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सरदार पटेल के लिए आसान नहीं था रियासतों का विलय

आजादी के समय देश अलग-अलग रियासतों में बंटा हुआ था. लेकिन सरदार पटेल ने इसे एक सूत्र में पिरोया.

Updated on: 30 Oct 2018, 02:33 PM

नई दिल्‍ली:

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वोच्च मंच यानि संसद में लौह पुरुष सरदार पटेल की विशाल प्रतिमा को मैं बीते करीब 11 साल से निहारता रहा, लेकिन उनके बारे में पढ़ने-जानने का मौका बीते कुछ सालों में ही मिल सका. उनके बारे में ज्यादा पढ़ा तो उनके प्रति सम्मान और बढ़ गया, साथ ही निराश करता ये सवाल भी कि 2018 में कोई 'सरदार' जैसा क्यों नहीं?

कैसे हुआ रियासतों का विलय?
आजादी से पहले देश अलग-अलग रियासतों में बंटा हुआ था. रियासतों को अपनी रेल लाइन और अपनी मुद्रा तक रखने की आजादी थी. हांलाकि कांग्रेस पार्टी ने साल 1920 में ही देसी रजवाड़ों को राजनीतिक हिस्सेदारी देने की वकालत की थी, लेकिन तब इसका कोई खास प्रभाव नहीं दिखा. इसकी वजह थे अंग्रेज, जिन्होंने इस मुद्दे से हमेशा दूरी बनाए रखी. तभी तो साल 1946 में हुए आंतरिक चुनाव में देशी रजवाड़े अलग ही थे. कैबिनेट मिशन भी हिंदू-मुसलमान या दो मुल्क तक ही सीमित रहा. रजवाड़ों का जिक्र वहां भी नहीं हुआ. यहां तक की 20 फरवरी 1947 को ब्रिटिश राज समाप्ति के औपचारिक बयान में भी रियासतों का खुलकर जिक्र नहीं था. जाहिर है अंग्रेज इस जटिल मसले से खुद को अलग रखना चाहते थे.

बीकानेर सबसे पहले आया पटेल के साथ
आजादी की पहल के साथ ही केन्द्र में 'राज्य विभाग' का गठन हुआ. जिम्मेदारी सरदार पटेल के कंधों पर थी. वी पी मेनन सरदार के सचिव बने, जो 1947 के मध्य तक पूरे देश का दौरा करके हर रजवाड़ों को विलय के लिए राजी करते रहे. उधर सरदार पटेल राजा-महाराजाओं को संविधान सभा में अपने नुमाइंदे भेजने की नसीहत दे चुके थे. बीकानेर के राजा ने सरदार की इस अपील का साथ दिया. बीकानेर की अपील पर राजस्थान की काफी रियासतें आगे आई भीं. वैसे संविधान सभा में शामिल होने वाला पहला रजवाड़ा बड़ौदा का बना.

लार्ड माउंटबेटन का मिला साथ
इतिहास के पन्नों को पलटने पर पता चलता है कि 9 जुलाई को नेहरू और पटेल ने वायसराय लार्ड माउंटबेटन से मिलकर रियासतों के मुद्दे पर खुलकर बात की. उसी दिन बाद में महात्‍मा गांधी भी वायसराय से मिले. इन मुलाकातों के बाद माउंटबेटन ने आखिरकार इस मोर्चे पर खुलकर मदद का भरोसा दिया, जिसके तहत 25 जुलाई को 'चैंबर आॅफ प्रिंसेज' में माउंटबेटन ने भाषण दिया और विलय पत्र में भारत सरकार से समझौता करने का रियासतों पर जोर डाला. वायसराय ने हथियारों की आपूर्ति, संचार व्यवस्था और विदेशी मामले केन्द्र के अधीन होने की बात कही. कहीं पढ़ा कि भाषण देते वक्त माउंटबेटन सेना की अपनी वर्दी में थे, शायद वजह मनोवैज्ञानिक तौर पर डराने की रही हो! बाद में उन्होंने बड़ी रियासतों को पत्र लिखकर 15 अगस्त तक विलय ना करने के बाद 'विस्फोटक नतीजे' झेलने की धमकी भी दी. नतीजतन 15 अगस्त तक लगभग सभी रियासतों ने विलय पत्र पर सहमति दे दी.

पटेल और मेनन की जोड़ी ने किया कमाल
आजादी के बाद कांग्रेस ने विलय को सिर्फ तीन मुद्दों तक सीमित रहने से इनकार किया तो रियासतों के स्तर पर विरोध दिखा. मैसूर के साथ-साथ कठियावाड़ा और उड़ीसा की कुछ रियासतों में आंदोलन हुआ. बाद में प्रिवी पर्स की पेशकश हुई और मामला शांत हुआ. जानकारों का एक तबका मानता है कि पटेल और मेनन की जोड़ी ने अंग्रेजी शासन से सबक लेते हुए अलग नीति को अपनाया और अपने अनुभव और विवेक की बदौलत केवल 2 साल में 500 से ज्यादा रियासतों को इतिहास का हिस्सा बना दिया.

आसान नहीं था मुल्क को एक करना
हांलाकि ये सब इतना आसान भी नहीं था. सरदार के फॉर्म्‍यूले का त्रावणकोर रियासत ने सबसे पहले विरोध किया, जिसका सपना स्वतंत्र राज्य बनाने का था. बेशकीमती 'थोरियम' के भंडार वाली इस रियासत ने ब्रिटिश सरकार से समझौता भी कर लिया था. उम्मीद थी कि इंग्लैंड से मान्यता भी मिल जाएगी. जिन्ना ने भी त्रावणकोर का सर्मथन कर दिया था. लेकिन त्रावणकोर को झुकना पड़ा. विरोध भोपाल रियासत ने भी किया, जहां की आबादी तो हिन्दू बहुल थी लेकिन शासक मुसलमान था. मुश्किलें जोधपुर के महाराजा ने भी बढ़ाईं, जिनको पाकिस्तान में विलय करने लालच दिया गया था. कहा जाता है कि भोपाल के नवाब ने ही जोधपुर के महाराजा की जिन्ना से बैठक कराई थी. जिन्ना ने कराची में बंदरगाह, हथियार और खाद्यान्न का भरोसा दिया था. सूचना मिलते ही सरदार पटेल ने जोधपुर महाराजा से संपर्क साधकर हर जरूरी मदद देने का एलान किया. बताया जाता है कि विलय के वक्त जोधपुर महाराज ने वायसराय के सचिव पर पिस्तौल तक तान दी थी.

गृहराज्य गुजरात में भी बढ़ीं पटेल की मुश्किलें
सरदार पटेल के सामने मुसीबत उनके गृहराज्य गुजरात का जूनागढ़ भी बना, जिसका विरोध जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के खिलाफ था, क्योंकि जूनागढ़ की करीब 80 फीसदी आबादी हिंदू थी. जूनागढ़ निजाम के विरोध के बीच महात्मा गांधी के भतीजे सामलदास गांधी ने बंबई में वैकल्पिक सरकार के गठन का एलान किया. बढ़ते विरोध के बीच घबराया नबाव अपने दीवान को जिम्मेदारी सौंपकर पाकिस्तान भाग गया. इस बीच 9 नवंबर को जूनागढ़ का भारत में विलय हुआ, लेकिन कहा जाता है कि विलय प्रकिया पर माउंटबेटन नाराज थे! शायद तभी 20 फरवरी 1948 को जूनागढ़ में जनमत संग्रह हुआ, जिसमें 91 फीसदी आबादी ने भारत का साथ दिया. माना जाता है कि कश्मीर को पाकिस्तान को दिए जाने पर पटेल को शुरुआती दिनों में कोई खास आपत्ति नहीं थी, लेकिन जूनागढ़ जैसे हिन्दू बाहुल्य राज्य को पाकिस्तान में मिलाने की जिन्ना की साजिश से बौखलाकर पटेल कश्मीर मोर्चे पर खुलकर नेहरू के साथ आ गए.

लंबे समय बाद तय हुआ हैदराबाद का भविष्य
सरदार पटेल की मुश्किलें हैदराबाद रियासत ने भी बढ़ाईं. जहां की ज्यादातर आबादी तो हिन्दू ही थी, लेकिन शासक मुसलमान. सरदार पटेल का साफ मानना था कि 'आजाद हैदराबाद' भारत के पेट में कैंसर जैसा होगा. दरअसर अलीगढ़ से पढ़ा कट्टर कासिम रिज़वी हैदराबाद निजाम के पक्ष में बने इत्तिहाद उल मुसलमीन संगठन का नेता था. जिन्ना के करीबी रिजवी के नेतृत्व में इत्तिहाद संगठन ने रजाकार नाम से एक हथियारबंद सुरक्षा दल बनाया, जो किसी भी तरह की हिंसा के लिया तैयार था. उधर इंग्लैंड की कंजरवेटिव पार्टी ने निजाम का समर्थन किया था तो जिन्ना ने हैदराबाद के पक्ष में 10 करोड़ भारतीय मुसलमानों के सड़क पर उतरने की धमकी तक दे दी. भारी गतिरोध के बीच नवंबर 1947 में 'यथास्थिति समझौता' हुआ और भारत सरकार की ओर से के. एम. मुंशी प्रतिनिधि नियुक्त हुए. लेकिन 1948 तक हैदराबाद में तनाव बढ़ने लगा. पाकिस्तान पर हैदराबाद में हथियार गोला बारूद भेजने का आरोप लगा. इस बीच मद्रास ने सरदार पटेल को हैदराबाद के चलते उनके सूबे में बढ़ती शरणार्थी की समस्या पर पत्र लिखा. तो वहीं प्रतिनिधि नियुक्त हुए मुंशी ने भी दिल्ली एक लंबी रिपोर्ट भेजी. उधर जून 1948 में माउंटबेटन ने भी निजाम को खत जिसे निजाम में अनसुना कर दिया. कुछ दिन बाद ही माउंटबेटन ने अपने पद से इस्तीफा दिया, जिसके बाद भारत सरकार ने तुरंत सख्त फैसला लिया और 13 सितंबर को भारतीय सेना की टुकड़ी हैदराबाद में पहुंची. 4 दिन में पूरी रियासत पर कब्जा हो चुका था, जिसमें करीब 2000 रजाकार भी मारे गए. इस सबके साथ ही भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्क के तौर पर वजूद में आ सका, जिसमें सरदार की भूमिका कभी ना भुलाने वाली है.