पुंडीर की चुनावी पोस्ट-2: 1993 से 2019 तक के सफर में बहुत पानी यादव और बाकि ओबीसी के बीच बह गया है
अभी गठबंधन से चार सीट लेने पर सहमत दिख रहे अजीत सिंह अपमान का हर घूंट पीने को तैयार दिख रहे हैं
नई दिल्ली:
पच्चीस सालों में काफी पानी गंगा में बह गया है, समाजवाद ने भी नए कपड़े पहन लिए है और बसपा ने भी मिश्रा को ताकत दे दी है. बात अजीत सिंह पर थी. अभी गठबंधन से चार सीट लेने पर सहमत दिख रहे अजीत सिंह अपमान का हर घूंट पीने को तैयार दिख रहे है. लेकिन अगर ये सीट दो पर सिमटी तब क्या होगा. क्या राजनैतिक तौर पर मजबूर दिख रहे जयंत तब भी इस गठबंधन की वकालत करेंगे. हालांकि मुझे लगता है कि ऐसा ही होगा.
लेकिन बीजेपी ने कुछ ज्यादा दिया तो क्या अजीत सिंह का भंवरा मन उस तरफ भी मंडरा सकता है लेकिन बीजेपी के सामने दिक्कत है कि वो कौन सी सीट अजीत सिंह को दे जीती हुई सीट देने से कार्यकर्ताओं का क्या होगा जो उन सीटों पर जीत के बाद से लंबे अर्से तक मेहनत करते रहे है. बीजेपी के साथ अजीत सिंह का गठबंधन उस इलाके में बीजेपी को कई सीटों पर मजबूती दे सकता है और महागठबंधन को इस इलाके में काफी चोट पहुंचा सकता है.
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एक और संभावना है कि अजीत सिंह को कांग्रेस कुछ ज्यादा सीट दे कर अपनी ओर करने की कोशिश करे. अजीत सिंह के साथ कांग्रेस का ये गठबंधन सीट पश्चिमी क्षेत्र में सीट तो इतनी नहीं जीत सकता है लेकिन महाबंधन को महाचोट जरूर पहुंचा सकता है, क्योंकि जाटों के साथ होने पर कांग्रेस मुस्लिम वोट को अपनी ओर करने में कामयाबी हासिल कर सकती है, भले ही यूपी में सपा और बसपा मुस्लिमों की वोट हासिल करने में कामयाब होते हो लेकिन मुस्लिम राष्ट्रीय फलक में सिर्फ राहुल गांधी को ऐसे नेता के तौर पर देख रहे हैं, जो संसद से लेकर सड़क तक मोदी से सीधे टकरा रहा है.
ऐसा नेता जो सड़क पर उतर मोदी को सीधी चुनौती दे रहा है, ऐसे में यूपी के मुस्लिम वोटर को कांग्रेस में जरा सी जान लौटने की आहट मिलते ही उसका कांग्रेस की ओर लौटना स्वाभाविक हो सकता है और मुस्लिम वोटों का जरा सा भी विचलन महागठबंधन के पूरे तानेबाने को बिखेर सकता है.लेकिन ये मिलाप थोड़ा सा अलग है और तभी संभव है जब अजीत सिंह बीजेपी के फंड से चुनाव लड़ने की सोच ले. ये राजनैतिक उलटबांसी हो सकती है लेकिन अविश्वनीय नहीं क्योंकि राजनीति सिर्फ संभावनाओं को साधने का ही खेल होती है नहीं तो 1993 के बाद महज दो साल में ही 1995 का गेस्ट हाउस नहीं हो जाता.
अब महागठबंधन की उस समीकरण को भी देखते है जो अजेय दिख रहा है अंग्रेजों के रंग से अपने रंग मिलाने के लिए बेजार रहने वाले लुटियंस के बौंनों को. जब रामगोपाल यादव या कोई और भी यादव नेता 54 फीसदी ओबीसी की बात करता है तो उसका सिर्फ और सिर्फ कागजी मतलब होता है सही मायने में उसका अर्थ है अपने 8 फीसदी यादव वोटों का जो उसकी राजनीति की रीढ़ है और यही 1993 से उलट समीकरण है 1993 में पिछड़ों के बीच ये बंटवारा नहीं था और मुलायम सिंह यादव की जातिय राजनीति का पूरा सच भी सामने नहीं आया था. 1993 से 2019 तक के सफर बहुत पानी यादव और बाकि ओबीसी के बीच बह गया है, मुलायम सिंह यादव अब पिछडों के लिए नहीं बल्कि यादवों के नायक है, पिछड़ों के पास अपने पटेल, राजभर और दूसरे नाम हैं.
लिहाजा आठ फीसदी यादव गठबंधन की ताकत हुए जो कमोबेश इसी तरफ होगे फिर दूसरा सबसे बड़ा वोट बैंक दलित वोटों का जिसमें 22 फीसदी दलित है लेकिन बसपा की सत्ता में हिस्सेदारी केबाद ही दलितों की इटंरनल पॉलिटिक्स में जाटव और गैर जाटव के बीच एक नया राजनीतिक बंटवारा हुआ है और दलितों में 65 फीसदी जाटव ही बिना किसी शक सुबहा के बसपा का आधार बने रहते है इसीलिए उस गठबंधन के लगभग 14 फीसदी के हिस्सेदार ये भी हुए और फिर बचता है 18 फीसदी मुस्लिम वोटर्स जिसके लिए किसी दल की निष्ठा कोई मायने नहीं रखती उसके लिए सिर्फ एक चीज मायने रखतीा है और वो है मोदी विरोध में सबसे ज्यादा आगे या फिर मोदी को हराने में सक्षम पार्टी .
ऐसे में ये 18 फीसदी वोट भी इस महागठबंधन की जीत की रूपरेखा तय करता है. लेकिन ये सब मिलकर चालीस फीसदी होता है क्योंकि बाकि ओबीसी वोट को बीजेपी से कोई परहेज नहीं है और वो खेल खुला हुआ है इसी लिए बीजेपी के लिए सब कुछ साफ नहीं हुआ है. बीजेपी केलिए प्राण वायु बना हुआ सवर्ण जातियों और गैरयादव ओबीसी, और गैर जाटव दलित अगर अभी उसके पीछे संगठित तौर पर खड़ा होता है तो वो लडाई में कमजोर नहीं दिख रही है. 1993 में ये गठबंधन अजेय था और नई नई राजनीति का प्रणेता बना था लिहाजा कई सारी फॉल्टलाईन उस वक्त नहीं थी जो अब सामने है. .........जारी
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