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निजी अस्पताल, जनता, मीडिया और सरकार... आखिर कब बदलेगी तस्वीर?

निजी अस्पतालों की लूट और निर्ममता के खिलाफ जनता का गुस्सा उबाल मार रहा है। इस गुस्से की दहलीज़ से खबरों को छानकर मीडिया भी बखूबी परोस रहा है, जिसका असर देर से ही सही पर अब सरकारों पर दिखने लगा है।

Updated on: 07 Dec 2017, 12:59 PM

highlights

  • फोर्टिस अस्पताल ने डेंगू के इलाज के लिए मांगा 16 लाख का बिल
  • नहीं बच पाई थी मरीज बच्ची की जान
  • मैक्स शालीमार बाग अस्पताल ने ज़िंदा नवजाद को बताया था मृत
  • परिजनों ने दफनाते वक्त पाया ज़िंदा था बच्चा, 1 हफ्ते बाद हुई मौत

नई दिल्ली:

निजी अस्पतालों की लूट और निर्ममता के खिलाफ जनता का गुस्सा उबाल मार रहा है। इस गुस्से की दहलीज़ से खबरों को छानकर मीडिया भी बखूबी परोस रहा है, जिसका असर देर से ही सही पर अब सरकारों पर दिखने लगा है।

गुड़गांव के फोर्टिस अस्पताल में डेंगू के इलाज के लिये 16 लाख के बिल के बावजूद, मरीज की मौत के मामले में जारी बवाल पर हरियाणा सरकार को आखिरकार फैसला लेना पड़ा।

हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने अस्पताल के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने, ब्लड बैंक का लाइसेंस कैंसिल करने समेत अस्पताल के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के लिए मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के दरवाजे को खटखटाने का भी ऐलान किया।

जांच रिपोर्ट का हवाला देते हुए विज ने बताया कि किस तरह अस्पताल ने एक दवा पर लगभग 1200 फीसदी तक का मुनाफा कमाया। 

उधर एक और सनसनीखेज घटना जिसने रोंगटे खड़े कर दिए वह दिल्ली के मैक्स शालीमार बाग अस्पताल से जुड़ी है जहाँ अस्पताल ने एक नवजात को मृत घोषित कर दिया था जबकि उसकी सांसे अभी शेष थी।

देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बेहाल, लूटते अस्पतालों पर कौन कसेगा लगाम?

इस मामले में भी अस्पताल ने परिजनों को भारी भरकम बिल का वजन दिखाया। मामले ने तूल पकड़ा तो सरकार और डीएमसी हरकत में आई। दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सतेन्द्र जैन अस्पताल के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का भरोसा दे रहे है और मुख्यमंत्री केजरीवाल अस्पतालों की लूट पर नकेल कसने की मंशा जाहिर कर रहे है। 

यह दोनों ही घटनाएं देश की राजधानी दिल्ली और उससे सटे गुड़गांव की है। हम जानते है की दिल्ली एनसीआर हेल्थ टूरिज्म हब बन चुका है। यहाँ के पांचसितारा अस्पताल दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में भी अपनी धमक छोड़ चुके हैं।

देश की राजधानी में चिकित्सा का सर्वश्रेष्ठ संस्थान एम्स भी है तो साथ ही केंद्र सरकार के सफदरजंग और आरएमएल जैसे सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल भी है। इसी हिस्से में दिल्ली सरकार के भी दर्जनों छोटे बड़े और यहाँ तक की सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल भी मौजूद हैं।

बावजूद इन सबके आम आदमी की प्राइवेट अस्पतालों पर निर्भरता और खासतौर पर आपात स्थिति में सरकारी अस्पतालों में धक्के खाने के बदले प्राइवेट अस्पतालों की तरफ रुख करना मजबूरी है।

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लेकिन इन सबके बीच मूल सवाल यह हैं कि, हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के छेत्र में दिल्ली-एनसीआर के बाकी राज्यो की तुलना में मजबूत होने के बावजूद भी यहां प्राइवेट हॉस्पिटल पर आम आदमी की निर्भरता में कोई कमी क्यों नही दिखती?

सवाल यह भी है कि यह निजी अस्पताल रातों-रात लूट के अड्डे नहीं बने तो फिर सरकार की ओर से इन लूट के अड्डो पर कोई शिकंजा समय रहते क्यों नही कसा गया?

दरअसल यह समूचा खेल डिमांड और सप्लाई का है। निजी अस्पतालों के निवेशक यह अच्छे से जानते है कि सरकारी अस्पतालों का इंफ्रास्ट्रक्चर मरीजो के बोझ तले चरमरा चुका है या फिर पर्याप्त नहीं है और ऐसे में अपनी जान की हिफाजत के लिए जो मरीज उनके दर पर आएगा उससे मनमाफिक वसूली करने में वो कतई संकोच नही करेंगे।

दिल्ली में केजरीवाल सरकार का मोहल्ला क्लीनिक एक अच्छा कॉन्सेप्ट है और पॉपुलर भी हुआ है लेकिन दूसरी तरफ अगर दिल्ली सरकार के अस्पतालों की हालत देखें तो सरकारी उदासीनता और नीतियों के अभाव में खस्ताहाल ही है।

मरीजों का बोझ तो है ही जिसके लिया बीएड और संसाधन नाकाफी है, दुखद पहलू ये भी है कि जो उपलब्ध संसाधन थे मसलन एमआरआई, सिटी स्कैन, वेंटीलेटर वो भी अधिकांश अस्पतालों में बेहाल है और नए इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए सरकार ने कोई नए कदम नही उठाए हैं।

मरीजों के बोझ तले मौजूदा संसाधन नाकाफी है, दुखद पहलू यह भी है कि जो उपलब्ध संसाधन थे मसलन एमआरआई, सिटी स्कैन, वेंटीलेटर वो भी अधिकांश अस्पतालों में बेहाल है और नए इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए सरकार ने कोई नए कदम नही उठाए हैं।

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दिल्ली में दो सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल जनकपुरी और ताहिरपुर में पिछले 5 साल से तैयार खड़े है लेकिन उनको कैसे चलाया जाए, जनता तक उनका लाभ पहुंचाया जाए, इस मोर्चे पर भी सरकार फेल दिखाई देती है।

अगर केंद्र के अस्पताल मसलन एम्स की बात करें तो उस पर समूचे देश के मरीजो का बोझ है। सरकार घोषणाएं तो करती रही, भवन भी तैयार हुए लेकिन विभिन्न राज्यो में तैयार एम्स की बिल्डिंग अब भी डॉक्टर और चिकित्सकीय संसाधन के अभाव में धर्मशाला से ज्यादा कुछ नही।

यानी कुल मिलाकर जीवन रक्षा और बीमारियों से लड़ने के प्रति हमारे सरकारों की प्रतिबद्धता धूमिल दिखाई देती है। 

भारत में सरकार जीडीपी का 2.5 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करती है जो जरुरत का महज 20 फीसदी है, क्योंकि स्वास्थ्य स्टेट सब्जेक्ट है लिहाजा केंद्र के अलावा हेल्थ सेक्टर की बड़ी जिम्मेदारी राज्य सरकारों के कंधों पर है परन्तु उनके बजट में भी हेल्थ सबसे निचले पायदान पर होता है।

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गुजरात के चुनावी मैदान में कांग्रेस के भावी अध्यक्ष राहुल गांधी मोदी सरकार पर सवालों के तीर छोड़ रहे है जिनमें सबसे ताज़ा तीर स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली को लेकर है। लेकिन गौरतलब है कि सरकार राज्यों से लेकर केंद्र में चाहे कांग्रेस की रही हो या बीजेपी की, आम आदमी के जीवनरक्षा को किसी भी दौर में अहमियत नही दी गई है।

अगर देश राइट-टू-हेल्थ की तरफ़ आजादी के बाद तेजी से बढ़ा होता तो देश की 30 फीसदी आबादी की अर्थव्यवस्था चिकित्सा व्यवस्था के आगे दम नही तोड़ती। अगर सरकारों ने  निजी अस्पतालों के लिए भी गंभीर मानक तय किए होते तो देश मे चिकित्सा सेवा से धंधे में तब्दील नहीं हुआ होता।

मरीजों की बदहाली और बेबसी से उपजे ऐसे कई सवाल है जो ज्वलंत है और देश के बुनियादी ढांचे पर गंभीर प्रश्न खड़े करते है। परन्तु जब तक जनता खुद एकजुट होकर इनका जवाब नेताओं से, सरकारों से, मौजूदा व्यवस्था से नही मांगेगी तब तक देश के सरकारी स्वास्थ्य के ढांचे में कोई बड़ा बदलाव शायद ही संभव हो पाए।

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