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उधम सिंह ने 21 साल इंतजार कर मौत की सजा दी थी जलियांवाला बाग कांड के दोषी ओ'डायर को

माइकल ओ'डायर ने मासूम भारतीय महिलाओं-बच्चों समेत पुरुषों पर चली गोलियों के जिम्मेदार जनरल डायर का समर्थन किया था, बल्कि उसे 'हर जरूरी कदम उठाने' की स्वीकृति भी दी थी.

Updated on: 10 Apr 2019, 06:49 PM

नई दिल्ली.:

13 मार्च 1940 को शाम गहरा रही थी. लंदन के कैक्सटन हॉल में रॉयल सेंट्रल एशियन सोसाइटी और ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की बैठक चल रही थी. तमाम अन्य लोगों में अंग्रेजों जैसी वेशभूषा धारण किए एक भारतीय भी शामिल था. बैठक खत्म होने पर उसने अपने कोट की जेब से .45 स्मिथ एंड वेसन की रिवॉल्वर निकाली. इसके बाद मंच पर विराजमान 75 साल के एक वृद्ध को निशाना बना दो गोलियां दाग दीं. एक गोली वृद्ध के दाएं फेफड़े और दिल को छेदते हुए निकल गई, तो दूसरी ने वृद्ध की दोनों किडनियों को निशाना बनाया.

गोली दागने के बाद भी अधेड़ उम्र का वह भारतीय भागा नहीं. उसे गिरफ्तार किया गया और पूछताछ में उसने अपना नाम 'मोहम्मद सिंह आजाद' बताया. मृतक की पहचान 75 साल के सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी माइकल फ्रांसिस ओ'डायर (Michael Francis O’Dwyer) के रूप में हुई. मृतक गुलाम भारत के सूबे पंजाब का गवर्नर रहा था, जिसे शहीद भगत सिंह के प्रिय उधम सिंह ने मार कर 21 साल बाद जलियांवाला बाग कांड का बदला लिया था. माइकल ओ'डायर ने मासूम भारतीय महिलाओं-बच्चों समेत पुरुषों पर चली गोलियों के जिम्मेदार जनरल डायर (general dyer) का समर्थन किया था, बल्कि उसे 'हर जरूरी कदम उठाने' की स्वीकृति भी दी थी.

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उधम सिंह का जन्म संगरूर में 26 दिसंबर 1899 को हुआ. बेहद छोटी उम्र में अपने माता-पिता को खो देने वाले उधम सिंह और उनके बड़े भाई का लालन-पालन अनाथाश्रम में हुआ. उन दिनों पंजाब राजनीतिक तौर पर उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था और उधम सिंह इन बदलावों को समझते हुए बड़े हुए. 1919 में प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय जवानों की जबरन भर्ती और चंदा उगाही से पंजाब में आक्रोश चरम पर था. इस आग पर घी डालते हुए ब्रितानी हुकूमत ने रौलेट एक्ट लागू कर दिया. विरोध में महात्मा गांधी ने देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया, जिसे पंजाब में भी हाथों हाथ लिया गया.

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पंजाब सूबे के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ'डायर महात्मा गांधी के आह्वान और उसे मिले समर्थन से हिल गए. उन्होंने 10 अप्रैल 1919 को सत्य पाल और सैफुद्दीन किचलू को रौलेट एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. इसके विरोध में राज्य भर में गुस्से की लहर सी दौड़ गई। अमृतसर में तो आम लोगों और ब्रितानी फौज के बीच हिंसक झड़प भी हो गई. असंतोष को बढ़ते देख पंजाब के गवर्नर ने ब्रिगेडियर जनरल रेगिनल्ड एडवर्ड हैरी डायर को कई सैनिक टुकड़ियों का मुखिया बना असंतोष को काबू करने के आदेश दिए. जनरल डायर ने गवर्नर का प्रोत्साहन पाकर लोगों को ऐहितियातन गिरफ्तार किया, तो जुलूस-प्रदर्शन समेत लोगों के इक्ट्ठा होने तक पर रोक लगा दी.

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इस बीच 13 अप्रैल 1919 को दसियों हजार की भीड़, जिसमें स्त्री-पुरुष और बच्चे भी शामिल थे अमृतसर के जलियांवाला बाग (Jallianwala hatyakand) में एकत्र हुए. पौने तीन हेक्टेयर क्षेत्र में फैले और महज एक निकास की सुविधा वाला यह मैदान चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरा हुआ था. चूंकि उस दिन बैसाखी भी थी, तो दूर-दराज के गांवों से भी लोग अमृतसर में लगने वाला मेला देखने आए थे. इनमें से अधिसंख्य को जनरल डायर की भीड़ पर रोक के फैसले के बारे में पता नहीं था.

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उस दुर्भाग्यशाली दिन उधम सिंह अनाथाश्रम के अपने कुछ साथियों के साथ आए हुए लोगों को पानी पिलाने के लिए वहां मौजूद थे. वह प्यासे तीर्थयात्रियों की प्यास बुझा रहे थे, जब डायर अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ वहां पहुंचा. निकास के एकमात्र दरवाजे को घेरने के बाद जनरल डायर ने बगैर किसी चेतावनी वहां मौजूद भीड़ पर गोली चलाने के आदेश दे दिए.

अचानक शुरू हुई गोलियों की बौछार के बीच निहत्थे लोग दीवार पर चढ़ कर बचने की नाकाम कोशिश में भी मारे गए. तमाम लोगों ने जान बचाने के लिए वहां स्थित कुएं में छलांग लगा दी. इस गोलीबारी में कितने लोग मारे गए इसकी अधिकृत संख्या तो मालूम नहीं, लेकिन अलग-अलग दावों के अनुसार जनरल डायर के आदेश पर 1700 राउंड गोलियां चलाई गईं. आधिकारिक स्तर पर मृतकों का आंकड़ा 379 बताया गया, लेकिन इंडियन नेशनल कांग्रेस ने मृतक आंकड़ा हजार पार और घायलों की संख्या डेढ़ हजार से अधिक बताई. यह सारा नजारा उधम सिंह ने अपनी आंखों से देखा, जिसने उसके मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ा.

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ब्रितानी नृशंसता को बयान करती इस घटना ने 20 साल के उधम को हिला कर रख दिया. जल्दी ही उधम सिंह ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह में शामिल हो गए. 1920 के शुरुआती साल में उधम सिंह पूर्वी अफ्रीका पहुंचे औऱ वहां श्रमिक बतौर काम करने लगे. इसके बाद वह अमेरिका पहुंचे, जहां सैनफ्रांसिस्को में गदरपार्टी से उनका पहला संपर्क हुआ. बाद के कुछ सालों में उधम सिंह अमेरिका में घूम-घूम कर गदर पार्टी (Gadar Party) के लिए समर्थन और आर्थिक संसाधन जुटाते रहे.

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हालांकि उनके मन से जलियांवाला बांग (Jallianwala massacre) नृशंस हत्याकांड के जख्म अभी भी ताजा थे. इस बीच 1927 में वह वापस पंजाब लौटे और उन्हें गदर पार्टी के क्रांतिकारी पत्र 'गदर की गूंज' के प्रकाशन और अवैध हथियार रखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच जलियांवाला बाग में गोलियां बरसाने वाला जनरल डायर प्राकृतिक मौत मर चुका था. इसके साथ ही भगत सिंह (Bhagat Singh), राजगुरु और सुखदेव को भी लाहौर षड्यंत्र मामले में फांसी दी जा चुकी थी. 1931 में उधम सिंह को रिहा कर दिया गया, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत की निगाह उन पर बनी रही. ब्रितानी हुकूमत की मंशा भांप कर उधम सिंह भेष बदल कर कश्मीर पहुंचे और वहां से जर्मनी निकल गए.

इधर-उधर घूमते फिरते उधम सिंह 1933 में माइकल फ्रांसिस ओ'डायर को मारने की हसरत लिए लंदन पहुंचे. उधम सिंह जलियांवाला बाग हत्याकांड के लिए ओ'डायर को जिम्मेदार इस कारण से भी मानते थे कि उसने जनरल डायर के उस 'कायराना कृत्य' को 'उचित कदम' करार दिया था. लंदन में बढ़ई, मैकेनिक और साइन बोर्ड पेंटर बतौर काम करते हुए वह अपने मकसद के करीब पहुंचते गए. वेष बदल कर लक्ष्य सिद्धि की उस तपस्या के दौरान उधम सिंह ने एलेक्जेंडर कोर्डा की दो फिल्मों 'एलिफेंट ब्वॉय' और 'द फोर फेदर्स' में बतौर एक्स्ट्रा भी काम किया.

इन तमाम तरह के अलग-अलग कामों को करते हुए भी वह अपने 'लक्ष्य' से भटके नहीं थे. इसी बीच उन्हें पता चला कि पूर्व गवर्नर ओ'डायर कैक्सटन हॉल में 13 मार्च 1940 को एक बैठक को संबोधित करने आ रहा है. बस, उस दिन उधम सिंह ओवरकोट की जेब में रिवॉल्वर लेकर बैठक स्थल पर पहुंचे और 21 साल के बाद उन्होंने 'इंसाफ' करते हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड के दोषी ओ'डायर को मौत के घाट उतार दिया. पकड़े जाने पर उन्होंने अपना नाम हिंदू, मुसलमान, ईसाई एकता प्रतीक बतौर 'मोहम्मद सिंह आजाद' बताया. मुकदमा चलने के बाद उधम सिंह को 31 जुलाई 1940 को लंदन के पेंटोनविले जेल में फांसी दे दी गई और जेल के मैदान में ही उनके शव को दफना दिया गया.