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Kumbh mela 2019 : जानिए क्या है कुंभ का आध्यात्मिक महत्व और तात्विक अर्थ

क्या आपको यह मालूम है कि कुंभ मेले का प्रथम लिखित प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है जिसमें छठवी शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुंभ का प्रसंगवान वर्णन किया गया है.

Updated on: 28 Dec 2018, 04:35 PM

नई दिल्ली:

कुंभ मेले का आयोजन चार जगहों हरिद्वार, प्रयागराज(प्रयाग), नासिक और उज्जैन में किया जाता है. यू तो देश में कुंभ मेले का आयोजन बहुत पुराने समय से हो रहा है. लेकिन क्या आपको यह मालूम है कि कुंभ मेले का प्रथम लिखित प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है जिसमें छठवी शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुंभ का प्रसंगवान वर्णन किया गया है. शास्त्रों के अनुसार इन चार विशेष स्थानो पर जिन पर कुंभ मेले का आयोजन होता है. नासिक में गोदावरी नदी के तट पर, उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर, हरिद्वार और प्रयाग में गंगा नदी के तट पर. सबसे बड़ा मेला कुंभ 12 वर्षो के अन्तराल में लगता है और 6 वर्षो के अन्तराल में अर्द्ध कुंभ के नाम से मेले का आयोजन होता है. वर्ष 2019 में आयोजित होने वाले प्रयाग में अर्द्ध कुंभ मेले का आयोजन होने वाला है.

इसके बाद साल 2022 में हरिद्वार में कुंभ मेला होगा और साल 2025 में फिर से इलाहाबाद में कुंभ का आयोजन होगा और साल 2027 में नासिक में कुंभ मेला लगेगा.

जानें क्या है कुंभ का आधयात्मिक महत्व

परम्परा कुंभ मेला के मूल को 8वी शताब्दी के महान दार्शनिक शंकर से जोड़ती है, जिन्होंने वाद विवाद एवं विवेचना हेतु विद्वान सन्यासीगण की नियमित सभा संस्थित की. कुंभ मेला की आधारभूत किवदंती पुराणों (किंबदंती एवं श्रुत का संग्रह) को अनुयोजित है-यह स्मरण कराती है कि कैसे अमृत (अमरत्व का रस) का पवित्र कुंभ (कलश) पर सुर एवं असुरों में संघर्ष हुआ जिसे समुद्र मंथन के अंतिम रत्न के रूप में प्रस्तुत किया गया था. भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत जब्त कर लिया एवं असुरों से बचाव कर भागते समय भगवान विष्णु ने अमृत अपने वाहन गरूण को दे दिया, जारी संघर्ष में अमृत की कुछ बूंदे हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयाग में गिरी. सम्बन्धित नदियों के प्रत्येक भूस्थैतिक गतिशीलता पर उस महत्वपूर्ण अमृत में बदल जाने का विश्वास किया जाता है जिससे तीर्थयात्रीगण को पवित्रता, मांगलिकता और अमरत्व के भाव में स्नान करने का एक अवसर प्राप्त होता है. शब्द कुंभ पवित्र अमृत कलश से व्युत्पन्न हुआ है.

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हिन्दू धर्मावलम्बी तीर्थयात्रीगण के बीच कुंभ एक सर्वाधिक पवित्र पर्व है. करोड़ों महिलायें, पुरूष, आध्यात्मिक साधकगण और पर्यटक आस्था एवं विश्वास की दृष्टि से शामिल होते हैं. यह विद्वानों के लिये शोध का विषय है कि कब कुंभ के बारे में जनश्रुति आरम्भ हुई थी और इसने तीर्थयात्रीगण को आकर्षित करना आरम्भ किया किन्तु यह एक स्थापित सत्य है कि प्रयाग कुंभ का केन्द्र बिन्दु रहा है और ऐसे विस्तृत पटल पर एक घटना एक दिन में घटित नहीं होती है बल्कि धीरे-धीरे एक कालावधि में विकसित होती है. ऐतिहासिक साक्ष्य कालनिर्धारण के रूप में राजा हर्षवर्धन का शासन काल (664 ईसा पूर्व) के प्रति संकेतन करते हैं जब कुंभ मेला को विभिन्न भौगोलिक स्थितियों के मध्य व्यापक मान्यता प्राप्त हो गयी थी. प्रसिद्व यात्री हवेनसांग ने अपनी यात्रा वृत्तांत में कुंभ मेला की महानता का उल्लेख किया है. यात्री का उल्लेख राजा हर्षवर्धन की दानवीरता का सार संक्षेपण भी करती है.

राजा हर्ष रेत पर एक महान पंचवर्षीय सम्मेलन का आयोजन करते थे, जहां पवित्र नदियों का संगम होता है और अपनी सम्पत्ति कोष को सभी वर्गो के गरीब एवं धार्मिक लोगों में बाँट देते थे. इस व्यवहार का अनुसरण उनके पूर्वजों के द्वारा किया जाता था.

प्रयागराज में कुम्भ

प्रयागराज में कुम्भ मेला को ज्ञान एवं प्रकाश के श्रोत के रूप में सभी कुम्भ पर्वो में व्यापक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है. सूर्य जो ज्ञान का प्रतीक है, इस त्योहार में उदित होता है. शास्त्रीय रूप से ब्रह्मा जी ने पवित्रतम नदी गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर दशाश्वमेघ घाट पर अश्वमेघ यज्ञ किया था और सृष्टि का सृजन किया था.

कुम्भ का तात्विक अर्थ

  • कुम्भ सृष्टि में सभी संस्कृतियों का संगम है.
  • कुम्भ आध्यत्मिक चेतना है.
  • कुम्भ मानवता का प्रवाह है.
  • कुम्भ नदियां, वनों एवं ऋषि संस्कृति का प्रवाह है.
  • कुम्भ जीवन की गतिशीलता है.
  • कुम्भ प्रकृति एवं मानव जीवन का संयोजन है.
  • कुम्भ ऊर्जा का श्रोत है.
  • कुम्भ आत्मप्रकाश का मार्ग है.