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भारतीय राजनीति की 'एलिस इन वंडरलैंड' रहीं शीला दीक्षित

शीला दीक्षित देश की पहली सफल लोकप्रिय राजनीतिक बहू थीं. उनका देश के प्रथम राजनीतिक परिवार यानी गांधी-नेहरू से भी नजदीकी संबंध रहा.

Updated on: 20 Jul 2019, 05:45 PM

highlights

  • शीला दीक्षित की गांधी परिवार से हमेशा नजदीकी रही.
  • विकास को समझने और तरजीह देने वाली नेता रहीं.
  • सफल राजनीतिक जीवन पर विवादों का साया भी पड़ा.

नई दिल्ली.:

उत्तर प्रदेश के कन्नौज से सक्रिय राजनीति में कदम रखने वाली शीला दीक्षित देश की पहली सफल लोकप्रिय राजनीतिक बहू थीं. उनका देश के प्रथम राजनीतिक परिवार यानी गांधी-नेहरू से नजदीकी संबंध रहा. यही वजह है कि भारतीय राजनीति में 'दिल्ली की आंटी' का दर्जा रखने वाली शीला दीक्षित ने जब 15 साल के लंबे सफर के बाद दिल्ली का सीएम पद छोड़ा, तो गांधी परिवार ने उन्हें राज्यपाल के पद से नवाजा था. वह कांग्रेस की उन खांटी नेताओं में शुमार होती थीं, जिनके बगैर कांग्रेस की कल्पना ही नहीं की जा सकती. यह भी अजीब संयोग है कि लोकसभा चुनाव में दिल्ली बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी से हार के बाद जब उनके दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर कयास लगाए जा रहे थे, उन्होंने देह त्याग दिया.

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गांधी-नेहरू परिवार से नजदीकी
सक्रिय राजनीति में 1984 में कदम रखने वाली शीला दीक्षित की गांधी परिवार से हमेशा नजदीकी रही. इसकी वजह उनके ससुर उमा शंकर दीक्षित थे. उन्नाव से संबंध रखने वाले उमा शंकर दीक्षित स्वधीनता संग्राम सेनानी थे और पं. नेहरू के काफी करीबी थी. उनके ही बेटे विनोद दीक्षित से शीला दीक्षित ने प्रेम विवाह किया था. हालांकि उनका पारिवारिक जीवन बहुत सुखमय नहीं रहा. एक सफर के दौरान विनोद की हार्ट अटैक से मौत हो गई. उस वक्त उनके दो बच्चे संदीप और लतिका हो चुके थे. हालांकि टूटने के बजाय शीला दीक्षित ससुर के कहने पर राजनीति में सक्रिय हो गईं. उमा शंकर दीक्षित के कहने पर शीला दीक्षित ने कन्नौज से लोकसभा चुनाव जीतकर आईं. दीक्षित परिवार से जुड़ाव के चलते शीला दीक्षित को जल्द ही दिल्ली की राजनीति में कदम रखने का मौका मिला. उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में जगह भी मिली. इस दौरान वे लोकसभा की समितियों में रहने के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र में महिलाओं के आयोग में भारत की प्रतिनिधि रहीं.

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विकास परक नेता
दिल्ली को सही मायने में राजधानी बनाने का श्रेय शीला दीक्षित को ही जाएगा. यूं तो एशियाई खेलों के सफल आयोजन के साथ ही दिल्ली को आधुनिक रूप-स्वरूप मिलने लगा था, लेकिन विकास के इस सफर को गति मिली शीला दीक्षित के कार्यकाल से. उन्होंने दिल्ली को रहने लायक बनाया. फ्लाईओवर के निर्माण के साथ ही दिल्ली मेट्रो उनकी तरफ से दिया गया यादगार तोहफा है. प्रदूषण से मुक्ति दिलाने में सीएनजी बसों का संचालन हो या चौड़ी सड़के शीला दीक्षित ने दिल्ली को आधुनिक स्वरूप दिया. संभवतः इन्हीं सबने उन्हें दिल्ली की चहेती नेता बनाया और वह तीन बार लगातार दिल्ली में बतौर सीएम चुनकर आईं. शीला दीक्षित 1998 से 2013 तक लगातार 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को मिली अप्रत्याशित जीत के बाद शीला दीक्षित ने राजनीति से दूरी बना ली थी. हालांकि 17वीं लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने फिर उन्हीं पर भरोसा जताया था, लेकिन खेमेबाजी और अंदरूनी कलह भारी पड़ी और वह दिल्ली चुनाव हार गईं.

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मनु शर्मा की पेरोल और करप्शन का दाग
शीला दीक्षित के राजनीतिक सफर में सबसे बड़ा दाग कॉमनवेल्थ खेल के दौरान सामने आए भष्ट्राचार के मामले रहे. इससे सिर्फ शीला दीक्षित की ही किरकिरी नहीं हुई, बल्कि इसकी कीमत कांग्रेस को सत्ता से बाहर होकर चुकानी पड़ी. केंद्र से भी और दिल्ली से भी. हालांकि शीला दीक्षित पर पक्षपात का पहला आरोप जेसिका लाल के हत्यारे मनु शर्मा की पेरोल मंजूर करने को लेकर लगा था. दिल्ली हाई कोईट तक ने माना था कि इस मामले में दिल्ली की शीला सरकार ने मनु शर्मा के मामले में दरियादिली दिखाई है. कांग्रेस ने शीला दीक्षित के निधन के साथ ही अपने पहली पंक्ति के उस नेता को खो दिया है, जो राष्ट्रीय कद रखता था.