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कश्मीर के बचे 'अवशेष' भी इतिहास में बहाई गई खून की नदियों का पता देते हैं...

'आंधी' फिल्म के लोकप्रिय गाने 'तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा...' के बैकड्रॉप में फिल्माये गए मार्तंड मंदिर के अवशेष जम्मू-कश्मीर के हजारों ऐसे मंदिरों की कहानी सुनाने के लिए बचे हुए कुछ पत्थर भर हैं, जो इतिहास के वहशियों की पूरी करतूतों को उनकी संपूर्ण निर्ममता के साथ सामने लाते हैं.

Updated on: 16 Apr 2019, 10:03 AM

नई दिल्ली.:

"तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं, शिकवा नहीं, शिकवा नहीं
तेरे बिना जिंदगी भी लेकिन जिंदगी तो नहीं. जिंदगी नहीं जिंदगी नहीं"

'आंधी' फिल्म का यह गाना बीस साल से ऊपर की उम्र के शायद ही कुछ लोग हों जिनके कानों में नहीं पड़ा हो, लेकिन इस गाने को सुनने से भी बेहतर इसको देखना लगता है. हालांकि इसको कई-कई बार देखने के बाद भी लोग उस चीज को नहीं देख पाते हैं, जो इस गाने के साथ चलता हुआ एक दर्द का खामोश सा नग्मा है. कुछ पत्थर कैसे दर्द गा सकते हैं, कैसे पथराये हुए कानों में शीशा उड़ेल सकते हैं? अगर देखना है तो इस गाने को देख और सुन सकते हैं. यह गाना इतिहास की उस कहानी की ओर इशारा करता है, जिसको मिटाने की कोशिशों में पूरी सदियां गुजर गई हैं.

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इस गाने में जो खंडहर दिखाई देते हैं, उन खड़हरों में इतिहास का सबसे ज्यादा दर्दभरा नग्मा लिखा है. यह खडंहर सातवीं शताब्दी के एक करिश्माई शिल्प के नमूने और धरती पर इंसानी सोच का प्रतीक माने जाने वाले मार्तंड मंदिर के हैं. दरअसल यह सिर्फ इस मंदिर का नहीं, बल्कि हजारों ऐसे मंदिरों की कहानी सुनाने के लिए बचे हुए कुछ पत्थर हैं, जो इतिहास के वहशियों की पूरी करतूतों को सामने लाते हैं. यह अलग बात है कि हत्यारों के ऐसे गिरोहों को दया का सागर सिद्ध करने में दिल्ली के अंग्रेजी पत्रकारों के समूहों और वामपंथी इतिहासकारों के झुंड एक अलग ही इतिहास लेकर आ गए हैं. जैसे-जैसे आप बढ़ते जाते हैं, इतिहास की नदी आपको रास्ता देती जाती है.

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कश्मीर में अलगाववादियों के हाथों बिरयानी खाने या कश्मीर में छुट्टा घूमते लोगों की नजर में अपने को विद्वान साबित करने के लिए हिंदुस्तान को गाली देने वाले पत्रकारों की जमात वहां पहुंच कर जो कहानियां लिखती है वे ऐसी ही होती हैं जैसी उनकी समझ में आती हैं. मैंने कई बार ऐसी यात्राओं में दिल्ली से साथ गए पत्रकारों से बात की और समझा कि वे 'डेयरिंग रिपोर्टिंग' करने जा रहे हैं. 'डेयरिंग रिपोर्टिंग' का मतलब है कि वे सुरक्षा बलों की ज्यादितियों की उन कहानियों का पर्दाफाश करने जा रहे हैं, जो उनको वहां के 'मोटिवेटिड' लोग सुना देंगे. यह अलग बात है कि सफर वे सुरक्षा बलों की गाड़ियों में ही करेंगे. उनके मैस में रूकना, खाना-पीना जैसे रात के इंतजाम भी सुरक्षा बलों के ही जिम्मे होते हैं. ऐसे लोगों को इतिहास से बस इतना ही साबका होता है, जितना कि एक सिगरेट खरीदने के लिए पान के खोखे पर रूककर सिगरेट खरीदना. फिर उस सिगरेट वाले के बारे में सालों बाद कहीं सोचना. इतिहास ऐसे पत्रकारों की निगाह में वह पान के खोखे वाला है जिसने इन्हें पान मसाला या फिर सिगरेट का पैकट दिया था. हर रोज नया भी हो सकता है या फिर दूसरे शहर में दूसरा... तीसरे शहर में तीसरा.

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लेकिन कहानी मंदिर की... इन खूबसूरत अवशेषों से ही पता चलता है कि यह मंदिर कितना खूबसूरत रहा होगा. इस खूबसूरत मंदिर को कश्मीर के कर्कोटा राजवंश के सबसे प्रतापी राजा ललितादित्य मुक्तपीड़ ने बनवाया था. ललितादित्य मुक्तपीड़ वह शासक हैं, जिनका वामपंथी इतिहासकारों ने बहुत कुछ उल्लेख शेष भारत की किताबों में नहीं किया है. ललितादित्य हिंदुस्तान के महान शासकों में से एक हैं. इनका कहना था "नदियों के लिए सीमा समुद्र है, लेकिन विजेताओं के लिए कोई कोई सीमा नहीं है". यह मंदिर मातन नाम की जगह पर बनाया गया. सूर्य के नाम मार्तंड के नाम पर बना यह मंदिर भव्यता में उस वक्त की दुनिया की तमाम क्षेष्ठ इमारतों में शामिल था.

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जरा अंदाजा लगाइए... इसमें 84 विशाल स्तंभ थे. अनंतनाग में इस मंदिर को बनाने के लिए चूने के पत्थर की चौकौर ईंटों का इस्तेमाल किया गया. कई सौ साल तक यह मंदिर इंसानों को अपनी उंगलियां मुंह में देने के लिए विवश करता रहा, लेकिन समय का चक्का बदला और कश्मीर में इस्लाम का आगमन हुआ. फिर उसके धर्मांध शासकों ने जनता को जमीन में उतार दिया और तीन ही विकल्प दिए... धर्मांतरण, देश निकाला या फिर मौत. इस 'खुरैंजी खेल' को दिल्ली के पत्रकार खासतौर से दलाली के सिद्धहस्त और अंग्रेजी के पत्रकार लिखते हैं ऋषि इस्लाम.

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यह उसी दौर की कहानी है. अब इंसानों को तो बदला जा सकता था, लेकिन उन मंदिरों का क्या किया जाए जिनकी खूबसूरती रोज इन सुल्तानों और उन धर्मांधों की आंखों में गड़ती थी जो सिर्फ इस्लाम के लिए ही वहां थे. तब लगा कि शिल्प के इस नायाब नमूने को तोड़ना ही एकमात्र उपाय है. इस काम को हर बादशाह ने जोर-शोर से किया, लेकिन सुल्तान सिकंदर ने तो अपना नाम ही सिंकदर बुतशिकन रख लिया था. हर शहर के मंदिर को धूल में मिलाते हुए सुल्तान की नजर विश्व प्रसिद्ध मार्तंड सूर्य मंदिर पर पड़ी. इस भव्य मार्तण्ड सूर्य मंदिर को तोड़कर पूर्णत: बर्बाद करने में एक वर्ष का समय लगने के बाद भी सुल्तान जब अपने काम में सफल नहीं हो सका, तब कला-संस्कृति और ईश्वरीय सौंदर्य से भरपूर इस मंदिर में लकड़ियों को भरकर आग लगवा दी.

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मंदिर के स्वर्ण जड़ित गुम्बद की अलौकिक आभा को बर्बाद होते देख, सुल्तान हंसता रहा और उसे खुदा का हुक्म मानकर तबाही के आदेश देता रहा. मंदिर की नींव में से पत्थरों को निकलवाया गया. मंदिर के चारों ओर के गांवों को इस्लाम कबूल करने के आदेश दे दिए गए. जो नहीं माने उन्हें परिवारों समेत मौत के घाट उतार दिया गया. इस तरह से सैकड़ों गांव इस्लाम में धर्मांतरित कर दिए गए. इस मार्तंड मंदिर के खंडहरों को देखकर आज भी इसके निर्माणकर्ताओं के कला-कौशल पर आश्चर्य होता है.

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इतिहास से मुंह फेरने का काम किस तरह से हुआ है...अगर इस बात को देखना है, तो आप गूगल पर जा कर मार्तंड सूर्यमंदिर टाइप करे आपके सामने सैकड़ों बेबसाइट्स खुल जाएंगी. सभी में इस मंदिर की खूबसूरती की कहानी लिखी होगी, लेकिन इस मंदिर को किसने तोड़ा यह बात लिखी हुई शायद ही कहीं दिखाई दे. यानि किसी भी वेबसाइट पर भी यह लिखने की हिम्मत कभी नहीं हुई कि कितनी कश्मीरियत से तैयार किया गया है आईएसआईएस के झंडे लहराने वाला मानस.

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