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देश के मूड को समझने में क्यों विफल रहा 'लुटियंस दिल्ली'

बांटने वाली राजनीति के साथ खड़े हुए इन लोगों को जहां भी मौका मिला इन्होंने सिर्फ अफवाहों को हवा दी या फिर पीला मौजा और काले जूतों पर सवाल उठा दिए

Updated on: 27 May 2019, 09:44 PM

नई दिल्ली:

'500 सीट भी मिल जाएं तब भी मैं इस बात को नहीं मानूंगा कि मोदी जनता के सवालों के जवाब देते है'. एक का कहना है कि वो गांधी को मानते है इसीलिए जनादेश नहीं मानेंगे. कुछ बौंनों को पुलवामा भी अपनी ही सरकार का षडयंत्र दिखा. चुनाव के रुझान आने शुरू हुए थे और दिखने लगा था कि एनडीए सरकार में वापसी कर रही है. स्टूडियो में बैठा हुआ टीवी देख रहा था कि एक टीवी पर नजर गई तो जिज्ञासावश आवाज तेज की और कुमार साहब को सुना. बहुत बार उनकी निष्ठाओं को देखा है और इसी धंधें में हूं तो जानता भी हूं कि उनका मतंव्य क्या है. ऐसे में नहीं लगा कि ये कोई नया विद्रोह है और मैं जानता था कि अगर जीत नहीं होती तो इस आदमी का क्या बयान होता. ये कोई एक आदमी का बयान नहीं जिसको बहुत बुद्धि है, ये तो एक पूरी जमात है जिसके लिए चुनाव, संविधान, कोर्ट और जनता सिर्फ साधन है, खिलौने है जब तक उनका मन बहलाते है ठीक है नहीं तो वो दो कौड़ी के हैं. ये पूरी जमात है जिसको अब प्नया नाम मिला है, खान मार्किट गैंग या फिर लुटियंस की जमात. देश की राजनीति के इस दौर में मैं भी ऐसा काम करने लगा जिसको लोग अब एक पेशा मानते है. और मैं जब आया तब से ही एक पेशा मानता हूं. खैर कहानी इसी जनादेश के इर्द-गिर्द हो तो बेहतर है, आदतन भटकना ठीक नहीं है.

जनादेश पर आज हिदुंस्तान टाईम्स में फिर से एक आर्टिकल आया. वैसे तो जिस दिन से एक्जिट पोल के आंकड़े आए थे उसी दिन से जनादेश के लिए कहानियां और किस्सें गढ़ने की कवायद शुरू हो गई थी, क्योंकि जनता मान ही नहीं रही थी इन साहब लोगों की बात. ये लोग उनके लिए खेतों में भी गये कई बार तो ये लोग घरों में जाकर गैस सिलेंडर उठाकर देख रहे थे. बेचारे उन हाथों ने जिन्होंने कभी माईक के अलावा बस जाम का वजन उठाया हो ये काफी मुश्किल काम था. चुनाव में मैं भी बौंनों की भीड़ में शामिल घूम रहा था. जो मुझे समझ आ रहा था गा रहा था और उनको जो समझ आ रहा था वो छुपा रहे थे. इतने दिन एक विचारधारा से लड़ने का स्वांग करते हुए इन मसीहाओं की सर्टिफिकेट बांटने की ताकत से मैं भी डरा हुआ था. आखिरकार उन्होंने ये घोषित कर दिया कि ये भी भक्त हैं तो फिर गई मझदार में नैया. लेकिन जनादेश आ ही गया. ये कोई गाली गलौज करने के लिए नहीं लिख रहा हूं मैं बस जनादेश समझना चाहता हूं कि वो अल्टरनेटिव पॉलिटिक्स की उनकी विचारधारा क्या थी जिसको वो कभी कहीं से पकड़ कर जिंदा करने की कोशिश में रहते है कभी-कभी कही से.

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अब ये क्या अल्टरनेटिव है इसको समझते हैं. दिल्ली में ये अल्टरनेटिव आम आदमी पार्टी रहा. वही पार्टी जिसका मसीहा पांच सालों से एक ही उलटबांसी में जुटा रहा कि वो नरेन्द्र मोदी को गालियां देने की कोई प्रतियोगिता हो तो उसको जीत सकें. उसके पास राज्य था और जनता का अप्रतिम प्यार भी लेकिन वो कम था. पांच साल पहले वो शख्स मुझे बेनियाबाग में सिर्फ मुसलमानों का वोट मांगता हुआ दिख रहा था. बनारस में मेरे गुरू लेकिन उल्टी हाथ की राजनीति के कायल भी मिले. उनका कहना था कि ये देश में राजनीति का बदलाव है मैंने पूछा गुरू क्या हम लोग राजनीति में इस तरह से सपोर्ट कर सकते हैं, तो उनका कहना था कि जब लड़ाई देश की हो तो फिर हर किसी को मैदान में आऩा चाहिए. ये अलग बात है कि जब देश की जनता ने वोट दिया देश के नाम पर ही दिया तो उन्होंने देश की जनता को ही बहका हुआ बता दिया और सेक्युलरिज्म के उस मसीहा को जो सिर्फ मुसलमान वोट मांग रहा था अगला विकल्प बता दिया. खैर गुरू जी तो मेरे अभी भी है इस बार चुनाव से विकल्प गायब हो गया. दिल्ली में गठबंधन के लिए रिरियाता हुआ दिखा और वो भी उस पार्टी से जिस पार्टी के भ्रष्ट्राचार के खिलाफ गालियां देकर बच्चों के सिर पर हाथ रख कर उस पार्टी से कभी रिश्ता न ऱखने की कसम खा कर नायक की भूमिका हासिल की थी. आशुतोष ( कभी एक पत्रकार हुआ करते थे और उसी पत्रकारिता की आड़ में नायक की चरणवंदना कर अपने लिए राजनीति की सीट के लिए पत्रकारिता की सीट छोड़ कर निकले थे) जैसे बौंनों की स्तुति से वो नायक आज अपने शबाब पर दिल्ली को सीधे यूएनओं से संबद्ध कराने में जुटा रहा. दिल्ली में चुनाव से ठीक पहले गैंग ने उसको दिल्ली में कम से कम तीन सीटों पर जीतने का दावेदार तीन सीटों पर जमानत भी नहीं बची.

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इसके बाद इस गैंग ने अपनी उम्मीद को यूपी में जिस गठबंधन पर रखा और अपनी आड़ रखी समावेशी राजनीति वो था महागठबंधन. और महागठबंधन इसलिए क्योंकि ये अंकगणित में महा बैठता है. कैराना, गोरखपुर और फूलपूर की हार का विश्लेषण अपनी मर्जी मुताबिक कर बीजेपी के विरोध की आंधी को चलना स्थापित कर दिया. जमीन पर घूम रहे पत्रकार इस व्याख्या से उलट जमीन देख रहे थे लेकिन ये गैंग अपनी भाषाई ताकत को दिल्ली में दिखा कर एक अलग ही नरैटिव सैट कर रहे थे. बनारस की गलियों में घूम रहा था तो अल्पसंख्यकों के मोहल्लों में रात की रौनक देखता हुआ चल रहा था. मदनपुरा,सोनारपुरा के अंदरूनी हिस्सों में रात के 11 बजे काफी चहल-पहल रहती है और लोग चाय की दुकानों पर आराम से मिलते हैं. ऐसी ही गलियों में लगी बेहद सुंदर एलईडी लाईट की रोशनी जमीन पर बिछी नई टाइलों पर तैरती सी दिख रही थी. मैंने पूछा कि क्या कुछ काम किया है मोदी ने तो जवाब अपेक्षित कुछ काम नहीं किया है. मैंने पूछा ये लाईट्स तो जल रही है तो एक और जवाब आया कि ये तो अमित शाह के बेटे की कंपनी को टेंडर दिया गया है उसके लिए लगी हैं. ये कोई नई बात नहीं थी लेकिन जब मैं ऐसे ही एक इंग्लिश जबान के रिपोर्टर से पप्पू की दुकान में बात कर रहा था तो उसने मुझे यही कहानी सुना दी. मैं कतई हैरान नहीं था क्योंकि इस बार का नरैटिव उन लोगो ने हिंदु मंदिरों का टूटना तय किया. मणिकर्णिका तक विश्वनाथ कारिडोरबनने की प्रकिया में कुछ मंदिर घरों से मिले तो उस बात को शिवलिंगों का अपमान लिखना शुरू किया और आसमान में जालों की तरह बिखरे बिजली के तारों के जमीन में जाने पर होने वाली परेशानियाों का जिक्र था.

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वाराणसी में बाबा विश्वनाथ के मंदिर के आसपास कब्जा जमाएं और मंदिरों को घरों में बंद कर अवैध तौर पर रहने वाले लोगों से कब्जे को हटाने की शुरूआत को ही मुद्दा बना दिया. और हैरानी दिखी कि मंदिर के नाम पर गाली बकने वाले तमाम बौंने अचानक सरकार पर हिंदुओं की आस्था का अपमान करने की कहानियों के साथ तैयार हो गये. ये एक और झूठे नरेटिव को पालना था लेकिन ऐसे बहुत से एक के बाद एक झूठ तैयार हुए जो यात्रा करने पर साफ चुगली करते रहे. 

खैर बात गठबंधन की. पूरी तरह जातिवादी कबीलाई राजनीति के प्रतीक के तौर पर उभरे इस गठबंधन में शामिल होने वाले हर आदमी को मसीहा बनाने की पूरी कवायद कर रहे कुमार को लग रहा था कि जनता बस गलियों में आकर उसके साथ सेल्फी खिचांने वाली है. यूपी में जातिवादी राजनीति ने मुस्लिम मतों का इस्तेमाल हमेशा अपने करप्शन को छिपाने के लिए एक शील्ड के तौर पर किया है. इसको आप कभी से कभी तक जाकर देख सकते हैं और मुस्लिम मतो ने एक धुव्रीकरण की प्रक्रिया को खुद ही हवा दी है. आप इस बात के लिए कही भी कभी भी सैंपल ले सकते है और इसकी जिम्मेदारी बहुत सफाई से ये बौंने बहुसंख्यकों पर डालते रहे. जनता ये सब देखती रही. चुनाव से पहले पांच साल के बीच अगर चुनाव नहीं हुआ तो गठबंधन के नेता सड़क पर नहीं दिखे और मोदी विरोध ट्वीटर पर ही दिखता रहा. लेकिन ये बौंने उसी गठबंधन को एक समावेशी राजनीति का प्रतीक बनाते रहे. कोई अपरकॉस्ट का स्टार प्रचारक नहीं, तीन क़ौम के एक गठबंधन को सर्वशक्तिमान मान कर बाकि तमाम जातियों से मुंह फेरने को जीत के रणनीति साबित करने वाले मीडिया ने टिकट वितरण में माफिया डॉन के चेहरे पर भी कोई सुगबुगाहट नहीं की, क्योंकि उनको विचारधारा की लड़ाई लड़नी थी और एक चांद पर बैठी हुई जनता के आदर्शों को बचाने की लड़ाई लड़नी थी. यानि जातिवादी राजनीति के सहारे जातिवाद का विरोध कर रहे थे ये महान बौंने.

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बंगाल की सीमा में घुसते ही हवाओं में डर भांप सकते है जिस किसी दुकान से कुछ खरीद कर कुछ पूछने की कोशिश करोगे तो जल्दी ही लग जाएगा कि ये हिमाकत है. उसके बाद आगे की ओर चलते रहे तो अभिव्यक्ति सहमी सी दिखती है. किसी आदमी को भी कैमरे के सामने बोलने से घबराहट होती है. आप किसी के सामने माईक लगा दें, वो नाराज भी होसकता है. पूरे देश में रिपोर्टिंग की है दक्षिण भारत के उन राज्यों में भी जहां भाषाई परेशानियां होती है संवाद में, लेकिन आदमी मुखर रहा. लेकिन बंगाल ने तो जैसे किसी भी गैर बांग्लाभाषी को गैर ही मान लिया. डर और अनजाना सा खौंफ आपको हर तरफ पसरा हुआ दिख रहा था. मेरे दोस्त जो बंगाल एडमिनिस्ट्रेशन में ऊंची जगहों पर है तो दूसरी ओर सीनियर पत्रकार जाहिर है कि अंग्रेजी या बांग्ला के ही होगें, सबसे बात की तो लगा कि ये कौन सी दुनिया के लोग हैं. वो हिंसा और बूथ रिगिग को भी जायज ठहराते हुए इसको ममता बनर्जी की ताकत मान रहे थे. उनको यकीन था कि इसी के सहारे मुस्लिम मतों की एकमात्र ठेकेदार ममता बनर्जी बीजेपी जैसे फॉसिस्ट ताकत को रोक लेंगी. जय श्रीराम के नारों या फिर दुर्गापूजा जैसे त्यौहारों पर अपने रवैये को लेकर अक्सर आलोचनाओं में घिरी रहने वाली ममता इस बात के लिए पूरी तरह सजग हैं कि वो उम्मीद से ज्यादा कट्टर दिखाई दे. लेकिन ये सब दिल्ली के उस गैंग के बदलाव की उम्मीद थी. बंगाल में आपको कई जगह जाकर लग सकता है कि शायद ये सब देश के लिए ठीक नहीं है और एकता और अखंडता को चोट पहुंच सकता है, लेकिन वो सब देश को सराय बनाने और मानने वाले इन कुमार जैसे अखंड अनुरागी लोगों को मोदी का जवाब दिख रहा था. 

ये सिर्फ कुछ उदाहरण है जिनसे आपर ये समझ सकते है कि देश के मूड को समझने में ये लूटियंस दिल्ली क्यों विफल रहा. बांटने वाली राजनीति के साथ खड़े हुए इन लोगों को जहां भी मौका मिला इन्होंने सिर्फ अफवाहों को हवा दी या फिर पीला मौजा और काले जूतों पर सवाल उठा दिए. आपने पहले सीधे हाथ से टुकड़ा तोड़ा ये इनका सबसे पहला सवाल था. उपमहाद्वीप के अलग अलग देशों में मुस्लिम कट्टरपंथ या उग्रवाद से पीड़ित लोगों को अगर इस देश में लेने की बात की गई तो एमएचए की कवरेज करने का महती कार्य कर रहे. इसी तरह के बौंनों ने इसको ही सांप्रदायिक मान लिया. यानि देश की जनता जिस काम को करना चाह रही थी ये बौंने अचानक उपदेशक बन कर कहानियां सुनाने लगे. इनको दिखा नहीं कि 27 से 6 फीसदी में बदलना और 14 से 1.5 फीसदी हो जाने की प्रक्रिया में कितना दमन शोषण हुआ होगा लेकिन इनको सिर्फ अमेरिकी न्याय चाहिए हालांकि अमेरिका जैसा राष्ट्रवाद नहीं. मैं स्टूडियों में बैठा हुआ ऐसे पत्रकारनुमा लोगों के बयान सुन रहा था जिनको विपक्षी प्रवक्ताओं से ज्यादा उस पार्टी का ख्याल रहता है कि अगर पुलवामा जैसा हादसा कांग्रेस के टाईम होता तो सब मीडिया उसके ऊपर चढ़ जाता और एक दूसरा लोकप्रिय सवालस इतना आरडीएक्स कहां से आया. लेकिन वो मूर्खों की तरह इस बात को भूल गए कि जनता को सब याद रहता है और पुलवामा नहीं बल्कि पुलवामा से कई सौ गुणा खतरनाक हमला मुंबई अटैक या फिर मुंबई में दाऊद का आतंकी हमला था उसके बाद के सरकार के काम इस बात का जवाब थे कि जनता क्यों इस सरकार की बात सुन रही है और तुम जैसे बौंनों की नहीं. हालांकि बौंनों की दुनिया में बौंना हूं तो जानता हूं कि कल फिर यही बौंने बता देंगे कि राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या है. कई बार लगता है कि कहानी तो तभी शुरू हो गई थी जब एक आदमी गुजरात से निकल कर दिल्ली की गद्दी पर काबिज हुआ और वो इंग्लिश नहीं जानता था, जो पहला दोष था और जिसने अंग्रेजी जानने वालों को विद्वान मानने से इंकार कर दिया, ये दूसरा अजीम तरीन अपराध था. एक और अपराध दिखा कि वो उनकी बताई गई कहानियों को सच भी नहीं मान रहा है.

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सत्ता के गलियारों में गूंज रही कहानियों में इन सब का क्या योगदान था वो मीडिया का हर शख्स जानता है. ऐसे में सत्ता के जाने का दुख सत्तारूढ़ पार्टी को इतना नहीं हुआ जितना इस जमात को हुआ. क्योंकि वैचारिक यहां कुछ भी नहीं था. रंगे हुए सियारोंकी जात दिल्ली के इलाकों में पहले से पता थी. लेकिन खेल बिखर गया तो अब क्या किया जाए. इसके बाद शुरू हुआ एक वैचारिक लड़ाई का लिबास तैयार करना. हारी हुई पार्टियां कही दुबक चुकी थी और उनके अंदर इस बात के लिए मंथन शुरू हो ही रहा था कि वो क्यों हारी कि तभी इस गैंग ने शुरू किया जेएनयू और अखलाख कांड को हिंदु मानसिकता से जोड़ना. पत्रकारिता से जुड़ा होने के नाते जानता था कि जिस बात को देश के तौर पर देखना चाहिए था वो देश के खिलाफ नफरत के तौर पर दिखाई जा रही है. एक देश की राजधानी में देश को तोड़ने के नारे लगाएं जा रहे है आतंकवादी की बरसी मनाई जा रही है और वो आतंकवादी देश की संसद पर हमला करने का गुनाहगार था सुप्रीम कोर्ट से सजायाफ्ता. लेकिन देश को सराय समझने वालों को लग रहा था कि ये एक आजादी का मुंडन है. लेकिन देश की जनता जानती है कि किसको क्या करना है. लिहाजा एक जनादेश ये भी है कि ऐसे बौंनों की बात को जनता ने धुआं धुआं करके उड़ा दिया है. अब वो सिर्फ झूठ की कहानियां सुना कर अपनी नफरत के लिए गांधीगिरी नाम के कवच तलाश करते रहेंगे. देश की जनता को मालूम है कि गांधी जी का सम्मान करने और दिग्विजय को जीताने में क्या अतंर है.
मीडिया के इन बौनों और जनता के रिश्तों को ये दो लाइन बेहतर बता सकती है,
"मेरे ख़ुदा तेरे मरासिम उनसे किस तरह के हैं वो लोग जो ख़ुदा बने हुए है जेरे आसमां"

(डिस्क्लेमर: इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने विचार हैं. इस लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NewsState और News Nation उत्तरदायी नहीं है. इस लेख में सभी जानकारी जैसे थी वैसी ही दी गई हैं. इस लेख में दी गई कोई भी जानकारी अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NewsState और News Nation के नहीं हैं तथा NewsState और News Nation उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.)