दिल्ली की राजनीति की अजातशत्रु शीला दीक्षित की कमी खलेगी
लगातार तीन बार दिल्ली के मुख्यमंत्री पद को सुशोभित करने वाली शीला दीक्षित के राजनीतिक मतभेद भले ही किसी से रहे हों, लेकिन मनभेद किसी से नहीं हुए.
highlights
- शीला दीक्षित को उनके विरोधी भी मिलनसार स्वभाव के कारण पसंद करते थे.
- भले ही राजनीतिक विरोध रहे हैं, लेकिन शीला दीक्षित का शत्रु कोई नहीं रहा.
- राजनीतिक जीवन के उत्तरार्ध में करप्शन के आरोप भी लगे.
नई दिल्ली.:
मरते दम तक कांग्रेस को नया जीवन देने में जुटी रहने वाली शीला दीक्षित को दिल्ली की राजनीति का अजातशत्रु कहा जाए तो गलत नहीं होगा. लगातार तीन बार दिल्ली के मुख्यमंत्री पद को सुशोभित करने वाली शीला दीक्षित के राजनीतिक मतभेद भले ही किसी से रहे हों, लेकिन मनभेद किसी से नहीं हुए. इसका अंदाजा ऐसे भी लगाया जा सकता है कि इस संसदीय चुनाव में उन्हें हराने वाले दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी चुनाव जीतने के बाद उनका आशीर्वाद लेने घर पर गए थे. यहां तक कि दिल्ली के वर्तमान सीएम अरविंद केजरीवाल जिस तरह दिल्ली के एलजी पर काम नहीं करने देने का आरोप लगाते आ रहे हैं, शीला दीक्षित का बतौर सीएम रहते हुए शायद ही कभी दिल्ली के एलजी से कभी किसी मसले पर विवाद हुआ हो. राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी शीला दीक्षित को उनके मधुर और मिलनसार व्यवहार के लिए पसंद करते थे.
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एक्सीडेंटली शुरू हुआ राजनीतिक सफर
शीला दीक्षित उन खांटी कांग्रेसी नेताओं में शुमार होती थीं, जिनकी लोकप्रियता दिल्ली और कांग्रेस से परे थी. हॉलीवुड फिल्मों और बेहतरीन संगीत को पसंद करने वाली शीला दीक्षित का राजनीतिक सफर एक तरह से एक्सीडेंटली ही शुरू हुआ. कपूरथला के एक गैर राजनीतिक पंजाबी खत्री परिवार में जन्मीं शीला का प्रेम विवाह विनोद दीक्षित से हुआ था, जो स्वाधीनता संग्राम सेनानी और कांग्रेस के दिग्गज नेता उमा शंकर दीक्षित के बेटे थे. हार्ट अटैक में पति विनोद को गंवाने वाली शीला दीक्षित अपने केंद्रीय मंत्री ससुर उमा शंकर का कामकाज देखा करती थीं. यहीं उन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नजर पड़ी और उन्होंने शीला दीक्षित को संयुक्त राष्ट्र में महिलाओं की समिति का अध्यक्ष बना दिया.
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गांधी-नेहरू परिवार से हमेशा रही नजदीकी
शीला दीक्षित हमेशा से ही गांधी-नेहरू परिवार के नजदीक रहीं. यही वजह है कि राजनीतिक सफर 1984 में कन्नौज से शुरू करने में कोई दिक्कत नहीं आई. फिर राजीव गांधी के कार्यकाल में उन्हें केंद्रीय मंत्री की जिम्मेदारी दी गई, जिसे उन्होंने सफलता के साथ निभाया. उन्हें एक बार उत्तर प्रदेश के सीएम प्रत्याशी बतौर पेश किया गया, लेकिन उन्होंने मना कर दिया. सक्रिय राजनीति से कुछ समय दूर रहने के बाद 1998 में शीला दीक्षित ने फिर दिल्ली की राजनीति का रुख किया और महंगाई के मुद्दे पर बीजेपी के सत्ता से बाहर हो जाने के बाद वह दिल्ली की सीएम बनीं. इसके बाद तो वह लगातार 2013 तक दिल्ली की सीएम बनी रहीं. दिल्ली में उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि अरविंद केजरीवाल के सीएम बन जाने के बावजूद दिल्ली वासी उन्हें उनके विकास कार्यों की वजह से याद करते रहे. सिर्फ दिल्ली वासी ही क्यों अन्य राजनीतिक दलों के नेता भी दिल्ली के विकास में उनके योगदान का भरपूर श्रेय देने से कभी नहीं चूके.
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बेदाग जीवन पर लगे धब्बे
बेदाग राजनीति करने वाली शीला दीक्षित पर कई आरोप भी लगे. इनमें सबसे पहला आरोप 2009 में केंद्र सरकार की जवाहर लाल नेहरू नेशनल अर्बन रीन्यूअल मिशन के तहत मिले 3.5 करोड़ रुपये को लेकर लगा. हालांकि मामले की जांच कर रहे लोकायुक्त ने इस आरोप को खारिज कर दिया. इसी साल शीला फिर विवादों में घिरीं, जब उन्होंने हाई प्रोफाइल जेसिका लाल हत्याकांड के दोषी मनु शर्मा के परोल को मंजूरी दे दी. इसके बाद कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर उनकी सरकार पर कई आरोप करप्शन के लगे. शीला का लंबा राजनीतिक करियर यहां से ढलान पर पहुंचने लगे था क्योंकि उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप कम होने का नाम नहीं ले रहे थे. इसके बाद अन्ना आंदोलन के सक्रिय सदस्य अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की सत्ता उनसे छीन ली. फिर रही सही कसर इस लोकसभा चुनाव ने पूरी कर दी. हालांकि हार के बावजूद शीला दीक्षित कांग्रेस को जिलाने के लिए प्रयासरत रहीं. कह सकते हैं कि कांग्रेस ने शीला दीक्षित के रूप में एक ऐसा नेता खो दिया है, जिसकी छवि पार्टी और प्रदेश की सीमाओं से परे थी.
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