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कहानियों का कोना: सेकेंड इनिंग...

फिर कभी हॉबीज़, कभी सोशल इश्यू, कभी घूमने की पसंदीदा जगहों की बातें चलती रहीं। किसी ने भी मेरी ज़िंदगी के पिछले पन्ने को पलट कर देखने की कोशिश नहीं की।

Updated on: 12 Aug 2018, 05:56 PM

नई दिल्ली:

आज सुबह से घर में चहल-पहल थी। मां रसोई में मेहमानों के लिए नाश्ते और दोपहर के खाने की तैयारी कर रहीं थी। पूजा, मेरी छोटी बहन घर की सफ़ाई कर रही थी और मैं अपने कमरे में बैठा किसी किताब में बेमन से सिर घुसाए पड़ा था। नहीं, मैं स्टूडेंट नहीं था। दिल्ली की एमएनसी में मार्केटिंग मैंनेजर था, 10 साल का अनुभवी मार्केटिंग मैनेजर। लेकिन आज ऐसा लग रहा था, जैसे पहली कक्षा की परीक्षा में बैठने जा रहा हूं।

"आमोद...तैयार हो जा बेटा। आने वाले होंगे लड़की वाले।" रसोई की खिड़की से तेज़ मसाले की खुशबू के साथ मां की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी। मैं बेमन से उठा और तैयार होने लगा लड़कीवालों के सामने ख़ुद को पेश करने के लिए। कोफ़्त होती है मुझे इस सबसे। पिछले 6 महीने से यही तो कर रहा था मैं। हर छुट्टी वाले दिन तैयार होकर उन लड़की वालों के सामने बैठ जाना और उनके बेसिर-पैर वाले सवालों का जवाब देना...

"पहली शादी क्यों टूटी? वैसे आजकल तो ये तलाक-वलाक आम है।"
"बुरा मत मानना सुनने में आया कि आप रोज़ अपनी पत्नी से लड़ते थे।"
"अब भई तलाक़शुदा लड़के को कोई अपनी बेटी देगा तो पड़ताल तो करेगा ही।"

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ऐसे सवाल जलाते थे मुझे भीतर तक, किसी एसिड की तरह जो कानों से सीधा दिल पर जा गिरता हो। तलाक क्यों हो गया? क्या जवाब दूं मैं सबको इस सवाल का। दो लोगों के विचार नहीं मिले, और वो आपसी समझ से अलग हो गए। समाज की मानसिकता तो देखिए, हालात ये है कि किसी भी तलाक में लड़का ज़ुल्मी ही होगा और लड़की अबला। क्या ज़रूरी है कि हर रिश्ते का अंत किसी लड़ाई पर जाकर हो? मेरा भी नहीं हुआ था। बस मुझे और पहली पत्नी निधि को लगा था कि हम एक साथ ज़िंदगीभर नहीं रह सकते, तो अलग हो गए।

"आमोद-आमोद"
मां फिर से आवाज़ लगा रही थीं। मैंने फटाफट बालों में कंघी फिराई और बाहर चला आया। मां मोबाइल पकड़े खड़ी थीं। बोलीं, "वो लोग नहीं आ रहे। कह रहे थे कोई ज़रूरी काम आ गया है।"
मुझे महसूस हुआ था कि बोलते-बोलते मां की आवाज़ थोड़ा मद्धम हो गई। मैं जोर से हंसा। मां एकटक मेरे चेहरे को देखती रहीं पहले हैरानी से फिर तकलीफ़ से।
"चल जाने दे। हमारी तो दावत हो गई।" कहते हुए मां ज़रा सा हंस दीं, झूठी-खोखली हंसी।

सच बताउं तो मुझे अब दूसरी शादी में कोई दिलचस्पी नहीं थी। मां कहती थीं कि ज़िदंगी में एक साथी होना चाहिए। साथी ही तो चुना था निधि को और यकीनन उसने भी मुझे बतौर साथी चुना होगा। अरेंज्ड मैरिज थी हमारी। शुरु में सबकुछ ठीक रहा था। उसके बाद पहले घर की दिक्कतें शुरू हुईं, फिर हमारी परेशानियां। ऐसा नहीं है कि झगड़े नहीं हुए, या झगड़ों के बाद सुलह नहीं हुई। बस जो शादी के बंधन की डोर थी वो धीरे-धीरे कटती गई, रेशा दर रेशा।

कितने अरमान से बहू बनाकर लाईं थी मां निधि को। ख़ला था उन्हें निधि का हमें यूं छोड़कर चले जाना। उसके जाने के बाद ही मां ने मेरी दूसरी शादी का काम शुरू कर दिया था।

"मां, ज़रूरी है क्या शादी करना?" मैंने रोका था मां को।
मां ने "और नहीं तो क्या" से शुरू करके जीवन के आखिरी पड़ाव में पड़ने वाली जीवनसाथी की ज़रूरत पर जाकर बात ख़त्म की। मैं भी सहमत था मां की दलीलों से, तभी तो उनको हां कह दिया था। लेकिन उस वक़्त मैं नहीं जानता था कि मेरे लिए मतलब एक तलाकशुदा लड़के के लिए जीवनसाथी ढूंढना कितना मुश्किल होने वाला था।

रात का वक़्त था। उस रोज़ मैं ऑफ़िस का कुछ पेंडिंग काम घर लाकर ही निबटा रहा था।
"भइया..मां बुला रही खाने के लिए।" पूजा ने दरवाज़े पर दस्तक देते हुए कहा।
"तू यहीं ले आ। मैं काम करते हुए खा लूंगा" मैंने लैपटॉप स्क्रीन से निगाह हटाए बिना कहा।
"वो..मां को कुछ बात करनी है।" उसने कहा। मैं समझ गया क्या बात करनी थी मां को।

डायनिंग टेबल पर हम सब बैठे हुए थे। खाना परोसते हुए मां बोलीं, "तुझे याद है वो शर्माजी ने जो रिश्ता बताया था। अरे वही जो आने वाले थे पर आए नहीं।" याद दिलाने की कोशिश करते हुए कहा,"वो लोग कल आना चाहते हैं तुझसे मिलने। तू छुट्टी ले लेना कल।"
"लेकिन मां कल ज़रूरी है ऑफ़िस जाना। आप बोलो ना परसों आएं।" कहकर मैं अपने कमरे में चला आया।
मैं चाहता तो मैनेज कर सकता था। पर अब हिम्मत नहीं थी मुझमें ये सब फिर से झेलने की। लेकिन मां भी मां ही ठहरीं। मुझ पर अपना ब्रह्मास्त्र चला दिया। वही अपने आंसू। मैं पिघल गया।

अगली सुबह जल्दी ऑफ़िस जाकर, काम निबटाकर मैं टाइम पर घर भी पहुंच गया। मां ने इस बार नाश्ते-खाने की ज़्यादा तैयारी नहीं की थी। मैंने उन्हें छेड़ने के लिए पूछा भी, "आज पनीर नहीं बनाया मां?" तो वो बस हंस दी।

थोड़ी देर में वो लोग आ चुके थे। मैं अपने कमरे में आंखें मूंदे लेटा था, लेकिन कान ड्राइंगरूम से आती आवाज़ों पर टिका रखे थे।
"आमोद..आमोद" थोड़ी देर बाद मां की आवाज़ आई। मैंने उठकर कमीज़ की बाजू ठीक की और चेहरे पर हाथ फेरते हुए वहां आ गया।

वहां सोफ़े पर कोई 40-45 साल का आदमी और उसके साथ एक महिला बैठी हुई थीं। बाईं ओर वाली सेंटी पर एक लड़की बैठी थी। महरून कुर्ती-सलवार पहने, कानों में बड़े झुमके, आंखों पर चश्मा लगा था। कॉन्फिडेंट दिख रही थी काफ़ी। मैंने उसे देखा और झेंपकर नज़र फेर लीं, लेकिन उनकी नज़रें मेरे चेहरे पर फिर रही थीं।

"ये सिद्धी है" कहते हुए मां लड़की और उसके भाई-भाभी से परिचय करवाने लगीं और मैं मन ही मन उन्हीं पुराने जवाबों को दोहराने लगा, याद करने लगा।

"आंटी ने बताया कि आज आपको लीव लेनी पड़ी और इतने शॉर्ट नोटिस पर मिल भी गई। ज़रूर आप बॉस के फेवरेट होंगें।" सिद्धी के भाई ने बड़े ही कैजुअल अंदाज़ में कहा।

मुझे हैरानी हुई इस सवाल पर। ये पहले ऐसे लोग थे जिन्होंने नाम, सैलरी और मेरे अतीत से बात शुरू नहीं की। मैंने आवाज़ में नर्मी घोलते हुए कहा,
"हां...रातभर बैठकर काम निबटा दिया था तो कोई ख़ासी दिक्कत हुई नहीं।"

फिर कभी हॉबीज़, कभी सोशल इश्यू, कभी घूमने की पसंदीदा जगहों की बातें चलती रहीं। किसी ने भी मेरी ज़िंदगी के पिछले पन्ने को पलट कर देखने की कोशिश नहीं की।

"आपको पता है ना कि मैं तलाकशुदा...आईमीन डायवोर्सी.." हिचकते हुए मैंने पूछा, क्या जाने इन लोगों को पता भी था या नहीं।
"क्या फ़र्क पड़ता है?" सिद्धी के भाई के कहे ये चार शब्द सुकून बनकर कानों में उतर रहे थे। दुनिया में ऐसे लोग होते होंगे क्या? जिन्हें मेरे अतीत से कोई मतलब ना हो। जिन्हें इस बात की फ़िक्र ना हो कि तलाक क्यों हुआ, कैसे हुआ, ग़लती किसकी थी?

थोड़ी देर बाद बहाने से मां उसके भाई-भाभी को घर दिखाने चली गईं। हालांकि वो कहकर भी जा सकती थीं कि तुम दोनों अकेले में बातें कर लो। आजकल तो ये कॉमन है, लेकिन माएं भी ना सोचती हैं कि ज़माना वहीं रुका हुआ है, उनके वक़्त में।

"तो बताएं" मैंने बात शुरु की।
"तो कुछ नहीं" उसने कहा।
"आपको कुछ पूछना है? मेरी पास्ट लाइफ़ एंड ऑल के बारे में।" मैंने कहा तो वो मुझे एकटक देखने लगी, शायद समझने लगी कि मैंने ये बात क्यों कही होगी। हो सकता है जान गई हो कि मैं ये सब यूं ही नहीं कह रहा था। कुछ जवाब होते हैं ना, जिन्हें अपने सवाल का इतंज़ार होता है। सिद्धी ने कुछ नहीं पूछा। ना अगले मिनट, ना उसके बाद वाले सारे मिनट। बस जॉब, घर, पढ़ाई ,कॉलेज की बातें करती रही। शादी तो पता नहीं, पर दोस्ती के लिहाज़ से हमने अपने फोन नंबरों की भी अदला-बदली कर ली थी।

वो लोग अभी 5 मिनट पहले निकले थे। गली के दूसरे मोड़ तक ही पहुंचे होंगे। मैं और मां गेट पर खड़े हुए थे। तभी मेरे मोबाइल की मैसेजटोन बजी। सिद्धी का मैसेज था, लिखा था, "इट्स ए यस"।

ये तीन जादुई शब्द मेरे इर्द-गिर्द घेरा बांधने लगे। मैंने मां के कंधे पर झूलते हुए अपना मोबाइल उन्हें दिखा दिया। मेरी ज़िंदगी की सेकेंड इनिंग की शुरुआत बस होने वाली नहीं, बल्कि हो चुकी थी।