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जल्लीकट्टू: क्या ऐसे होती है देवों की पूजा? क्या इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने किया था इसे बैन?

2500 साल पुराने इस खेल जल्लीकट्टू में सांडों को दी जाती है यातनाएं। सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में लगाया था प्रतिबंध। इस बार भी नहीं हो पाया जल्लीकट्टू का आयोजन।

Updated on: 13 Jan 2017, 02:13 PM

नई दिल्ली:

करीब 2500 साल पुराना यह खेल आज तमिलनाडु की सियासत का अहम हिस्सा है। इस खेल से ही सियासत की सीढ़ी चढ़ रहे नेताओं की छलांग कितनी ऊंची होगी इसका अंदाज़ा लगाया जाता है।

सदियों से मनाया जा रहा यह खेल जिसे जल्लीकट्टू कहा जाता है, न सिर्फ तमिलनाडू राज्य की सियासत का बल्कि धार्मिक परंपरा का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन इस खेल पर संगीन आरोप भी है, और राज्य के बाहर देशभर में इसे जानवरों के प्रति क्रूरता के साथ जोड़ कर देखा जाता है।

क्या है जल्लीकट्टू?

तमिलनाडु में मकर संक्रांति का पर्व पोंगल के नाम से मनाया जाता है। इस मौके पर हर साल (सदियों से) एक खास बैल दौड़ का आयोजन किया जाता है। यह खेल बैलों की लड़ाई के रुप में जल्लीकट्टू के नाम से मशहूर है।

पोंगल त्योहार की कई प्रथाएं प्रचलित हैं उन्हीं में से एक है जल्लीकट्टू प्रथा। यूं तो विदेशों में भी बुल फाइट का आयोजन होता है और इसे एक प्रतिस्पर्धा खेल के तरीके से किया जाता है लेकिन तमिलनाडु में यह धार्मिक आस्था और परंपरा का विषय है।

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फसलों की कटाई के मौके पर मनाए जाने वाले पोंगल त्योहार में बैल की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि क्योंकि किसान बैल के ज़रिए ज़मीन जोतता है इसीलिए खेत में बैल दौड़ का आयोजन किया जाता है।

ऐसे होता है यह खेल

इस आयोजन में करीब 300-400 किलो के सांड़ों के सींगों में सिक्के या नोट फंसाकर रखे जाते हैं और फिर उन्हें भड़काकर भीड़ में छोड़ दिया जाता है। लोगों को इन सांडों को इनके सींगों से पकड़कर काबू करना होता है।

जो युवा इन्हें काबू कर लेता है, उसे उसके पराक्रम के लिए नकद पुरस्कार और इनाम दिए जाते हैं। त्योहार से पहले गांव के लोग अपने बैलों को इस खेल की बकायदा प्रैक्टिस कराते हैं। इसके लिए उन्हें मिट्टी के ढेर बनाए जाते हैं जिस पर बैल अपने सींगों को रकड़कर खेल की तैयारी करता है।

इतना ही नहीं, बैल को खूंटे से बांधकर उसे उकसाने की प्रैक्टिस भी करवाई जाती है ताकि उसे गुस्सा आए और वो अपनी सींगो से वार करे।

सदियों पुरानी है जल्लीकट्टू परंपरा

माना जाता है कि तमिलनाडु में करीब 400 साल पहले जलीकट्टू 400 खेल वर चुनने के लिए भी खेला जाता था। यह एक ऐसी परंपरा थी जो योद्धाओं के बीच लोकप्रिय थी। प्राचीन काल में महिलाएं अपने वर को चुनने के लिए जलीकट्टू खेल का सहारा लेती थीं।

इस खेल को स्वंयवर की तरह मनाया जाता था। जो योद्धा बैल पर काबू पाने में कामयाब होता था महिलाएं उसे अपने वर के रूप में चुनती थी। जलीकट्टू नाम सल्ली कासू से मिलकर बना है। सल्ली का मतलब सिक्का और कासू का मतलब सींगों में बंधा हुआ। सींगों में बंधे सिक्कों को हासिल करना इस खेल का मकसद होता है। धीरे-धीरे सल्लीकासू का ये नाम जलीकट्टू हो गया।

क्या है विवाद?

जल्लीकट्टू खेल में जो व्यक्ति बैल को सबसे अधिक समय के लिए रोक लेता है उसे सिकंदर का खिताब दिया जाता है। लेकिन बात इतनी आसान नहीं है। यह खेल धीरे-धीरे जानलेवा बन गया है। दरअसल, वीरता के मद में डूबे युवा बैलों को उग्र करने के लिए कई अमानवीय कृत्य करते है। जैसे बैलों को उग्र करने के लिए उन्हें शराब पिलाई जाती है, कई बार उनके संवेदनशील अंगों और आंखों में मिर्च पाउडर लगाया जाता है।

कभी कभी तो उनकी त्वचा पर एक ऐसा रसायन भी लगाया जाता है जिससे बैल उग्र हो सके और तेज भागे। इस खेल के दौरान कई व्यक्ति मौत के घाट भी उतर चुके हैं।
आंकड़ें एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2010 से 2014 तक इस खेल में करीब 1110 लोग घायल हुए हैं और 17 से ज़्यादा मौतें हो गई। इसी के चलते 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इस खेल पर प्रतिबंध लगा दिया था।

अदालत ने ऐसे आयोजनों को जानवरों के प्रति क्रूरता बताते हुए टिप्पणी की और कहा कि पशुओं को भी सम्मान के साथ जीने का हक है। इसके साथ ही कोर्ट ने कुछ नियम शर्तों के साथ जल्लीकट्टू को मंजूरी देने वाला तमिलनाडु का कानून निरस्त कर दिया था।

इसके अलावा साल 2011 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के पशु कल्याण विभाग ने नोटिफिकेशन जारी करके पशुओं पर क्रूरता रोकथाम कानून 1960 के उपबंध 22 के तहत बैलों के प्रदर्शन केंद्रित कार्यों में इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी थी।

जलीकट्टू और बुलफाइटिंग

जलीकट्टू के इस खेल की तुलना लोग स्पेन की बुलफाइटिंग से भी करते हैं लेकिन स्पेन में खेले जाने वाले बुलफाइटिंग और जल्लीकट्टू में अंतर है। वहां खेल के लिए बैलों को मारा नहीं जाता और ना ही बैल को काबू करने वाले युवक किसी तरह के हथियार का इस्तेमाल करते हैं।

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