने का तरीका दोनों का काफी अलग होता है.
10 मुहर्रम रोज-ए-आशुरा क्या होता है
यूं तो मुहर्रम का पूरा महीना ही बहुत Pure और गम का महीना होता है, लेकिन मुहर्रम 10वां दिन जिसे रोज-ए-आशुरा कहते हैं सबसे अहम दिन होता है. 1400 साल पहले मुहर्रम के महीने की 10 तारीख को ही इमाम हुसैन को शहीद किया गया था. उसी गम में मुहर्रम की 10 तारीख को ताजिए निकाले जाते हैं.
शिया समुदाय के लोग मातम मनाते हैं. मजलिस पढ़ते हैं, काले रंग के कपड़े पहनकर शोक मनाते हैं. यहां तक की शिया समुदाय के लोग मुहर्रम की 10 तारीख को भूखे प्यासे रहते हैं क्योंकि इमाम हुसैन और उनके काफिले को लोगों को भी भूखा रखा गया था और भूख की हालत में ही उनको शहीद किया गया था. जबकि सुन्ना समुदाय के लोग रोजा नमाज करके अपना दुख जाहिर करते हैं.
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