2014 में मिली हार से उबर नहीं पा रही कांग्रेस, गुजरात से लेकर मणिपुर तक कई नेताओं ने अलविदा कहा
2014 के आम चुनाव में मोदी सरकार को मिली बंपर जीत के बाद कांग्रेस 2018 में थोड़ी संभलती दिखी थी, जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ बीजेपी को पटखनी देकर सत्ता में पहुंची थी.
नई दिल्ली:
लगता है कांग्रेस 2014 में मिली करारी हार के सदमे से उबर ही नहीं पा रही है. 2014 के आम चुनाव में मोदी सरकार (Modi Sarkar) को मिली बंपर जीत के बाद कांग्रेस 2018 में थोड़ी संभलती दिखी थी, जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ बीजेपी को पटखनी देकर सत्ता में पहुंची थी. इन तीन राज्यों में मिली विजयश्री भी कांग्रेस में वो उत्साह का संचार नहीं कर सकी और 2019 के लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election 2019) में पार्टी की और भी बुरी गत हो गई. नतीजा यह हुआ कि नेतृत्व लगातार कमजोर पड़ता गया और राज्यों में सिंडिकेट अपनी मनमानी करती रही. बेलगाम चाटुकार नेताओं के चक्कर में युवा व प्रभावशाली नेता अपनी जमीन दूसरे दलों में खोजने लगे और कांग्रेस इसका ठीकरा बीजेपी पर फोड़कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री करती रही.
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हालत यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से आधा दर्जन पूर्व केंद्रीय मंत्री, तीन पूर्व मुख्यमंत्री, राज्यों में कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके चार नेता पार्टी को अलविदा कह चुके हैं. ओडीसा में गिरधर गमांग और श्रीकांत जेना, गुजरात में शंकर सिंह बाघेला, तमिलनाडु में जयंती नटराजन, कर्नाटक में एसएम कृष्णा, यूपी में बेनीप्रसाद वर्मा और रीता बहुगुणा जोशी और हरियाणा में वीरेंद्र सिंह और अशोक तंवर, असम में हेमंत बिस्वा सरमा, अरुणाचल प्रदेश में पेमा खांडु, मणिपुर में मुख्यमंत्री एन वीरेन सिंह, महाराष्ट्र में नारायण राणे आदि नेता पार्टी से दूर जाते रहे और कांग्रेस देखती रही. कर्नाटक में हाथ आई सत्ता भी कांग्रेस का साथ छोड़ गई. आंध्रप्रदेश में जहां कांग्रेस ने वाईएसआर के नेतृत्व में 10 साल लगातार शासन किया, वहां पार्टी खात्मे की ओर है. वहां कांग्रेस नेता या तो वाईएसआरसीपी, टीडीपी या बीजेपी में चले गए हैं. ऐसा कोई राज्य नहीं जहां कांग्रेस में गुटबाजी न हो.
कांग्रेस या तो बीजेपी की राजनीति को समझ नहीं पा रही है या फिर समझकर भी अनदेखा कर रही है. महत्वपूर्ण मसलों पर कांग्रेस में एकराय स्थापित नहीं हो पा रहा है. अनुच्छेद 370, ट्रिपल तलाक आदि मसलों पर कांग्रेस अब भी नेहरूयुगीन सोच पर चल रही है, जबकि इन मसलों पर कांग्रेस के कई नेता बीजेपी का साथ देते दिखे. कांग्रेस कभी नरम हिन्दुत्व पर चलती है तो कभी धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा ओढ़ लेती है. हिंदू आतंकवाद की थ्योरी भी कांग्रेस की ताबूत में कील साबित हो रही है. फिर भी अभी कांग्रेस के कई नेता हिंदू आतंकवाद की थ्योरी को स्थापित करने पर तुले हैं. ताज्जुब की बात यह है कि ऐसे नेता 10 जनपथ के करीबी हैं.
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युवा नेताओं की अनदेखी भी कांग्रेस को भारी पड़ती दिख रही है. मध्य प्रदेश में पार्टी इसका खामियाजा भुगत रही है. ज्योतिरादित्य सिंधिया को अलग-थलग करने की रणनीति के चलते वहां कमलनाथ की सरकार जाने वाली है. पंजाब कांग्रेस में भी कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ बगावत की चिंगारी सुलग रही है और वहां कभी भी बड़ा धमाका हो सकता है. मध्य प्रदेश की तरह राजस्थान में भी सचिन पायलट की जगह अशोक गहलोत को तरजीह दी गई और वहां भी सिंधिया की तर्ज पर बड़ा उलटफेर हो जाए तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए. गुजरात में आम आदमी पार्टी हार्दिक पटेल पर डोरे डाल रही है और हार्दिक पटेल भी कांग्रेस छोड़ने का मूड बना चुके हैं. इसके अलावा आने वाले दिनों में गुजरात कांग्रेस के आधा दर्जन से अधिक विधायक बीजेपी ज्वाइन कर सकते हैं. बिहार और उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेता तो पहले से ही सुप्तावस्था में पहुंच गए हैं और वहां कोई चमत्कार ही कांग्रेस को जिंदा कर सकता है. यही हाल रहा तो गठबंधन सरकार के बहाने झारखंड में सत्ता में लौटी कांग्रेस का वहां भी खेल खराब हो सकता है.
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लोकसभा चुनाव 2019 के बाद करारी हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने अध्यक्षी छोड़ दी थी और पार्टी को नसीहत दी थी कि गांधी परिवार से कोई भी आगे अध्यक्ष नहीं बनेगा. राहुल गांधी की इस थ्योरी को उनकी मां सोनिया गांधी ने ही खारिज कर अंतरिम अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाल ली थी. उसके बाद टीम राहुल और टीम सोनिया आमने-सामने आ गए. आज मध्य प्रदेश में जो हालात बने हैं, उसका एक कारण टीम सोनिया और टीम राहुल की आपसी टशन भी है. सोनिया की टीम के लोग राहुल गांधी की टीम को आगे बढ़ते देखना नहीं चाहते और ठीक यही हाल टीम राहुल के साथ भी है. पीढ़ी के अंतर का द्वंद्व आज कांग्रेस की नियति बन गई है और जब तक इसका कोई इलाज ढूंढा जाएगा, तब तक कई ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी को अलविदा कह चुके होंगे.
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