logo-image

हिन्दी फिल्मों में क्षेत्रीय भाषा के बढ़ते प्रभाव से हिन्दी पर क्या असर पड़ा है ?

हिन्दी को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने में हिन्दी सिनेमा के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। यह एक ऐसे माध्यम के रूप में हमारे बीच है जो अपने आप में कई कलाओं और संस्कृतियों को समेटे हुए है। समय के साथ हिंदी सिनेमा की तस्वीर भी बदल रही है। आज फिल्मों को लेकर नए-नए प्रयोग ज्यादा हो रहे हैं। फिल्मों के विषय चयन से लेकर संवाद लेखन और पटकथा तक पर क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव दिखने लगा है।

Updated on: 14 Sep 2016, 07:16 AM

नई दिल्ली:

हिन्दी को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने में हिन्दी सिनेमा के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। यह एक ऐसे माध्यम के रूप में हमारे बीच है जो अपने आप में कई कलाओं और संस्कृतियों को समेटे हुए है। समय के साथ हिंदी सिनेमा की तस्वीर भी बदल रही है। आज फिल्मों को लेकर नए-नए प्रयोग ज्यादा हो रहे हैं। फिल्मों के विषय चयन से लेकर संवाद लेखन और पटकथा तक पर क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव दिखने लगा है। हालांकि इस तरह के प्रयोग बॉलीवुड में पहले से ही होता आ रहा है, लेकिन आजकल ये प्रयोग बढ़ गया है। 

14 मार्च 1934 में जब हिन्दी फिल्मों का सफर शुरू हुआ तो हिन्दी भाषा अपने असली रूप में थी, पर आज पान सिंह तोमर, उड़ता पंजाब, तन्नु वेडस मन्नु, गैंस ऑफ वसेपुर जैसी फिल्मों ने हिन्दी सिनेमा में भाषा के ट्रेंड को बदला और फिल्मों में हिन्दी के साथ ही क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल होने लगा या फिर उन क्षेत्रों में हिन्दी बोलने के अदाज़ को फिल्मों में अपनाया जाने लगा। अब फिल्मों में भारत के अलग-अलग राज्यों के भाषा की सौंधी खुशबू आती है।

सिनेमा के मुख्य किरदार के संवाद अब क्षेत्रीय बोली में लिखे जाते हैं, उदाहरण के लिए तन्नु वेडस मन्नु की मुख्य किरदार कंगना उर्फ कुसुम अपना परिचय देते हुए कहती है ' म्हारा नाम कुसुम सांगवानी से, जिला झझड़ 124507, फोन नं. दौं कोणा' दरअसल इस संवाद के जरिए हरियाणवी भाषा को भी व्यापक स्तर पर पहचान मिलती है। ऐसे ही बाजीराव मस्तानी में रणवीर सिंह उर्फ बाजी राव पेशवा के ज़रिए मराठी भाषा तो गैंग्स ऑफ वासेपुर में भोजपुरी, उड़ता पंजाब से पंजाबी, तो पान सिंह तोमर के जरिए ब्रज भाषा हिंदी के साथ मिश्रित हो लोगों तक पहुंची।

फिल्मों के संवाद और विषय चयन के अलावा हिन्दी फिल्मों के गाने भी क्षेत्रीय भाषा और बोली की शब्दावलियों के इस्तेमाल से बनने लगे हैं। जहां हिन्दी सिनेमा में खड़ी बोली का इस्तेमाल किया जाता रहा है उदाहरण के तौर पर पियूष मिश्रा का “आरम्भ है प्रचंड, बोले मस्तकों के झुंड, आज ज़ंग की घड़ी की तुम गुहार दो” जैसे हिन्दी के गीत लिखे। वहीं उसी हिन्दी सिनेमा में अब “जिया हो बिहार के लाला, जिया तू हजार साला” या मैं घणी वावली होगी जैसे क्षेत्रीय शब्दावली के साथ गीतों में नए-नए प्रयोग भी किए जा रहे है।

फिल्म और साहित्य दोनों ही समाज का दर्पण माने जाते हैं। दर्पण वही दिखाता है जो सच हो। ऐसे में आज फिल्मकार जब फौजी से बागी बने पान सिंह तोमर पर फिल्म बनाते हैं तो इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं कि पान सिंह तोमर जिस पृष्ठभूमि से आता है वो अपनी बोलचाल में भी वहीं का लगे । इसलिए संवाद लेखक उस किरदार के लिए "हमाई मां को बंदुक की बट्ट तो मारो" जैसे संवाद लिखता है।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है और भाषा के चयन को लेकर भी अब बदलाव हो रहे हैं।

बहस ये भी चलती है कि इस बदलाव से हिन्दी भाषा को कितना नुकसान पहुंचा है, और कितना फायदा। इस विषय पर सबकी अपनी अलग- अलग राय हो सकती है। मूलत: हिन्दी फिल्मों में क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव से हिन्दी का स्तर गिरा नहीं बल्कि क्षेत्रीय भाषा एक बड़े समूह तक पहुंची है और सबने इसे स्वीकारा भी है। अगर इस बदलाव से हिन्दी भाषा या हिन्दी फिल्मों को कोई नुकसान होता तो प्रयोग के इस दौर में मोहनजोदाड़ो और जोधा अकबर जैसी खड़ी हिन्दी में फिल्में नहीं बनती। हां ये ज़रूर है कि आज बॉलीवुड में ज्यादातर फिल्मों में खिचड़ी भाषा का इस्तेमाल होता है जिसमें अंग्रेजी, हिंगलिश सब होता है। लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल से हिंदी भाषा खराब नहीं हो रही, बल्कि वो और समृद्ध हो रही है। इसके साथ ही क्षेत्रीय भाषा और बोली भी संरक्षित हो रही है, क्योंकि वो किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित नही रहती।