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...और कमल की तलाश में दलबदल की दलदल में उतरीं रीता बहुगुणा जोशी, आखिर डीएनए भी कोई चीज़ है!

रीता बहुगुणा जोशी बहु-गुणी हैं। एक दिन वह राहुल गांधी की सिपाही हैं। दूसरे दिन वो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की शरण में। बीजेपी तो उनकी धुर विरोधी रही। उनकी पूरी राजनीति बीजेपी की विचारधारा को कोसने के इर्द-गिर्द ही घूमी।

Updated on: 20 Oct 2016, 09:06 PM

नई दिल्ली:

रीता बहुगुणा जोशी बहु-गुणी हैं। एक दिन वह राहुल गांधी की सिपाही हैं। दूसरे दिन वो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की शरण में। वो तो बीजेपी उनकी धुर विरोधी रहीं। उनकी पूरी राजनीति बीजेपी की विचारधारा को कोसने के इर्द-गिर्द ही घूमी।  

मुज़फ्फरनगर दंगे हों या दलितों की पिटाई का मामला या फिर बीफ कॉंट्रोवर्सी। अमित शाह पर उन्होंने फब्तियां कसने में कमी नहीं छोड़ी। उन्ही शाह ने उनका पार्टी में गर्मजोशी से स्वागत किया। यूपी में कांग्रेस की ओर से जो चुनिंदा आवाजें बीजेपी की ‘कम्यूनल’ राजनीति की बखिया उधेड़ती मिलीं, उनमें रीता बहुगुणा जोशी सबसे मजबूत आवाज थीं। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि वो बिफर गईं और बीजेपी की राह पकड़ ली। तो सवाल ये उठता है कि ऐन चुनाव के वक्त वो दलबदल की दलदल में कैसे घुसीं।

उनकी कहानी तो ठीक ही चल रही थी। चूंकि पार्टी की पुरानी और गरिमामयी नेता थीं इसलिए शायद कुछ ख्वाब भी थे उनके। लखनऊ में रहकर सत्ता की चाबी की तलाश उन्हें भी थी। कांग्रेस के युवराज से भी अच्छी छन रही थी। मगर प्लॉट में ट्विस्ट तब आया जब सीन में शीला ने ऐंट्री ली। शीला बड़ी प्रभावशाली थीं।

केजरीवाल से शर्मनाक हार के बाद संन्यास में थीं, मगर स्क्रिप्ट राइटर प्रशांत किशोर की फरमाइश पर कांग्रेस के प्रोड्यूसर, डायरेक्टर और ऐक्टर राहुल गांधी ने यूपी कि अपनी नई फिल्म के लिये उन्हे ही लीड के तौर पर चुना। राजनीति में भी टीआरपी की ज़रूरत होती है। वो मज़हबी या जातिगत तड़के से ही लाई जाती है। चूंकि मज़हबी तड़के के एक्सपर्ट उनकी पार्टी में अब न के बराबर हैं और चूंकि ये काम सत्ताधारी पार्टी बखूबी कर रही है, इसलिये जातिगत तड़के की ही गुंजाइश बची थी।

तो शीला दीक्षित को रिटायरमेंट से वापस लाया गया। झाड़-पोंछ कर एक पुराना लबादा निकाला गया। उन्हे विकास की देवी के रूप में दिखाने की योजना बनाई गयी।

यूपी में कांग्रेस गुम होने की कगार पर आ गई थी। इसलिए पार्टी में नई जान फूंकने के लिये कांग्रेस ने अपनी एक वयोवृद्ध नेता को तैयार किया।

कांग्रेस की नजर अपने पुराने वोट बैंक पर थी। यानि ब्राह्मण और दलित वोट को दोबारा जुटाना। चूंकि मायावती के रहते दलित वोट पर पर सेंध लगाना मुश्किल था, इसलिए कांग्रेस ने ब्राह्मण कार्ड खेला। और फिर शीला दीक्षित मुख्यमंत्री का चेहरा बना कर पेश कर दी गईं। राहुल और प्रशांत किशोर की साझा सर्जिकल स्ट्राइक में रीता बहुगुणा जोशी बुरी तरह घायल हो गईं।

बस, यहीं पर एक मिस्टेक हो गई। शायद ये फैसला भी उस समय लिया गया जब युवराज राहुल आस्तीन चढ़ाते हुए अपने मन की बात कह रहे थे। आस्तीन चढ़ाते समय वो बड़े अलौकिक काम कर जाते हैं। जब अपनी गलती का एहसास होता है तब तक तो तीर कमान से निकल चुका होता है। ये अलग बात है कि बूमरैंग की तरह वो तीर उन्हीं को आकर छलनी करता है।

बहरहाल, इधर राहुल ने आस्तीन चढ़ायी और उधर दिल्ली से नवाबों की नगरी लखनऊ की तरफ शीला ने कूच किया। बस, यहीं कहानी एक नया मोड़ लेती है।

चुनाव नगरी में नई देवी के आगमन से क्षुब्ध रीता बहुगुणा जोशी दिल मसोस कर रह जाती हैं। उनके सारे ख्वाब धरे के धरे रह जाते हैं। उनकी लॉयल्टी का उन्हे ये सिला मिलेगा इसकी कल्पना भी उन्होने नहीं की थी। वो क्या शीला से कमतर ब्राहम्मण थीं। वैसे भी शीला तो एडल्ट्रेटड ब्राहम्मण हैं। वो आधी सिखणी हैं। रीता तो खालिस ब्राह्मण थीं। उनको ये तिरस्कार कबूल नहीं था। उनके सपने वो इतने आसानी से कैसे बिखरने दें। उनके डीएनए ने उबाल मारा। उन्होने अपने इतिहास में झांका। वो इतिहास की प्रोफेसर जो रही हैं। उन्होने अतीत में झांका तो पाया कि वो कभी साइकिल की सवारी भी करती थीं। कैंची चलाने की खूब प्रैक्टिस की। मुलायम की सपा में उतने भर की ही इजाज़त थी। फिर सोनिया और गांधी परिवार से अपना दामन बांधा। यानि ऐसा पहली बार नहीं है कि उन्होने पार्टी बदली हो।

बहुगुणा परिवार के डीएनए में दलबदलू वायरस मिलेगा। पिता हेमवती नंदन बहुगुणा कभी कांग्रेस के कद्दावर नेता थे। फिर जब वो कांग्रेस से निकले तो कांग्रेस के ही एक नये-नवेले नेता-कम-ऐक्टर से चुनाव हार गये। इलाहाबाद उनका अंतिम अरण्य था। उनका बेटा और रीता के भाई भी जब जजशिप से रिटायर हुये तो सीधे राजनीति का दरवाज़ा खटखटाया और जज साहब उत्तराखंड के सीएम भी बने। फिर एक दिन चीफ मिनिस्टर नहीं रहने के बाद उन्हे लगा दरअसल वो गलत पार्टी में आ गये हैं और ये कि उनकी सरीखी पार्टी तो बीजेपी है।

बस, दूसरे दिन वो 11 अशोक रोड के चक्कर काटते मिले। आज विजय बहुगुणा पहाड़ों में कमल खिला रहे हैं।

बहन प्रोफेसर थीं मगर पिता की तरह चूंकि ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर राजनीतिक माहौल में हुआ, इसलिये कैम्पस की लाइफ रास नहीं आयी। राजनीति में पदार्पण सहज था और सहर्ष स्वीकारा गया। मगर डीएनए ऐसा था कि एक पार्टी में टिक पाना भी कठिन था।

पार्टी दर पार्टी दरवाजे खुलते गए और वो सबको यूं ही गले लगाती गईं। ये उनके परिवार का भी इतिहास था। इस जीन्स को आगे बढ़ाना उनका कर्तव्य था। जिस प्रोड्यूसर, डायरेक्टर पर इतना भरोसा था उसने ही लीड हिरोइन बदल डाली थी।

ऐसा नहीं कि नया प्रोड्यूसर, डायरेक्टर उनके सपने पूरे करेगा। सच तो ये है कि सपने देखने का जितना हक रीता जोशी को है उतना ही अमित शाह को। उतना ही जितना अखिलेश या मुलायम को। कुछ सपने पूरे भी होते हैं। और कुछ मंज़िल तक पहुंचने से पहले ही बिखर जाते हैं।

राजनीति सपने के पीछे भागने की अदभुत रेस है। रीता सपने में साइकिल नहीं चलाना चाहती थीं। क्योंकि इस बार साइकिल में हवा कम है और कुछ लोग तो ये भी कह रहे कि टायर पंचर है।

दूसरी तरफ कांग्रेस है जिसके नये युवराज राज्य-दर-राज्य अपने हाथ राजनीतिक हार से लहु-लुहान कर चुके हैं। रीता को कमल दिखा। लेकिन इसके लिये दलबदल के दलदल में उतरना ज़रूरी था। उम्र की इस दहलीज पर शीला की तरह उनकी भी यही परिणिति है। कहीं तक पहुंच कर भी कहीं तक न पहुंचना। 

इस लेख में प्रकाशित विचार लेखक के अपने हैं। इस लेख के इन विचारों से www.newsnationtv.com का सहमत होना ज़रूरी नहीं है।
लेखक प्रभात शुंगलू को आप उनके ट्विटर हैंडल @pshunglu पर भी फॉलो कर सकते हैं।