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राष्ट्रपति चुनाव 2017: बाबरी मस्जिद विध्वंस से काफी आहत थे के आर नारायणन, जाने और दिलचस्प बातें

6 दिसम्बर, 1992 को जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ, तब नारायणन ने इसे 'महात्मा गांधी की हत्या के बाद देश में सबसे बड़ी दुखांतिका' करार दिया था।

Updated on: 24 Jun 2017, 06:55 PM

highlights

  • नारायणन ने 25 जुलाई, 1997 से 25 जुलाई, 2002 तक देश के राष्ट्रपति का पद संभाला
  • कार्यकाल के दौरान हिंदु्स्तान के राजनीती में कुछ बड़े राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिले
  • अपने राष्ट्रपति काल के दौरान नारायणन ने दो बार संसद को भंग किया था
  • राष्ट्रपति नियुक्त होने के बाद नारायणन ने एक नीति अथवा सिद्धान्त बना लिया था कि वह किसी भी पूजा स्थान या इबादतग़ाह पर नहीं जाएंगे-चाहे वह देवता का हो या देवी का

 

नई दिल्ली:

भारत के दसवें राष्ट्रपति के आर नारायणन भारत के पहले दलित राष्ट्रपति हुए। नारायणन राजनीति में आने के बावजूद हमेशा ही अपने विचारों को लेकर काफी सटीक रहे। बतौर राष्ट्रपति नारायणन ने हमेशा ही संसदीय मर्यादा का ख़्याल रखा और सभी तरह की दलगत राजनीति से उपर उठकर काम किया। 

इसका एक अच्छा उदाहरण उपराष्ट्रपति चुनाव को दौरान देखने को मिला। नारायणन ने चुनाव से पहले वाम मोर्चे के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि वह कभी भी साम्यवादी के कट्टर समर्थक अथवा विरोधी नहीं रहे।

वाम मोर्चा उनके वैचारिक अन्तर को समझता था लेकिन इसके बाद भी उसने उपराष्ट्रपति चुनाव में उनका समर्थन किया और बाद में राष्ट्रपति चुनाव में भी। इस प्रकार वाम मोर्चे के समर्थन से नारायणन को लाभ पहुंचा और उनकी राजनीतिक स्थिति को स्वीकार किया।

ये दर्शाता है कि अपने विचारों की स्पष्टता के बावजूद राजनीति में उनकी कितनी ज़्यादा स्वीकार्यता थी।

 

6 दिसम्बर, 1992 को जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ, तब नारायणन ने इसे 'महात्मा गांधी की हत्या के बाद देश में सबसे बड़ी दुखांतिका' करार दिया था।

नारायणन ने 25 जुलाई, 1997 से 25 जुलाई, 2002 तक देश के राष्ट्रपति का पद संभाला। उनके कार्यकाल के दौरान हिंदु्स्तान के राजनीती में कुछ बड़े राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिलें।

अपने राष्ट्रपति काल के दौरान नारायणन ने दो बार संसद को भंग किया था। लेकिन किसी भी तरह के निर्णय से पहले इन्होंने राजनीतिक मामलों को क़रीब से जानने और समझने वाले लोगों से विचार-विमर्श भी किया। 

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यह स्थिति तब उत्पन्न हुई थी, जब कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने इन्द्रकुमार गुजराल सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार के बहुमत में होने का दावा दांव पर लग गया। 

श्री इन्द्रकुमार गुजराल को 28 नवम्बर, 1997 तक सदन में अपने बहुमत का जादुई आंकड़ा साबित करना था। प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल बहुमत सिद्ध करने में असमर्थ थे, इसलिए उन्होंने राष्ट्रपति को परामर्श दिया कि लोकसभा भंग कर दी जाए। 

श्री नारायणन ने भी परिस्थितियों की समीक्षा करते हुए निर्णय लिया कि कोई भी दल बहुमत द्वारा सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। इसलिए श्री गुजराल का परामर्श स्वीकार करते हुए उन्होंने लोकसभा भंग कर दी। 

इसके बाद हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी एक ऐसी सकल पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई, जिसके पास में सबसे ज़्यादा सांसद थे। भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को एन. डी. ए. का भी समर्थन प्राप्त था। अत: नारायणन ने वाजपेयी से कहा कि वह समर्थन करने वाली पार्टियों के समर्थन पत्र प्रदान करें, ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि उनके पास सरकार बनाने के लायक़ बहुमत है। 

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श्री अटल बिहारी वाजपेयी समर्थन जुटाने में समर्थ थे और इस आधार पर उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया गया। साथ ही यह शर्त भी थी कि 10 दिन में वाजपेयी अपना बहुमत सदन में साबित करें। 14 अप्रैल, 1999 को जयललिता ने राष्ट्रपति नारायणन को पत्र लिखा कि वह वाजपेयी सरकार से अपना समर्थन वापस ले रही हैं। तब श्री नारायणन ने वाजपेयी को सदन में बहुमत साबित करने को कहा। 

17 अप्रैल को वाजपेयी सदन में बहुमत साबित करने की स्थिति में नहीं थे। इस कारण वाजपेयी को हार का सामना करना पड़ा। 

अटल बिहारी वाजपेयी तथा विपक्ष की नेता एवं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी दोनों सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थे। इसलिए जब दोनों दलों द्वारा सरकार बनाने को लेकर कोई संकेत नहीं मिला तो राष्ट्रपति श्री नारायणन ने प्रधानमंत्री को लोकसभा चुनाव करवाने को कहा।

इसके बाद हुए चुनावों में एन. डी. ए. को बहुमत प्राप्त हुआ और वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री बने।

भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आग्रह पर राजनीति में घुसे। नारायणन लगातार तीन बार 1984, 1989 और 1991 में केरल की लोकसभा सीट ओट्टापलल से चुनकर आए। राजीव गांधी के कार्काल में नारायणन केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल किए गए। मंत्री के रूप में इन्होंने योजना (1985), विदेश मामले (1985-86) तथा विज्ञान एवं तकनीकी (1986-89) विभागों का कार्यभार सम्भाला। 

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नरायणन ने बतौर सांसद भारत में अंतराष्ट्रीय पेटेण्ट क़ानून को भारत में नियमित करवाया। श्री के आर नारायणन, डॉ. शंकर दयाल शर्मा के राष्ट्रपति रहते हुए 21 अगस्त, 1992 को उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए। प्राथमिक रूप से इनका नाम वी. पी. सिंह ने अनुमोदित किया था। उसके बाद जनता पार्टी संसदीय नेतृत्व द्वारा वाम मोर्चे ने भी इन्हें अपना उम्मीदवार घोषित किया। पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने भी इन्हें हरी झण्डी दिखाई।

आर्टिकल 356 के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा किसी भी राज्य की क़ानून व्यवस्था बिगड़ने की स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। ऐसे मौक़े दो बार आए। 

पहली बार 22 अक्टूबर, 1999 को इन्द्रकुमार गुजराल सरकार ने उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार को बर्ख़ास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग  की। दूसरी बार 25 सितम्बर, 1994 को अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने बिहार में राबड़ी देवी की सरकार को बर्ख़ास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की। 

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इन दोनों मौकों पर राष्ट्रपति श्री नारायणन ने उच्चतम न्यायालय के 1994 के निर्णय का अवलोकन किया, जो एस. आर. बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ़ इण्डिया के मामले में दिया गया था। इन मौकों पर राष्ट्रपति ने ऐसे आग्रह पुनर्विचार के लिए लौटाकर एक महत्त्वपूर्ण दृष्टान्त पेश किया, ताकि राज्य सरकारों के अधिकारों की भी सुरक्षा सम्भव हो सके।

मई 1999 में पाकिस्तान के साथ कारगिल में युद्ध छिड़ गया। ऐसी विकट स्थिति में राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सलाह दी कि राज्यसभा में युद्ध को लेकर चर्चा की जाए। ऐसा पहली बार हुआ जब सरकार न रहने की स्थिति में राज्यसभा का सत्र अलग से बुलाया गया हो। 

राष्ट्रपति नियुक्त होने के बाद नारायणन ने एक नीति अथवा सिद्धान्त बना लिया था कि वह किसी भी पूजा स्थान या इबादतग़ाह पर नहीं जाएंगे-चाहे वह देवता का हो या देवी का। यह एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति रहे जिन्होंने अपने कार्यकाल में किसी भी पूजा स्थल का दौरा नहीं किया।

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के. आर. नारायणन ने कुछ पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें 'इण्डिया एण्ड अमेरिका एस्सेस इन अंडरस्टैडिंग', 'इमेजेस एण्ड इनसाइट्स' और 'नॉन अलाइमेंट इन कन्टैम्परेरी इंटरनेशनल निलेशंस' उल्लेखनीय हैं। 

इन्हें राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कई पुरस्कार प्राप्त हुए थे। 1998 में इन्हें 'द अपील ऑफ़ कॉनसाइंस फ़ाउंडेशन', न्यूयार्क द्वारा 'वर्ल्ड स्टेट्समैन अवार्ड' दिया गया। 'टोलेडो विश्वविद्यालय', अमेरिका ने इन्हें 'डॉक्टर ऑफ़ साइंस' की तथा 'आस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय' ने 'डॉक्टर ऑफ़ लॉस' की उपाधि दी। 

इसी प्रकार से राजनीति विज्ञान में इन्हें डॉक्टरेट की उपाधि तुर्की और सेन कार्लोस विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान की गई।

के. आर. नारायणन का निधन 9 नवम्बर, 2005 को आर्मी रिसर्च एण्ड रैफरल हॉस्पिटल, नई दिल्ली में हुआ। पहले इन्हें न्यूमोनिया की शिकायत हुई, फिर गुर्दों के काम न करने के कारण इनकी मृत्यु हो गई।

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