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सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर अटकी हैं सियासी दलों की निगाहें, घेरे में आ सकते हैं कई राजनीतिक दल

किसी भी राजनीतिक पार्टी का टिकट लेने से पहले सबसे पहला प्रश्न होता है कि उम्मीदवार के पास धन कितना है, अगर आप इसमें सक्षम नहीं है तो फिर आप शायद उचित उम्मीदवार न बन पाएं. चुनावी चंदे में लगा पैसा 'काला धन' होता है और इसे नंबर एक में बदलने के लिए चुनावी बांड का नाम दिया जाता है

Updated on: 15 Apr 2019, 11:22 AM

नई दिल्ली:

चुनाव सुधार के क्षेत्र में सुप्रीम कोर्ट ने सभी सियासी दलों से चुनाव खर्च का ब्योर मांगा है. आने वाले समय में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एतिहासिक साबित होगा. अगर इस मामले में सख्ती से कार्रवाई की गई तो समूचे सियासी दल चंदे के फंदे की लपेट में आ जाएंगे. जैसा कि सर्वविदित है कि ज्यादातर राजनीतिक दलों में धन के रूप में मिलने वाला ज्यादातर पैसा कालेधन का हिस्सा होता है. साल 2017 के आम बजट के दौरान इस मामले पर चर्चा भी हुई थी लेकिन तब विपक्ष के वाम दलों ने इस मामले पर अड़ंगा लगा दिया था. पहले चरण के लोक सभा चुनावों के बीच में अचानक सुप्रीम कोर्ट ने सियासी दलों से चुनावी चंदे का हिसाब मांग लिया, जिसके बाद इन सियासी दलों में अफरा-तफरी का माहौल है.

हर किसी को ये बात अच्छी तरह से मालूम है कि राजनीतिक दलों की नींव सिर्फ और सिर्फ पैसों पर टिकी है. चुनावों के समय राजनीतिक दल पैसा पानी की तरह से प्रचान में बहाते हैं. देश के आम आदमी से लेकर कारोबारी, रसूखदार और बड़े औद्योगिक घराने अपनी पसंदीदा पार्टियों को अपनी हैसियत के मुताबिक चंदा देती हैं. चंदे के रूप में दिया गया ये पैसा गुप्त रूप से दिया जाता है जिसका कोई भी लेखा-जोखा नहीं होता है. सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों से इसी चंदे के बारे में हिसाब देने को कहा है. राजनीतिक पार्टियों को चुनावों में प्रचार के दौरान पानी की तरह बहाए जाना वाला पैसा कहां से आता है?, कौन लोग ये चंदा राजनीतिक दलों को देते हैं?, कितना धन चंदे से आता?, किस मंशा से लोग राजनीतिक दलों को चंदा देते हैं?, राजनीतिक दलों को किस शर्त पर चंदा देते हैं? ऐसे कई सवाल हैं जिनको राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने तारीख तय कर दी है.

किसी भी राजनीतिक पार्टी का टिकट लेने से पहले सबसे पहला प्रश्न होता है कि उम्मीदवार के पास धन कितना है, अगर आप इसमें सक्षम नहीं है तो फिर आप शायद उचित उम्मीदवार न बन पाएं. चुनावी चंदे में लगा पैसा 'काला धन' होता है और इसे नंबर एक में बदलने के लिए चुनावी बांड का नाम दिया जाता है, जिसके जरिए काले धन को सफेद बनाने के लिए कारोबारी फायदा लेने के कॉर्पोरेट समूह टैक्स से बचने के लिए उनकी छत्र छाया में रातों-रात नई कंपनी बनाकर उसके जरिए चुनावी बांड खरीदकर उसे दान कर सकते हैं. आपको बता दें कि चुनावों में सियासी पार्टियों के चंदा जुटाने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए ही चुनावी बांड की घोषणा की गई थी. साल 2017 के आम बजट में राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे से लेकर नियमों में बदलाव किया गया था जिसके बाद सियासी दलों में वाक-युद्ध शुरू हो गया था.

सियासी पार्टियां एक-दूसरे पर ज्यादा चंदा मिलने का आरोप लगाना शुरू कर चुकीं थीं. पुराने नियमों के मुताबिक सियासी दल किसी भी कंपनी या व्यक्ति विशेष को से प्राप्त हुए 20 हजार रूपये से कम का चंदा मिलने का श्रोत बताने की जरूरत नहीं थी, लेकिन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने साल 2017 के बजट में इसकी सीमा 20 हजार से घटाकर 2 हजार कर दिया था. उन्होंने कहा था कि इससे राजनीतिक दलों के काम काज में पारदर्शिता आएगी. वित्त मंत्री के इस नये नियम का एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और नेशनल इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट ने सभी के दावों को हिलाकर रख दिया.

अगर हम एडीआर की रिपोर्ट पर गौर करें तो बीते 10-12 सालों में कई राजनीतिक दलों के पास 70 फीसदी आय चंदे के अज्ञात श्रोतों से हुई है. साल 2004 से लेकर मार्च 2015 तक प्रमुख राजनीतिक दलों की कुल आय 11367 करोड़ रूपये रही जिनमें से महज 31 प्रतिशत आय के श्रोतों का ही पता चल पाया है.