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स्कूलों का नंबर गेम: क्या ज्यादा नंबर ही जिंदगी में सफलता का पैमाना?

नंबर्स की ये दौड़ समाज को कहां ले जा रही है? परिवार और बच्चों पर किस तरह का दबाव बना रही है? समझना होगा कि एक बड़ा तबका बच्चों की तालीम के लिए कर्ज लेने को मजबूर हैं!

Updated on: 03 Jun 2018, 03:45 PM

नई दिल्ली:

बीतें दिनों सीबीएसई के नतीजे आए। 63 हजार से ज्यादा स्टूडेंटस को 90 फीसदी से ज्यादा मार्क्स मिले। 10 हजार स्टूडेंटस को 95 फीसदी से ज्यादा!

टॉपर को 500 में से 499 जबकि दूसरे नंबर पर रहे स्टूडेंट को 498 नंबर! इसके साथ ही शिक्षा, परीक्षा और परिणाम को लेकर नए सिरे से बहस शुरू हुई। 

सवाल ये कि क्या हिन्दी, इतिहास, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र जैसे विषयों में भी 100 में से 100 नंबर आ सकते हैं? नंबर देने का आधार क्या रहता है? सीबीएसई या आईसीएसई जैसा मानक यूपी—बिहार या बाकी स्टेट एजुकेशन बोर्ड में क्यों नहीं?

वैसे क्या नंबर देने वाले टीचर भी इस काबिल रहे हैं? क्योंकि देश में बड़ी संख्या में ऐसे टीचर हैं, जिनके पास पढ़ाने के लिए जरूरी ट्रेनिंग तक नहीं! 

नंबर्स की ये दौड़ समाज को कहां ले जा रही है? परिवार और बच्चों पर किस तरह का दबाव बना रही है? समझना होगा कि एक बड़ा तबका बच्चों की तालीम के लिए कर्ज लेने को मजबूर हैं!

तो क्या प्राईवेट स्कूल और प्राईवेट कोचिंग ही सफलता की गारंटी हैं? क्योंकि रिपार्ट बता रही हैं कि प्राइमरी स्कूलों के 87 फीसदी जबकि हाईस्कूल के 95 फीसदी बच्चे निजी कोचिंग लेने लगे हैं, जिसके लिए महीने का औसतन 1 हजार से लेकर 4000 रूपए तक चुकाने को मजबूर हैं।

ऐसे में समझना ये भी जरूरी है कि डिजीटल एजुकेशन कैसे तस्वीर बेहतर कर सकती है?

वैसे ऐसा क्यों हैं कि जिनके नंबर अच्छे नहीं, उनमें से कुछ खुदखुशी तक का रास्ता चुन लेते हैं? आंकड़ें बता रहे हैं कि अकेले देश की राजधानी दिल्ली में ही हर महीने 4 स्टूडेंट्स खुदखुशी कर रहे हैं!

वैसे क्या ज्यादा से ज्यादा नंबर्स ही जिदंगी में सफलता का पैमाना हैं? हम अल्बर्ट आइंस्टीन, चार्ल्स डार्विन या अक्षय कुमार जैसे ढेरों नामों को याद क्यों नहीं रखना चाहते, जो पढ़ाई में जीरो थे, लेकिन असल जिदंगी के हीरो हैं।

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